सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०४ 🔊(26.30) नवंबर *
२०२१
भरी दुपहरी में अँधियारा, सूरज परछाईं से
हारा,
अन्तरतम का नेह निचोड़ें, बुझी हुई बाती
सुलगाएँ
आओ फिर से दिया जलाएँ ।
अटल बिहारी वाजपेयी
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लक्ष्मी-संदेश मैंने पढ़ा
(दीपावली के पर्व पर,
चालीस दशक पहले रिंकी भट्टाचार्य ने लक्ष्मीजी का यह संदेश नारद के हाथों
हम तक पहुँचाया था। हम, उस समय भी थे आज भी हैं। शायद उस समय
भी हमने यही कहा होगा ‘क्या करें जमाना ही ऐसा है, हम मजबूर हैं’। तब से आज के जमाने में ‘सुधार’ हुआ या ‘खराब’ हुआ है? इसके लिए किसी भी प्रकार के आँकड़े की दरकार नहीं है। हम
जानते हैं। और, क्या आप को मालूम
है यह ‘जमाना’ कौन है? क्या ये हम ही नहीं हैं? हम कहते हैं ‘क्या करें मजबूर हैं!’ इससे भी मजेदार बात यह है कि
हम मजबूरी में जमाने के अनुसार चल रहे हैं तो ‘मजबूत’ हैं और जिन्होंने मजबूती के साथ जमाने को बदला उसे ‘मजबूर’ की संज्ञा दे दी!)
...बसंत से भी लुभावनी ऋतु, चाँदनी दिग-दिगन्त में फैली हुई, नारायण और लक्ष्मी अपने सिंहासनों पर विराजमान। नारायण बोले लक्ष्मी से – ‘हे त्रिभुवन की रक्षा करने वाली, रिद्धी-सिद्धि देनेवाली, तुम मर्त्यलोक के प्राणियों के कष्ट का निवारण कब करोगी’।
लक्ष्मी ने सिर नवाकर ध्यान से स्वामी की बात सुनी और बोली, ‘हे नाथ, मर्त्यलोक के नर-नारी अपने लोभ और मत्सर के कारण कष्ट उठा रहे हैं। वे इतने पतित हो गये हैं, भ्रष्टाचार में लिप्त हो गये हैं, वासनाओं में अंधे हैं, बंधुजनों की हत्या में लीन हैं, और घृणा फैलाने में व्यस्त हैं कि अब वे इसी बात के योग्य हैं कि भाँति-भाँति के कष्ट भोगें। अब तो धरती का वातावरण इतना कलुषित हो गया है कि देवगण वहाँ जाना ही नहीं चाहते’।
लक्ष्मी जी के ये कठोर वचन सुनकर नारायण उदास हो गये। उन्होंने पूछा, ‘हे देवी, फिर मर्त्यलोक के प्राणियों के उद्धार का उपाय क्या है? वे क्या करें कि उनके घर में लक्ष्मी का निवास हो?’ यह मर्म वार्ता चल ही रही थी कि लो, नारद भी वीणा टंकारते हुए आ पहुँचे। वे सीधे धरती से आ रहे थे और बिलकुल ताजे आँखों देखे समाचार वहाँ से लाये थे। उन्होंने भी बताया कि धरती कष्टों के बोझ से लदी हुई है। एक कण भी ऐसा नहीं है जहाँ पावनता हो, आनंद हो।
लक्ष्मीजी पुन: बोलीं, ‘हे मुनिश्रेष्ट उन्हें जानना चाहिये, विचार करना चाहिये कि वे यह कष्ट क्यों भोग रहे हैं। देवताओं ने मनुष्यों पर कृपा करनी क्यों छोड़ दी? क्यों वे धरती का ध्यान भुला बैठे हैं? इसका कारण यह है कि मनुष्यों में भौतिक समृद्धि की लालसा अतिरेक पर पहुँच गई है। न उनमें बंधुत्व की भावना रह गई है, न अपने से बड़ों के प्रति आदर, न मनुष्य मात्र के लिये करुणा। केवल अपनी लालसाओं का अन्धा दास बन कर रह गया है मनुष्य। फिर भी...”, लक्ष्मी जी असीम करुणा से द्रवित हो कर बोलीं, ‘मैं समस्त पापाचार और प्राणियों के दु:ख का नाश करने पुन: पृथ्वी पर अवतरित होऊँगी’।
कुछ
क्षण विचारों में डूबी रहीं, फिर बोली, ‘सुनो हे ब्रह्मसुत, मेरा
