मंगलवार, 1 फ़रवरी 2022

सूतांजली, फ़रवरी 2022

 सूतांजली

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वर्ष : ०५ * अंक : ०७              🔊(26.13)                                                 फरवरी    * २०२२

जब कोई दिल दुखाता है तो चुप रहिये;

किसी भी जवाब से बेहतर

वक्त का जवाब होगा।

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विकास, प्रगति और सफलता (Growth, Progress and Success)   मैंने सुना

(आदरणीय भक्तवत्सलजी के वक्तव्य पर आधारित)

सामान्यतः हमलोगों में विकास-प्रगति-सफलता, इन तीन शब्दों, के बारे में एक भ्रम है, गलतफहमी है। जैसे-जैसे हमारे व्यापार की बिक्री बढ़ने लगती है, 50 करोड़ से 100 करोड़, 100 करोड़ से 500 करोड़ दुनिया कहने लगती है कि हमें सफलता मिल रही है। हमें भी इस बात की गलतफहमी होने लगती है कि हम सफल हो रहे हैं। क्यों ऐसा है कि नहीं? हाँ या नहीं? नहीं! ..... नहीं!!...... नहीं!!! विकास, प्रगति और सफलता में बहुत बड़ा फर्क है, जिसे समझने की जरूरत है। जब हमारे व्यापार की  बिक्री बढ़ती है 50 करोड़ से 100 करोड़, 100 करोड़ से 500 करोड़ यह हमारा सिर्फ विकास (growth) है। यह हमारी सफलता नहीं है। हमारी भौतिक संपत्ति में बढ़ोतरी हमारे विकास का मापदंड है। अगर यह विकास नीतिगत (ethics) यानी इसकी प्राप्ति अनुशासन, ईमानदारी से नियमों के पालन आदि के साथ हुआ है तब यह हमारी प्रगति (progress) है। नीति के साथ विकास हमारी प्रगति है। और इस प्रगति में मानवता, नैतिकता और आध्यात्मिकता का तड़का लगने पर मिलती है सफलता (success)।

          यह हमारे लिये बहुत महत्वपूर्ण है, अतः मैं एक बार फिर कहना चाहूँगा, अगर हमारे व्यापार की बिक्री 50 करोड़ से 100 करोड़ और 100 करोड़ से 500 करोड़ होती है तब यह हमारी सफलता नहीं है। यह हमारा विकास (growth) है। जब यह विकास नीतिगत है तब यह प्रगति (progress) कहलाती है। और जब इस प्रगति में मानवता, नैतिकता और आध्यात्मिकता का समावेश होता है तब होती है सफलता (success)। यह समझना बहुत ही आसान है। अपने बैंक में हजारों करोड़ रुपये होने के बाद भी हमें आंतरिक प्रसन्नता नहीं मिलती क्योंकि हमें सफलता नहीं मिली।  सफलता वह अवस्था है जिसमें स्थायित्व, प्रसन्नता और शांति तीनों खुद-ब-खुद प्राप्त हो जाती है। सफलता में हमारा विकास और प्रगति दोनों छिपे हुवे हैं। अब इस पर विचार कर आप अपने नए लक्ष्य खुद निर्धारित कीजिये की आप को क्या चाहिए? आप को केवल विकास (ग्रोथ) चाहिए, या प्रगति (प्रोग्रैस) चाहिए या सफलता (सक्सेस) चाहिए।

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श्रीमद्भगवद्गीता   अनेकार्थी क्यों?                                       मैंने सुना

(चिन्मय मिशन द्वारा, जनवरी 2018 चिन्मय विभूति’, पूना  में आयोजित 21 दिन व्यापी गीता ज्ञान यज्ञ में पूज्य स्वामी तेजोमयानंद ने 79 घंटों में श्रीमद्भगवद्गीता की व्याख्या की थी। व्याख्या प्रारम्भ करने के पूर्व स्वामीजी ने इस बात की चर्चा की कि यह पुस्तक तो पतली सी है (मात्र 700 श्लोक) लेकिन इस पर लिखे गए भाष्यों की संख्या अनगिनत हैं और प्रायः उनके आकार भी  वृहद हैं। इसके शब्दों, श्लोकों के अनेक अर्थ (अनर्थ भी) निकले गए हैं। ऐसे में एक साधारण व्यक्ति भ्रमित हो जाता है। स्वामीजी ने इस भ्रम को दूर किया और अनेकार्थी होने का कारण भी बताया। प्रस्तुत है उन्हीं के आख्यान पर आधारित यह निबंध – संपादक) 

