सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०६ 🔊(२३.१४) जनवरी * २०२२
परिवर्तन के कारण नये
युग का आना,
पुराने युग की अवहेलना
नहीं है,
पुराने युग का विस्तार
है नया युग।
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नया सवेरा मैंने पढ़ा
द्वाभा ने समुद्र के पीछे से झाँक कर प्रातः को
निहारा, आलसी बादलों को देखा,
नीचे खिले पुष्पों पर टकटकी बांधी, हरीतिमा की
मन-ही-मन प्रशंसा की और अंत में पवन को धन्यवाद दिया जो सब को बाहों में लिये झूला झुला रहा था। सब मस्ती
में सो रहे थे, बाँस के पेड़ तो खर्राटे तक भर रहे थे। सब को
गहरी नींद में देख वह मन-ही-मन बहुत प्रसन्न हुई और चुपके से बिना पदचाप किये
समुद्र के पीछे से होती हुई आकाश तक आ गयी। यहाँ विराजमान होने के पहले उसने अपनी वही शैतानी
दोहरायी। साथ लाये हुए गुलाल को पहले निकटवर्ती बादलों पर छिड़का और फिर जिधर
दृष्टि घूमी वहीं गुलाल की वर्षा कर दी।
पवन
ने देखा कि द्वाभा ने अपना कार्य कर लिया तो उसने अपनी गति जरा मंद करके ऊपर ताका।
चारों तरफ गुलाल-ही-गुलाल बिखरा हुआ। यह देख पवन का भी सीना जरा तन गया और उसने
सोचा: “अगर मैं प्रकृति को
झूला झुला कर न सुला देता तो भला द्वाभा अपनी शैतानी किस तरह कर पाती ?"
इधर
सूर्य भी गुलाल की छटा को देख मुस्कुरा उठा। उसकी एक मुस्कान ने बहुत से गुलाल को
इस तरह समेट लिया जैसे धूप के आते ही ओस की बूंदें उसमें सिमट जाती हैं। आलसी
बादलों ने धीरे से आँखें खोलीं। अपने ऊपर गुलाल देख उन्होंने द्वाभा को फिर से
मन-ही-मन कोसा और एक भीगे हुए विहंग की भांति अपने पंखों को झाड़ते हुए गुलाल
निकालने का प्रयत्न करने लगे। लेकिन वह साधारण गुलाल तो था नहीं जो यूँ साफ हो
जाता। हारकर, अपने पंखों को समेट वे
सूर्य के अधरों की ओर ताकने लगे जो एक ही मुस्कान में सारे गुलाल को समेट लेते हैं।
धरती
ने भी आँखें खोलीं और अपनी क्रोड में सोये फूल-पत्तों को जगाया। अपने ऊपर बिखरी
लालिमा देख संपूर्ण धरती हर्ष से पुलकित हो उठी, उसके लिये तो यह श्रीमाँ का स्पर्श और आशीर्वाद था।
चिड़िया अपने-अपने घोंसलों से निकल कर उस दिव्य शक्ति का स्वागत गान करती इधर से
उधर नाचने लगीं। नीरव पुष्प अभीप्सा की अंजलि लिये ऊपर की ओर टकटकी लगाये उस महान्
शक्ति का आवाहन करने में लग गये। नेत्रों को सुख देनेवाली हरीतिमा मानों पर खोलते
हुए पक्षी की तरह पत्ते खोलकर उड़ने के लिये उद्यत हो रही थी।
प्रत्येक प्राणी में से, प्रत्येक वस्तु के अंदर से एक
अभीप्सा उठ रही थी। ऐसा लगता था कि संपूर्ण पृथ्वी से एक सामूहिक, शांत, नीरव प्रार्थना का मधुर गुंजन उठ रहा हो।
समस्त वातावरण होमाग्नि की जिह्वाओं की भांति ऊपर की ओर उठ रहा था। यह सारा दृश्य
देख मेरा मन अधीर हो उठा।....
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... अंदर प्रवेश करते ही माँ भगवती के
साक्षात् दर्शन हुए। बादल का ही एक ऊँचा उठा हिस्सा उनका सिंहासन था। उनके आस-पास
कोई भौतिक वस्तु न थी। उनके पास पहुँचते ही मैंने संपूर्ण श्रद्धा भाव से अपने
आपको श्रीमाँ के चरणों में सौंप दिया। मुझे आशीर्वाद देते हुए उन्होंने मुझे अपने
बिलकुल पास बैठा लिया। कुछ पलों तक वे मुझे केवल देखती रहीं, फिर अचानक बोलीं: "तुमने भी
निर्वाण ले लेने की ठानी है?"