संदेश सुनो। विशेषत: पृथ्वी पर नारी-जाति के लिये है यह मेरा संदेश। क्योंकि नारी
ही पुरुष जाति की जननी है। स्त्री को यह समझ लेना चाहिये कि वह केवल भोग्या नहीं
है। वह समस्त धर्मों का, आचारों का आश्रय है, मनुष्य मात्र के जीवन और संस्कृति की संरक्षिका है। नारी को ब्रह्म
मुहूर्त में ही जाग जाना चाहिये। सब तरफ आस-पास उसे स्वच्छता रखनी चाहिये।
स्वच्छता होगी तभी तो देवगण पधारेंगे। मैं मनुष्य जाति का कल्याण स्त्री-जाति के
माध्यम से ही करती हूँ। अगर स्त्री की बुद्धि भटक जाये, वह
स्वार्थी हो जाये, समाज और कुल की मर्यादा का पालन न करे, तो फिर मैं भी कुछ नहीं कर सकती। अगर वह परिवार की देख-भाल भली-भांति करे, तो मैं उसे आनंद और धन-धान्य से भर देती हूँ’।
“जिस घर में गंदगी हो, शोर हो, व्यर्थ की वितंडा हो, उस घर में मैं कभी नहीं जाती। जहाँ लोग मीठी वाणी बोलते हों, जहाँ जीवन पद्धति सुन्दरता से सनी हो, जहाँ शांति छायी हो, वहाँ मैं निवास करती हूँ’। ‘धरा को मेरा वरदान स्त्रियों के माध्यम से ही मिलता है। न मैं जाति देखती हूँ, न संप्रदाय। क्रोध, अहंकार और लोभ तो मुझे जरा भी नहीं भाते। मैं तो उसकी चेरी हूँ, जिसमें नम्रता है, करुणा है, मातृभाव है, संकल्प है, और मर्यादा पालन है’।
‘हे
ब्रह्मसुत, तुमने मेरा संदेश सुना। अब तुम त्वरित गति से
भूलोक पधारो और जो मैंने कहा है उसे भूलोक के प्राणियों तक पहुँचा दो, ताकि वे उन कष्टों से मुक्ति पा सकें, जो स्वयं
उन्होंने अपने लिये उत्पन्न कर लिये हैं। और मेरी आज्ञा का पालन कर सुख, संतोष और शांति लाभ कर सकें। जो मेरे संदेश को सुनेंगे और समझेंगे, उनका पालन करेंगे, मैं सदा उनके साथ रहूँगी’।
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शुभ-लाभ और भाषा
मैंने पढ़ा
(काशीनाथ जोशी के कलम से)
‘शुभ’ और ‘लाभ’ ये दो ऐसे शब्द हैं
जो हर व्यापारी की गद्दी पर आपको लिखे मिलेंगे। छोटा-बड़ा हर व्यापारी इन दो शब्दों
को अपनी गद्दी के पास बड़ी श्रद्धा से लिखवाता है, मानो ये दो
शब्द साक्षात गणेश और लक्ष्मी हों। ‘शुभ-लाभ’ में से शुभ का अर्थ बहुत व्यापक है। शुभ का संबंध उसके व्यापार की
वस्तुओं, ग्राहक-समाज दोनों से है। इन दोनों का शुभ सोचते
हुए अपने अल्प लाभ या समुचित लाभ की दृष्टि से व्यापार करना ही ‘शुभ-लाभ’ का व्यापार करना है। शायद यह कहा जायेगा कि
आज के जमाने में यह असंभव है। किन्तु क्या सचमुच स्थिति यही है? क्या समाज के शुभ को ध्यान में रख कर व्यापारी वर्ग कार्य कर ही नहीं
सकता? इन प्रश्नों पर गहराई से सोचें।
एक उदाहरण आजादी की लड़ाई का है। जब उसका नेतृत्व एक ‘बनिये’ के हाथ में आया, तो शायद उसने शुभ-लाभ की दृष्टि से उस पर सोचा और आंदोलन को आगे बढ़ा कर हमें आजादी का शुभ-लाभ कराया, आजादी हासिल की। आजादी की लड़ाई में हमें जो कुछ प्राप्त करना था, उसमें से आज भी बहुत-कुछ प्राप्त करना शेष है। ऐसी ही एक प्रमुख बात है ‘भाषाई आजादी’ की। आज भी देश में विदेशी भाषा अँग्रेजी का प्रभुत्व है इसके लिए बहुत हद तक भारतीय भाषाओं के साथ व्यापारी वर्ग का असहयोग ही जिम्मेदार है। भारत का व्यापारी, भाषाई स्वतन्त्रता की लड़ाई में हिस्सा नहीं ले रहा है।