श्रीमद्भगवद्गीता भगवान श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को दिया हुआ उपदेश है। इसमें 700 श्लोक हैं 18 अध्याय हैं। लेकिन इस श्रीमद्भगवद्गीता  पर न जाने कितने लोगों ने भाष्य लिखे हैं। इसका विवेचन करने के लिए यह जानना आवश्यक है कि ये भाष्य करने वाले कौन लोग हैं? उनके बारे में थोड़ी जानकारी लेते हैं।


          एक है आचार्य परम्परा। जैसे भगवान शंकराचार्य जी, जो अद्वैत मत के प्रतिष्ठाता हुए हैं, विशिष्ट अद्वैत के। द्वैत के रामानुजाचार्य जी हुए हैं। ये ऐसे आचार्य हुए जिनका उद्देश्य था यह सिद्ध करना कि उनके संप्रदायों के सिद्धांत उपनिषदों, श्रीमद्भगवद्गीता, ब्रह्म सूत्र सम्मत हैं। इस कारण ये आचार्य जिस मत के प्रतिष्ठाता थे उन्हें वैसे ही अर्थ दिखाई दिये और उन्होंने वही अर्थ बताए और कहा की श्रीमद्भगवद्गीता हमारे मत का समर्थन करती है। दूसरे वे भक्त थे, जैसे संत ज्ञानेश्वर महाराज। ऐसे भक्त किसी प्रकार के बंधन में  नहीं रहे और उन्होंने अपने तरह से एक अलग व्याख्या की। तीसरे फिर अनेक विद्वान हैं, उन्होंने भी इस की व्याख्या की। फिर समाज में कार्य करने वाले लोग, राजनीति में काम करने वाले लोग भी आए और उन्होंने भी इस पर भाष्य लिखा। तिलक जी की गीता-रहस्य विख्यात है, महात्मा गाँधी ने भी लिखा, विनोबा ने भी लिखा। किसी ने विस्तार से लिखा, किसी ने संक्षेप में। फिर, अनेक भाषाओं में भी इसके अनुवाद हुए और भाष्य लिखे गए। इनके अलावा एक सन्यासी वर्ग भी है, स्वामी भी हैं। फिर गृहस्थों ने भी लिखा। कहने का तात्पर्य यह है कि हर वर्ग के हर प्रकार के लोगों ने लिखा। सब ने अपनी-अपनी दृष्टि से इसे देखा और उन्हें जैसा दिखा वैसा ही लिखा।

          अब प्रश्न यह उठता है कि इनमें कौन-सा सही है? किसे प्रामाणिक मानें और किसे पढ़ें? तब ऐसे लोग भी सामने आए जिन्होंने कहा कि मैं बताऊँगा कि सही क्या है?’ – और उन्होंने भी लिख डाला। एक उक्ति है शब्दों पर कोई बोझ नहीं होता। तात्पर्य यह कि किसी व्यक्ति के सर पर, चाहे वह कितना ही मजबूत क्यों न हो, वजन डालते जाएँ तो एक समय ऐसा आयेगा कि वह भी उस वजन को उठाने में असमर्थ होगा और शोर मचाने लगेगा। लेकिन वाक्य पर कोई बोझ नहीं होता। उनपर कितना ही बोझ डालते जाओ यानी अर्थ करते जाओ उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। कितने ही और कैसे ही अर्थ डालते जाओ, लेता जाएगा। आपको अच्छा लगे या नहीं, सही लगे या नहीं, वह लेता जाएगा। शब्द के अर्थ लोग निकालते रहते हैं लेकिन शब्द कभी नहीं कहता कि बस अब रुक जाओ मैं और अर्थ सहने में सक्षम नहीं हूँ। शब्दों के, वाक्यों के, श्लोकों के, मंत्रों के अर्थ-पर-अर्थ निकलते रहते हैं – निकालते जाओ। इस कारण इस श्रीमद्भगवद्गीता पर इतने भाष्य, टीक, व्याख्या आईं जिनकी गिनती ही नहीं की जा सकती।