माँ
ने जब देखा कि मैं उनके प्रश्न को ठीक तरह से समझ नहीं पायी तो वे फिर बोलीं:
"जानती हो निर्वाण किसे कहते हैं? यह वह अवस्था है जिसमें मनुष्य धरती की सब वस्तुओं को
छोड़-छाड़ कर अपनी इच्छाओं पर विजय पाकर धरती के कोलाहल से दूर हो जाता है। वह
स्वयं तो ऊपर आ जाता है लेकिन अपने पीछे वालों को उसी अंधेरे कुएँ में पड़ा रहने
देता है।"
"हाँ, मैं
भी .... वगैरह किसी का ख्याल किये बिना अकेली ही आ गयी थी। उन्हें तो उस समय मैं
ऐसे भूल गयी मानों कभी जाना ही न हो। हाँ, मेरा कर्तव्य यही
होगा कि पुनः धरती पर जाकर अपनी सभी सखियों को बदल कर उनके साथ आऊँ। लेकिन क्या सब
यहाँ आने को सहमत होंगी?" मैंने मन में सोचा।
"नहीं, पहले
उनके अंदर तुम्हें वह अभीप्सा जगानी होगी जिसके आगे संसार के सब सुख नगण्य लगने
लगें। तब तुम रहस्य को पाने के लिये तैयार हो जाओगी और तुम्हें यहाँ आने की जरूरत
न होगी। तुम्हारी सच्ची पुकार सुनकर मुझे ही धरती पर दौड़ते हुए आना पड़ेगा। जाओ,
मेरा आशीर्वाद सदैव तुम्हारे साथ हैं, मेरी
सच्ची सेविका बनकर कार्य करना। मैं तुम्हारे भीतर इतनी शक्ति दे रही हूँ कि बिना
धागे के आकाश में आजादी से विचर कर मेरा संदेश सुना सको। अब तुम किसी बंधन में न
रहोगी।...
“मैं हूँ पतंगे
कागजी, डोर है उसके हाथ में,
चाहा इधर
घटा दिया, चाहा उधर बढ़ा दिया।”
(वंदनाजी, श्रीअरविंद की साधिका
हैं और वर्तमान में श्रीअरविंद सोसाइटी से निकलने वाली पत्रिका ‘अग्निशिखा’ की संपादिका हैं। यहाँ उनके लेख का
प्रारम्भिक और अंतिम अंश दिया गया है। ‘स्व’ का चिंतन हमें अकेले को स्वर्ग में ले जाता है लेकिन जब हम ‘सर्व’ का चिंतन करते हैं तब स्वर्ग ही धरा पर अवतरित
हो जाती है। श्रीअरविंद ने कहा था कि अगर कहीं स्वर्ग है तो मै उसे धरा पर ही
लाऊँगा, मुझे स्वर्ग यहीं चाहिए – सं.।)
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निर्भीक
व्हाट्सएप्प में मुझे प्राप्त हुई। मैं उसे यहाँ छापने से अपने आप को नहीं रोक पा रहा हूँ। जनरल ने निर्भीकता का अर्थ समझाने के लिए महात्मा गाँधी की उक्ति उद्धृत की है,
निर्भीकता
आध्यात्मिकता की पहली शर्त है। डरपोकों की कोई नैतिकता नहीं होती।
प्रश्न
है क्या हम जनरल रावत से ज्यादा बहादुर, निर्भीक
और समझदार हैं?
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बापू की कमी खलती है
(गाँधी को याद करने वालों
की कमी नहीं... और समय के साथ उनको याद करने वालों की संख्या में भी लगातार वृद्धि
हो रही है। लेकिन जैसा और जिस प्रकार मयंक सक्सेना याद करते हैं वैसा कितने
लोग याद करते है...? अगर आप
गाँधी को याद करने वालों में नहीं हैं तो पहले खुद अपनी निगाहों से उसको जानिये।)
मैं खाँटी वामपंथी हूँ बापू, लेकिन
न मालूम क्यों सालों से हर रोज तुम्हें महसूस करता हूँ... कम्यूनिस्ट हो जाने के
बाद और शिद्दत से... और हिन्द स्वराज के कुछ हिस्सों में उतर जाने के बाद मिशनरी तरीके मैं तुम्हारे बारे में जिद करता
हूँ... मैं सोचता हूँ कि तुम होते तो आज एफडीआई को लेकर क्या कहते... मैं पूछता
हूँ कि क्या तुम दुबारा गुजरात में ही पैदा होना चाहते... क्या तुम नरोडा में जाकर उपवास करने लगते...