यह विचित्र सी बात है; क्योंकि आजादी की लड़ाई के जमाने में भारतीय व्यापारी अपनी भाषा के प्रति आस्थावान था। अँग्रेजी का मोह तब उसे नहीं होता था। दुकान के पटल से ले कर हिसाब लिखने तक हर काम, उसका अपनी भाषा के प्रति सहज आग्रह था। किन्तु अंग्रेजों के जाने के बाद उसे अँग्रेजी से मोह हो गया। उद्योग-व्यापार में अँग्रेजी का प्रचलन बढ़ता गया और भारतीय भाषाएँ पिछड़ती गईं। यह शुभ नहीं है। एक स्वतंत्र देश का व्यापारी अपने ही देश की भाषाएँ छोड़ दे, यह तो अशुभ है।
यह सहज-सिद्ध बात है कि जो उसके ग्राहकों की भाषा है उसी में काम करना और अपने काम का प्रचार करना व्यापारी के लिये लाभकारी है। शुभ तो यह है ही। फिर हम उल्टा क्यों सोच रहे हैं? क्यों अँग्रेजी की ओर बढ़ रहे हैं? इससे अतिरिक्त लाभ कितना हो रहा है? इन प्रश्नों पर व्यापारी सोचें। वे इसका हिसाब भी लगायें कि अगर दुकान का पटल अँग्रेजी में है तो कितना लाभ हो रहा है और अगर यही पटल हिन्दी में हो तो क्या लाभ में कमी होगी?
उत्तर भारत में ही नहीं अन्य प्रदेशों में भी आधे से अधिक व्यापारियों के पटल या तो हिन्दी में हैं या प्रादेशिक भाषा में। तो क्या भारत का आधा व्यापारी समाज घाटे का व्यापार कर रहा है? निश्चित ही आप कहेंगे, नहीं। वे भी निश्चित ही लाभ कमा रह हैं – शुभ करते हुए लाभ। क्या भारत का बाकी आधा भटका हुआ व्यापारी वर्ग इससे कोई सबक नहीं लेगा?
आइए, इस प्रश्न से जुड़ी हुई दूसरी बात भी सोचें। कहावत हैं ‘यथा राजा तथा प्रजा’। इस देश पर जब अंग्रेजों का शासन था, तब दिल्ली का ही नहीं, लखनऊ, पटना, बंबई, कलकत्ता का सारा राजकाज अँग्रेजी में ही चलता था, तो उसे बहुत गलत नहीं कहा जा सकता था। पर आज तो ऐसा नहीं है। केंद्रीय सरकार का बहुत कामकाज अब हिन्दी में होने लगा है। हिन्दी भाषी प्रदेशों में अधिकांश राजकाज हिन्दी में होने लगा है। अनेक अहिंदी राज्य अपनी प्रादेशिक भाषाओं में काम करने लगे हैं। वे भाषाएँ निश्चय ही अँग्रेजी के बजाय हिन्दी के ज्यादा निकट हैं। पर हमारा व्यापारी इस परिवर्तन को देख ही नहीं रहा है। मजेदार बात यह है कि जब हमारा व्यापारी समाज अँग्रेजी की ओर बढ़ रहा है, तब विदेशी कंपनियाँ हिन्दी की ओर बढ़ रही हैं। आज बाजार में ढेरों ऐसे उत्पादन गिनाये जा सकते हैं, जो विदेशी कम्पनियों के हैं: पर जिनके आवरण पर एक तरफ अँग्रेजी है, तो दूसरी तरफ उतनी ही शान से हिन्दी में भी है। ये विदेशी कंपनियाँ व्यापार का गुर जानती हैं। जिन्हें लाभ कमाना है, वे ग्राहक की भाषा को अवश्य महत्व देते हैं। वे यह भी देखते हैं कि हवा किस ओर बह रही है।
मैंने अपने नगर ग्वालियर के अँग्रेजी पटलों पर सर्वेक्षण किया, तो पाया कि जहाँ भारतीय स्टेट बैंक जैसे आसमान को छूने वाले बड़े प्रतिष्ठान के सब पटल हिन्दी के हैं, वहीं बाल काटनेवालों और दर्जियों के पटल अँग्रेजी के हैं। शायद अपने को छोटा महसूस करने वाले व्यापारी अँग्रेजी का पटल लगा कर बड़ा बनना चाहते हैं। कितनी हस्यास्पद स्थिति है यह!