          एक बार तो एक व्यक्ति मुझसे मिला और बोला कि उसने भी श्रीमद्भगवद्गीता पर लिखा है जिसमें उसने श्रीकृष्ण की हर बात को काट दिया है।  ऐसे लोग भी बहुत हैं। मैंने कहा-  बहुत अच्छी बात है, मुझे एक नमूना तो बताइये, मुझे भी ज्ञान हो। उसने कहा- मैं मार्क्स की विचारधारा का आदमी हूँ। यह श्रीमद्भगवद्गीता तो पूरी तरह पूंजी वाद का समर्थन करती है और वही पढ़ाती है। मैंने कहा अच्छा! कहाँ लिखा है श्रीमद्भगवद्गीता में, मुझे भी बताओ। उसने बताया लिखा तो है उसमें, तुम लोगों का जो प्रसिद्ध श्लोक है  कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन ...... बड़ी-बड़ी कंपनी के लोग अपने कर्मचारियों से कहते हैं कि तुम लोगों का अधिकार केवल कर्म में है, उसके फल पर तुम्हारा कोई अधिकार नहीं है उस पर पूरा अधिकार हमारा है। ऐसा अर्थ निकालने वाले लोग भी हैं, कैसे-कैसे अर्थ निकाल लेते हैं, अब उन्हें कौन बताए कि यह श्लोक केवल कर्मचारी के लिए नहीं मालिक के लिए भी है, उसका भी अधिकार केवल कर्म पर है फल पर नहीं। अब, जब ऐसे-ऐसे अर्थ निकालने वाले लोग हैं, अनेक मत-मतांतर हैं, विचारधारा के लोग हैं तब अर्थ और अनर्थ के साथ अनेक भाष्य और अर्थ तो होंगे ही।

          तब कठिनाई यह है कि हम, साधारण जन कौन-सा अर्थ लगाएँ और किसे पढ़ें? जो अर्थ योग सम्मत है, शास्त्र सम्मत है, गुरु परम्परा सम्मत है वही ग्रहणीय है। और यह समझने का एक ही सिद्धान्त है। जब हम श्रीमद्भगवद्गीता को पढ़ेंगे-समझेंगे तब हम कौन-सी मुख्य बात ध्यान में रखें? श्रीमद्भगवद्गीता का एक संदेश सब के लिए है, चाहे जिस विचारधारा के हों, और वह है उद्धरे दात्मना आत्मानम नात्मनमवसादयेत ......। इसको हम ध्यान में रखें। भगवान कहते हैं –अपना उद्धार तुम्हें स्वयं करना चाहिए। आप अपना पतन मत कराओ। यह ध्यान रखो कि तुम तुम्हारे सबसे बड़े मित्र हो और तुम ही  तुम्हारे सबसे बड़े शत्रु भी हो। यह सिद्धान्त हम अपने सामने रखकर पढ़ें, श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश इस सिद्धान्त के अनुसार हो, तत्व ज्ञान की दृष्टि से और व्यवहार की दृष्टि से और हमारा उद्धार कैसे होगा इस दृष्टि से। हमें इस  बात पर ध्यान रखना है। इसमें हमारे उद्धार का एक मार्ग होता है तत्व ज्ञान से, यह तत्व ज्ञान स्पष्ट होना चाहिए। यह तत्व ज्ञान केवल किताबों में, पुस्तकों में, ग्रन्थों में, पुस्तकालय में नहीं होना चाहिए, यह हमारे प्रत्यक्ष जीवन में होना चाहिए। यह श्रीमद्भगवद्गीता साक्षात तत्व ज्ञान है क्योंकि यह सारे उपनिषदों का सार है लेकिन इसके साथ ही जीवन जीने की कला की एक निर्देशिका भी है। यह श्रीमद्भगवद्गीता की पहली  विशेषता है कि इसमें तत्व ज्ञान है और इसमें व्यवहारिकता भी है कि हम अपने जीवन में कैसे ऊँचे उठें? 