लेकिन बापू वे तुमको
बताते हैं मजबूरी का नाम, क्या मजबूरी थी तुम्हारी बापू, मोहनदास होने के बावजूद तुम जाकर बैठ गए थे जलते हुए नोआखाली में...
तब जब पूरा मुल्क तुम्हारा दिल्ली में इंतजार करता था। बापू जब
तुम्हारी वह पार्टी, जिसे तुमने भंग कर देने की सिफ़ारिश की
थी, दिल्ली में आजादी का जश्न मना रही थी... तुम उपवास कर रहे थे कि नोआखाली में दंगे रुक जाएँ,
लोग अपना ही खून बहाना बंद करें... कभी तुम्हारे जिस रास्ते
में फूल फेंके जाते थे, वहाँ काँच की बोतलें फेंकी जा रही
थीं और तुम बता रहे थे कि दरअसल महात्मा होना क्या होता है... तुम चाहते तो जा
सकते थे दिल्ली, लेकिन आखिर क्यों किस मजबूरी के तहत तुम
वहाँ जान जोखिम में डाल कर बैठे रहे, तुम दिल्ली नहीं
लौटे... लौटे तो शांति स्थापित करवाकर... इंसान से दरिंदा बने वे लोग फिर से इंसान
बन गए थे, क्या इसी को करिश्मा कहते हैं... हम वामपंथी ईश्वर
को नहीं मानते, लेकिन इस करिश्मा को करिश्मा जरूर मानते हैं...
बापू शायद तुम्हारे राम कोई और थे, वे कहानियों वाले राम तो
नहीं थे।
कहानी वाले राम से
बापू बड़ा डर लगता है... लेकिन बापू तुमने जो चंपारण में किया... नोआखाली में
किया... हम वामपंथी न सिंगूर में, न नंदीग्राम में कर पाये... और न ही कर पाये
गुजरात में, ये तो हमारा ही काम था दरअसल... और मालूम है, जिन्होंने तुमको मारा था, उन्होंने ही इस बार भी तुमको मारा, फिर से कत्ल कर
दिया... फर्क बस ये था कि इस बार वे हे
राम के नारे लगा रहे थे... लेकिन हम सोचते हैं कि अगर तुम होते तो क्या करते
बापू... क्या नरसंहार के दोषियों के हाथों
अपने आश्रम का जीर्णोद्धार करवाते... क्या तुम अभी भी काँग्रेस को राजनीति में बने
रहने देते... बापू क्या कहते तुम जो गुवाहाटी में हुआ उस पर... क्या तुम चाहते कि लोग टोपियों पर तुम्हारा नाम लिख
कर उछालते रहते... बापू हमारा काम तुमने किया... हम अपना काम करना अभी तक सीख नहीं
पाये हैं... ।
बापू तुम्हारी
बहुत याद आती है, जब इंसान को मजहब में बंटा देखता हूँ... मैं
तुम्हारे राम को नहीं मानता, लेकिन यह जरूर मानता हूँ कि
उसके नाम पर कत्ल भी नहीं होने चाहिये... मैं भी चाहता हूँ कि तुम होते तो शायद आज भी गरीबों के...
किसानों के साथ खड़े होते... भले ही अपने लोगों के खिलाफ खड़ा होना पड़ता... तुम्हारा
पहला आंदोलन भी किसानों के लिए ही था न, वो चंपारण वाला...
तुम कहते थे न कि मशीनों को इंसानों का रोजगार छीनने की छूट नहीं होनी चाहिये, बापू अगर तुम बदल सकते हो तो आ जाओ... और नहीं बदल सकते ... तो मेरे जेहन में भी आना छोड़ दो...
बापू तुम्हारी
पार्टी और साथी एफडीआई के साथ होते, तो
क्या तुम भी उनके साथ खड़े हो जाते... क्या तुम किसानों की जमीन छीनकर विकास करने
के सपने से सहमत हो जाते... जल, जंग और जमीन की लड़ाई के
सत्याग्रह पर किसी भी वामपंथी से पहला हक क्या तुम्हारा नहीं होता बापू... बापू
तुम्हारी कमी बेहद खलती है, खासकर तब,
जब गाँधी के नाम से लेकर लेनिन और मार्क्स तक का नाम लेने वाले ये सब भूल गये हैं
कि उनको दरअसल करना क्या है... बापू पूरे देश के गाँव चंपारण हो गये हैं और न जाने
कितने इलाके नोआखाली बन चुके हैं... बापू क्या तुम देखना
चाहते थे ऐसा आजाद भारत, जो आगे बढ़ते-बढ़ते फिर से मध्य युग
में पहुँच जाये...