जो
व्यापारी अपने माल को अधिकाधिक ग्राहकों के पास ले जाना चाहता है, जो अपने माल के प्रति ग्राहक को आकृष्ट करना चाहता है, जो ईमानदारी से अपने माल के गुणों को ग्राहक को बतलाना चाहता है - उसके
लिये यह आवश्यक है कि वह हिन्दी तथा प्रादेशिक भाषाओं का व्यवहार करे।... व्यापार
और व्यापारी का शुभ-लाभ भारतीय भाषाओं के साथ जुड़ा हुआ है। इस बात को हमारे व्यापारी
जितना शीघ्र समझें, उतना ही अच्छा होगा।
(प्राय: भारतीय भाषा का समर्थन, विदेशी भाषा का विरोध समझा जाता है और इसे उसी
प्रकार प्रसारित भी किया जाता है। यह सत्य से दूर है। अपनी भाषा का समर्थन कभी भी
विदेशी भाषा का विरोध नहीं हो सकता। मैं अपनी
माँ का आदर करता हूँ का यह तात्पर्य नहीं है कि मैं दूसरे की माँ आदर नहीं
करता। अवश्यकतानुसार विदेशी भाषा का ज्ञान अर्जित करें और प्रयोग भी, लेकिन देश की कुछ प्रतिशत आबादी के लिए पूरे देश को अपनी भाषा छोड़ कर
विदेशी भाषा सीखने-सिखाने की पहल दोषपूर्ण
है।)
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शक्ति संभावना की लघु कहानी - जो सिखाती
है जीना
छांदोग्य
उपनिषद में एक कथा है श्वेतकेतु की। उसके पिता उसे उपदेश दे रहे हैं, पास ही एक बरगद का वृक्ष है, उसके नीचे कुछ फल गिरे
हुए हैं। पिता ने बेटे को एक फल देते हुए पूछा, “बेटा यह
क्या है?”
“यह
तो बरगद का फल है”, बेटे ने कहा।
“इसे
तोड़ो, इसके भीतर क्या है?”
“इसके
भीतर बहुत सारे बीज हैं पिताजी”।
पिता
ने बेटे को एक बीज देते हुए कहा, “इसे तोड़ो, इसके भीतर क्या है?”