          दूसरी बात, श्रीमद्भगवद्गीता सब को निमंत्रण देती है कि आप इसमें आओ। जो जिस स्तर पर है उसे उसी स्तर पर साधना का उपदेश दिया गया है और आगे का मार्ग बताया गया है। सब को एक ही प्रकार का उपदेश नहीं दिया जा सकता। यह श्रीमद्भगवद्गीता की विशेषता है। श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषदों का सार होते हुए भी एक बहुत बड़ा फर्क है। उपनिषद, जिनका पठन-पाठन हुआ वे किसी शांत वातावरण, गंगा के किनारे, हिमालय की कन्दराओं में नहीं हुआ। आश्रम में गुरु बैठे हैं – शिष्य आ रहे हैं, जा रहे है, पठन-पाठन कर रहे हैं, ऐसे शिष्य जिन्होंने जीवन को देख लिया है, परम विरक्त है, केवल ज्ञान प्राप्त करना चाहते हैं केवल वही है - श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि यह नहीं है। तब श्रीमद्भगवद्गीता की पृष्ठभूमि क्या है? युद्ध का मैदान, दोनों ओर सेनाएँ खड़ी हैं, हलचल मची है, अनेक प्रकार की  आशाएँ, अपेक्षाएँ, निराशा, भय, चिंता सब कुछ है, जैसा एक युद्ध के वातावरण में होता है। ऐसे वातावरण के बीच अर्जुन को मोह हो रहा है, यह कोई विरक्त शिष्य नहीं है, वह तो मोहग्रस्त है, शोकग्रस्त है, भ्रमित है, और इस समय भगवान श्री कृष्ण उसे सीखा रहे हैं।   इस कारण श्रीमद्भगवद्गीता के साथ हमारी कुछ एकात्मता हो जाती है, क्योंकि हम भी दिन-रात युद्ध के मैदान में ही खड़े हैं। हम भी मोहित, भ्रमित, शोकग्रस्त,  चिंतित, भयभीत होते रहते हैं, प्रतिदिन, क्षण-क्षण। इस कारण श्रीमद्भगवद्गीता हमें अपने पास की लगती है। अतः हमें  किसी प्रकार का आग्रह-दुराग्रह नहीं रखना है। और तत्व ज्ञान, व्यावहारिक जीवन, कर्मयोग जो भक्ति की मिठास से ओतप्रोत है उसी-से हमें अपना उद्धार करना है इसी बात को ध्यान में रखते हुए हमें श्रीमद्भगवद्गीता को समझना है।

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उपयोगी                                                                 मेरे विचार 

पहले यह समझ लेना चाहिये कि मनुष्य किसे उपयोगी मानता है; उपयोगी किसके लिये? किसके प्रति? किसलिये?

          उत्तरोत्तर, वे जातियाँ जो अपने को सभ्य समझती हैं, उसी चीज को उपयोगी कहती हैं जो धन ला सके, धन कमा सके या धन पैदा कर सके। सब का निर्णय और मूल्यांकन उसी एक आर्थिक दृष्टिकोण से किया जाता है। इसे ही उपयोगितावाद कहते हैं। यह रोग बहुत ही संक्रामक है। बड़े-बूढ़ों-जवानों के बाद यह युवाओं को डंसने में लगा है और इसका प्रकोप बच्चों में भी दिखने लगा है।  बच्चे भी इससे अछूते नहीं रहने वाले।

          इस उम्र में, जब कि सुन्दरता, भव्यता और पूर्णता के सपने संजोये जाने चाहिये, ऐसे सपने जो शायद सामान्य अर्थों से कहीं अधिक उदात्त होते हैं, निश्चय ही कुण्ठित और सामान्य बुद्धि से उच्चतर हैं, लेकिन इसके विपरीत आजकल बच्चे पैसे के सपने देखते हैं और उसे कमाने के साधनों के बारे में चिन्तातुर रहते हैं। इसी तरह, जब वे अपनी पढ़ाई के बारे में सोचते हैं, तो उस सब पर विचार करते हैं जो आगे चलकर उनके लिये उपयोगी हो सके, ताकि जब वे बड़े हों तो बहुत-सा धन कमा सकें। और परीक्षाओं में सफल होने के लिये तैयारी करना उनके लिये बहुत महत्वपूर्ण बन गया है, क्योंकि डिप्लोमा, सर्टिफिकेट और उपाधि ही उन्हें उच्च पद प्राप्त करा सकते हैं। इनकी सहायता से धन भी खूब कमा सकते हैं। उनके लिये पढ़ाई का न कोई और उद्देश्य है, न महत्व।

          ज्ञान के लिये सीखना, प्रकृति और जीवन के रहस्यों को जानने के लिये पढ़ना, चेतना को विकसित करने के लिये अपने-आपको शिक्षित करना, आत्म प्रभुत्व पाने के लिये स्वयं को अनुशासित करना, अपनी दुर्बलताओं, अक्षमताओं और अज्ञताओं को अतिक्रम करने के लिये पढ़ना, जीवन में अधिक उच्च, विशाल, उदार और सच्चे उद्देश्य की ओर बढ़ने के लिये अपने आपको तैयार करना... यह तो वे सोच ही नहीं सकते, इसे तो वे कपोल-कल्पना ही मानते हैं। बस, एक ही चीज महत्वपूर्ण है - व्यावहारिक होना, धन कमाना सीखना और उसके लिये अपने को तैयार करना। यही सीख रहे हैं, यही सीखा रहे हैं।