तुम हिन्द स्वराज
को लेकर नेहरू और पटेल सबसे बहस करते थे न बापू,
लेकिन अब उस किताब पर कोई बहस नहीं होती... वो लाइब्रेरी के उदास कोनों में धूल
खाती है... स्वराज एक उपेक्षित शब्द है... ठीक महात्मा की तरह... और हाँ अब तुम
मजबूर भी नहीं रहे... तुम्हें शायद पता नहीं हो, लेकिन हाल
ही में क्षेत्र और धर्म की राजनीति करने वाले एक शख्स को इस देश का नया महापुरुष
घोषित किया गया... बताया भी गया कि उनके देहांत पर बापू के देहांत से ज्यादा लोग
जुटे... बापू हिंसा, अलगाव और सरकारी दमन इस देश का नया धर्म
है... परम धर्म... अहिंसा, एक टूटा हुआ सपना है... जिसे हमारी सरकार ने साबरमती आश्रम और डाक टिकटों में हिफाजत से सहेज दिया
है...
आज भी साम्यवादी
के तौर पर १०० में से ९० बार मेरी तुमसे मुठभेड़ होती है, और चाहता हूँ कि झूठ बोल दूँ पर ८० बार तुम जीतते हो बापू... ८० बार...
तुम्हारी ही बात को मैं अपने शब्दों में कहता हूँ हर जगह कहता हूँ कि १०० में से
९९ रास्ते अहिंसा के हैं एक आखिरी रास्ता हिंसा का है... लेकिन वो आखिरी है... और
दुनिया के ९९ मसले पहले ९९ रास्तों से हल हो सकते हैं...
बापू मैं तुम्हें
अक्सर देख भी पाता हूँ... कभी दशरथ मांझी में कभी इरोम शर्मिला में... और अभी हाल
ही में मैंने हरदा और खंडवा में १०० से ज्यादा गाँधी देखे थे... बापू तुमने सच कहा
था... और मालूम है मैं ही यह नहीं मानता, भगत
सिंह भी मानते थे... लेनिन भी... और बाकी सब भी... ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
असली पूंजी
लघु कहानी (संस्मरण) - जो सिखाती है जीना
गाँधीजी
देश भर में भ्रमण कर चरखा संघ के लिए धन इकट्ठा कर रहे थे। अपने दौरों के दौरान वे
उड़ीसा में एक सभा को संबोधित करने पहुँचे।
उनके भाषण के बाद एक बूढ़ी गरीब महिला खड़ी हुई, उसके
बाल सफ़ेद हो चुके थे, कपड़े फटे थे और वह कमर से झुक कर चल
रही थी, किसी तरह वह भीड़ से होते हुए गाँधीजी के पास पहुँची।
‘मुझे
गाँधी को देखना है’, उसने आग्रह किया और उन तक पहुँच कर उनके
पैर छूए।
फिर
उसने अपनी साड़ी के पल्लू में बंधा एक ताँबे का सिक्का निकाला और गाँधीजी के चरणों
में रख दिया। गाँधीजी ने सावधानी से सिक्का उठाया और अपने पास रख लिया। उस समय
चरखा संघ का कोश जमनालाल बजाज संभाल रहे थे। उन्होंने गाँधीजी से वह सिक्का माँगा, लेकिन गाँधीजी ने उसे देने से मना कर दिया।
‘मैं
चरखा संघ के लिए हजारों रुपए के चेक / नगद संभालता हूँ,’
जमनालालजी ने हँसते हुए कहा, ‘फिर भी
आप मुझ पर इस सिक्के को ले के यकीन नहीं कर रहे हैं?’