श्वेतकेतु
ने वह नन्हा सा बीच तोड़ा और ध्यान से देखकर कहा,
“इसमें तो कुछ भी नहीं है”।
पिता
ने कहा, “बस, जहाँ तुम कुछ
नहीं देख रहे हो वहीं इतना बड़ा बरगद का पेड़ छुपा है। तमाम
विषम-परिस्थितियों से जूझते और संघर्ष करते हुए यही न दिखाई देने वाला ‘कुछ नहीं’ एक विशाल वृक्ष के रूप में परिवर्तित हो जायेगा। वत्स इसी बीज
की तरह टूट जाने की जिद, आकांक्षा और संकल्प लेकर हर व्यक्ति अपनी अदृश्य संभावनाएं तलाशकर
पूर्ण क्षमता और मौलिकता के साथ खुद को प्रकट कर सकता है”।
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया
है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
इसी कड़ी में यहाँ इसकी ग्यारहवीं किश्त है।)
(११)
परामर्शदाता नॉर्टन और मैजिस्ट्रेट
बर्ली साहब
यदि नॉर्टन साहब थे नाटक के रचयिता, प्रधान अभिनेता और सूत्रधार तो
मैजिस्ट्रेट बर्ली को कहा जा सकता है नाटककार का आश्रयदाता (patron)। बर्ली साहब थे शायद स्कॉच जाति के गौरव। उनका चेहरा स्कॉटलैंड का स्मारक
चिह्न था। खूब गोरी, खूब लंबी, अति कृष, दीर्घ देहयष्टि पर छोटा सा सिर देख ऐसा लगता था जैसे अग्रभेदी आक्टोरलोनी
के स्मारक पर छोटे-से आक्टोरलोनी बैठे हों, वहाँ क्लियोपेट्रा
के स्तम्भ के शिखर पर एक पका नारियल रखा हो। उनके बाल थे धूसर वर्ण और स्कॉटलैंड
की सारी ठंड और बर्फ उनके चेहरे के भाव पर जमी हुई थी। जो इतना दीर्घकाय हो उसकी
बुद्धि भी तद्रूप होनी चाहिए, नहीं तो प्रकृति की मतिव्ययता
के संबंध में संदेह होता है। किन्तु इस प्रसंग में, बर्ली की
सृष्टि के समय, लगता है, प्रकृति देवी
कुछ अनमनी एवं अन्यमनस्क हो गयी थीं। अंग्रेज़ कवि मरलो ने इस मितव्ययता का, ‘छोटे-से
भण्डार में असीम धन’
(infinite riches in a little room) कह वर्णन किया है किन्तु बर्ली का दर्शन कवि के वर्णन से विपरीत
भाव मन में जागता है – असीम भण्डार में क्षुद्र धन। सचमुच,
इस दीर्घ देह में इतनी थोड़ी विद्याबुद्धि देख दु:ख होता था और इस तरह के
अल्पसंख्यक शासनकर्ताओं द्वारा तीस कोटी भारतवासी शामिल हो रहे हैं यह याद कर
अंग्रेजों की महिमा और ब्रिटिश प्रणाली पर प्रगाढ़ भक्ति उमड़ती थी। श्रीयुत
व्योमकेश चक्रवर्ती द्वारा जिरह करते समय बर्ली साहब की विद्या की पोल खुली। इतने
साल मैजिस्ट्रेटगिरी करने के बाद भी यह
निर्णय करने में उनका सिर घूम गया कि उन्होंने अपने कर कमलों में यह मुकदमा कब
ग्रहण किया या कैसे मुकदमा ग्रहण किया जाता है, इस समस्या को
सुलझाने में असमर्थ हो चक्रवर्ती साहब पर इसका भर दे साहब स्वयं निष्कृति पाने के
लिए सचेष्ट हुए। अभी भी यह प्रश्न मुकदमे की अतिजटिल समस्याओं में से एक गिना जाता
है कि बर्ली साहब ने कब मुकदमा हाथ में लिया था।
चटर्जी महाशय के प्रति किये गये जिस करुण निवेदन
का उल्लेख मैंने किया है उससे भी साहब की चिन्तनधारा का अनुमान लगाया जा सकता है।
शुरू से ही वे नॉर्टन साहब के पाण्डित्य और वाग्विलास से मन्त्रमुग्ध हो उनके वश
में हो गये थे। ऐसे विनीत भाव से नॉर्टन द्वारा प्रदर्शित पथ का अनुसरण करते, नॉर्टन की हाँ में हाँ मिलाते, नॉर्टन के हँसने से हँसते, नॉर्टन के कुपित होने पर