‘यह
ताँबे का सिक्का उन हजारों से कहीं अधिक कीमती है’ गाँधीजी
बोले, ‘यदि किसी के पास लाखों है और वह
हजार-दो हजार दे देता है तो उसे कोई फर्क नहीं पड़ता, लेकिन
ये सिक्का शायद उस औरत की कुल जमा-पूंजी थी। उसने अपना सारा संसार दान दे दिया।
कितनी उदारता दिखाई उसने। कितना बड़ा बलिदान दिया उसने!!! इसलिए इस ताँबे के सिक्के
का मूल्य मेरे लिए एक करोड़ से भी अधिक है’।
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक
धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी तेरहवीं किश्त है।)
(13)
गवाहों की श्रेणियाँ
जो गवाही देने आये थे उन्हें तीन श्रेणियों में बाँटा
जा सकता है। पुलिस और गोयन्दा, पुलिस के प्रेम में आबद्ध निम्न श्रेणी के लोग और सज्जन, और तीसरे अपने दोषवश पुलिस-प्रेम से वञ्चित, अनिच्छा
से आये हुए गवाह । हर श्रेणी का गवाही देने का ढंग था अलग-अलग। पुलिस महोदय
प्रफुल्ल भाव से, अम्लान वदन अपने पूर्व ज्ञात वक्तव्यों को
मनमाने ढंग से बोल जाते, जिसे पहचानना होता पहचान लेते-कोई
सन्देह नहीं, दुविधा नहीं, भूल-चूक
नहीं। पुलिस के संगी-साथी अतिशय आग्रह के साथ गवाही देते, जिसे
पहचानना होता उसे भी पहचान लेते और जिसे नहीं पहचानना होता उसे भी बहुत बार अतिशय उत्सुकतावश पहचान
लेते। अनिच्छा से आये गवाह जो कुछ जानते होते वही कहते, लेकिन वह बहुत थोड़ा होता; नॉर्टन साहब उससे असन्तुष्ट हो और यह सोच कर कि साक्षी के पेट में अपार
मूल्यवान् और सन्देहनाशक प्रमाण हैं, जिरह के बल पर उसका पेट
चीर उन्हें बाहर निकालने की भरपूर चेष्टा करते । इससे साक्षी महाविपद् में पड़
जाते। एक ओर नॉर्टन साहब की गर्जना और बर्ली साहब की लाल-लाल आँखें, दूसरी ओर झूठी गवाही दे देशवासियों को कालेपानी भेजने का महापाप। गवाहों
के सामने एक गुरुतर प्रश्न उठ खड़ा होता, नॉर्टन और बर्ली को
खुश करें या भगवान् को। एक तरफ़ क्षणस्थायी विपत्ति- मनुष्यों का कोप, दूसरी ओर पाप का दण्ड-नरक और परजन्म में दुःख। लेकिन वे सोचते, नरक और परजन्म तो दूर की बातें हैं, मनुष्यकृत विपद्
तो उन्हें अगले क्षण ही ग्रस सकती है। बहुतों के मन में यह डर था कि मिथ्या
साक्ष्य देने के लिए राजी न होने पर भी मिथ्या साक्ष्य के अपराध में पकड़े जायेंगे,
क्योंकि ऐसे स्थलों पर परिणाम के दृष्टान्त विरल नहीं। अतएव इस
श्रेणी के साक्षियों को जो समय साक्षी के कठघरे में अतिवाहित करना पड़ता वह उनके
लिए विलक्षण भीति और यन्त्रणा का समय होता। जिरह शेष होने पर उनके अर्द्ध-निर्गत
प्राण फिर से देह में लौट उन्हें यन्त्रणामुक्त करते। कुछ एक साहस के साथ गवाही
देते, नॉर्टन की गर्जना की परवाह न करते, अंगरेज परामर्शदाता भी यह देख जातीय प्रथा का अनुसरण कर नरम पड़ जाते। इस
तरह कितने ही साक्षी आये, कितनी तरह की गवाहियाँ दे गये,
किन्तु एक ने भी पुलिस के लिए उल्लेखनीय कोई सुविधा नहीं की। एक ने
साफ़ कहा- मैं कुछ नहीं जानता, समझ नहीं आता क्यों पुलिस
मुझे ज़बरदस्ती खींच लायी है! इस तरह का मुक़द्दमा चलाना शायद भारत में ही सम्भव
है, दूसरे देशों में जज इससे झुंझला उठते और पुलिस का गंजन
कर अच्छा सबक सिखाते। बिना अनुसन्धान किये दोषी निर्दोष का विचार न कर कठघरे में
खड़ा करना, अन्दाज़ से सौ-सौ साक्षी खड़े कर देश का पैसा
बहाना और आसामियों को निरर्थक लम्बे समय तक कारा- यन्त्रणा में रखना इस देश की
पुलिस को ही शोभा देता है। लेकिन बेचारी पुलिस क्या करे? वह
तो नाम की गोयन्दा थी, उसमें जब वह क्षमता ही नहीं थी तो ऐसे
साक्षियों के लिए एक विशाल जाल फेंक कर अन्दाज़ से उत्तम, मध्यम और अधम साक्षी फँसा कठघरे में खड़ा करना ही था
एकमात्र उपाय। क्या मालूम शायद वे कुछ जानते हों, कुछ प्रमाण
दे भी दें ? (क्रमशः आगे अगले अंक में)
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अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको सूतांजली कैसी लगी और क्यों? आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।
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