कुपित होते कि यह सरल शिशुवत् आचरण देख कभी-कभी मन में प्रबल स्नेह और वात्सल्य का
आविर्भाव होता। बल के स्वभाव में निरा लड़कपन था। उन्हें कभी भी मजिस्ट्रेट न मान
सका, ऐसा लगता मानों स्कूल का छात्र हठात् स्कूल का शिक्षक
बन शिक्षक के उच्च मंच पर चढ़ बैठा है। ऐसे ही वे कोर्ट का काम चलाते। कोई उनके
साथ अप्रिय व्यवहार करता तो स्कूली शिक्षक की तरह शासन करते। हम में से यदि कुछ
मुक़द्दमे के प्रहसन से विरक्त हो आपस में बातें करने लगते तो बर्ली साहब स्कूल
मास्टर की तरह बिगड़ने लगते, उनकी बात न सुनने पर सबको खड़े
हो जाने की आज्ञा देते, उसका भी तुरन्त पालन न किया तो
प्रहरी को कहते हमें खड़ा कर देने के लिए। हम स्कूल मास्टर के इस रंग-ढंग को देखने
के इतने आदी हो गये थे कि जब बर्ली और चटर्जी महाशय का झगड़ा खड़ा हुआ तो हम प्रति
क्षण इस आशा में थे कि अब बैरिस्टर साहब को खड़े रहने का दण्ड मिलेगा। बर्ली साहब
ने लेकिन उलटा रास्ता पकड़ा, चिल्लाते हुए ‘बैठ जाइये, मि.चटर्जी’ कह
अलीपुर स्कूल के इस नवागत उद्दण्ड छात्र को बिठा दिया। जैसे कोई-कोई मास्टर छात्र
के किसी प्रश्न से या पढ़ाते समय अतिरिक्त व्याख्यान चाहने से खीज कर उसे डाँट
देते हैं, बर्ली भी आसामी के वकील की आपत्ति पर खीज उसे डपट
देते। कोई-कोई साक्षी नॉर्टन को परेशान करते नॉर्टन सिद्ध करना चाहते थे कि अमुक
लेख अमुक आसामी के हस्ताक्षर हैं, साक्षी यदि कहते कि नहीं,
यह तो ठीक उस लेख की तरह नहीं, फिर भी हो सकता
है, कहा नहीं जा सकता बहुत से साक्षी इसी तरह का उत्तर देते
थे तो नॉर्टन अधीर हो उठते। बक-झक कर, चिल्ला कर, डॉट-डपट कर किसी भी उपाय से अभीप्सित उत्तर उगलवाने की चेष्टा करते। उनका
अन्तिम प्रश्न होता, “तुम क्या मानते हो, हाँ या ना?” साक्षी न हाँ कह पाते न ना, घुमा-फिरा कर बार-बार वही उत्तर देते। नॉर्टन को यह समझाने की चेष्टा
करते कि उनका कोई भी विश्वास नहीं, वे सन्देह में झूल रहे
हैं। किन्तु नॉर्टन वह उत्तर नहीं चाहते थे, बार-बार
मेघगर्जना करते हुए उसी सांघातिक प्रश्न से साक्षी के सिर पर वज्राघात करते,
“हाँ, तो फिर क्या राय है महाशय, आपकी?” नॉर्टन के क्रुद्ध होते ही बर्ली भी ऊपर से
गरजते, "टोमारा क्या विश्वास है?" बेचारे साक्षी महाविपद् में पड़ जाते। उनका कोई विश्वास नहीं, लेकिन एक तरफ़ से मजिस्ट्रेट, दूसरी तरफ से नॉर्टन
क्षुधित व्याघ्र की तरह उनकी बोटी-बोटी अलग कर अमूल्य अप्राप्य विश्वास बाहर
निकलवाने को तत्पर हो दोनों तरफ़ से भीषण गर्जन कर रहे हैं। बहुधा विश्वास ज़ाहिर
न होता, चकरायी बुद्धि और पसीने से तर साक्षी उस यन्त्रणा
स्थल से अपने प्राण बचा भाग खड़े होते। कोई-कोई प्राणों को ही विश्वास से प्रियतर
मान नॉर्टन साहब के चरण-कमलों में झूठे विश्वास का उपहार चढ़ा बच निकलते, नॉर्टन भी अति सन्तुष्ट हो बाकी जिरह स्नेहसहित सम्पन्न करते। ऐसे
परामर्शदाता के साथ आ मिले ऐसे मजिस्ट्रेट तभी तो मुक़द्दमे ने और भी अधिक नाटकीय
रूप धारण कर लिया था।
(क्रमश:, आगे अगले अंक में)
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