          लेकिन इसके लिए बच्चों या युवा पीढ़ी को दोष देना अपने आप को दोषमुक्त का प्रमाण पत्र देना है।  यह बात उनके जेहन में हम ही कूट-कूट कर भरते हैं। जब बच्चा इन सबसे अंजान अधिक उच्च, विशाल, उदार और सच्चे उद्देश्य की ओर बढ़ने के लिये अपने आपको तैयार कर रहा होता है, ये हम ही हैं जो उन्हें अपनी करनी और बरनी से समझाते हैं कि जीवन में सब-कुछ धन कमाना ही है, सब निर्णय का आधार धन का आना ही है, उपयोगीता की एकमात्र कसौटी धन ही है। ऐसे बच्चे तो परिवर में कष्ट, कलह, अशांति लाकर उसे अपूर्ण और अनुपयोगी ही बनाएँगे।  

          क्या बच्चों में ऐसे संस्कार नहीं डाले जा सकते हैं जो उनमें एक उच्चतर और श्रेष्ठतर जीवन की अभीप्सा पैदा करें, जिनमें ज्ञान और पूर्णता की प्यास हो, जो एक पूर्णतर सच्चे भविष्य की ओर उत्कटता से निहारें! क्या ये एक परिवार को अधिक पूर्ण, अधिक सुखमय, अधिक शांतिमय, अधिक खुशहाल और अधिक उपयोगी नहीं बनाएँगे?

(श्रीमाँ के कथन पर आधारित)

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बस बहुत हुआ                                           लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

पैंतीस वर्षों की छोटी सी उम्र में वह सब हासिल कर लेना जिसकी चाहत हर दिल में होती है,  दुनिया जिसे सफलता (सक्सेस) कहती है,  एक उपलब्धि है। एक संस्था (कंपनी) में सीईओ, लाखों का वेतन, अपनी मर्जी से जिंदगी को जीने की पूरी छूट। खूबसूरत बीवी, बच्चा, नाम, शोहरत......कुछ और सोचने का वक्त ही कहाँ था। सब कुछ तो ठीक ही चल रहा था कि एक दिन जब पार्टी में उस लड़की ने उसे पहचानने से इन्कार करते हुए पूछा कि “वह कौन है?” उसकी जिंदगी मानों उसी सवाल में ठहर गई।

          वह कौन है? अपने चेहरे पर उग आए सवाल को मिटाना चाहा तो हर बार कोई रिश्ता, कोई उम्मीद, कोई लक्ष्य सामने आ जाता। इस सब में वह खुद कहाँ छूट गया! कब का वह भूल ही चुका था कि उसके शौक (हौब्बीज) क्या हैं? अब तो कॉर्पोरेट सैक्टर की पार्टियां और प्रोजेक्शन ही उसकी हॉबीज़ होकर रह गई हैं। फेस बुक से लेकर ट्विटर तक दोस्तों की संख्या हजारों में है, लेकिन एक कंधा ऐसा नहीं जिस पर अपने मन का अकेलापन बिता सके। अपने ही भीतर छुपी इस तलाश को वो समझ ही नहीं पाया। कितनी आसानी से हमने जिंदगी जीते-जीते जीवन के अर्थ ही गुमा दिये। हमारे सीने में बची रह गई बस कुछ साँसे, कुछ रिश्ते, कुछ लोगों की उम्मीदें और हम बन गए उन्हें पूरा करने की मशीन। बहुत हुआ, अब मैं सचमुच जीना चाहता हूँ। कितना मन था कि बच्चों का एक ऐसा स्कूल खोलूंगा, जिसमें किसी बच्चे को कोई फीस नहीं देनी होगी। जहाँ उसकी पसंद के सारे काम उन्हें सिखाये जा सकेंगे। ऐसे बच्चे जिनकी  दूसरी दुनिया में कोई जगह नहीं है। खिलखिलाहटों के बीच दुनिया को रोशन करने का ख्याल कितना लुभावना था उसे के लिए, लेकिन सफलता (सक्सेस) की  दौड़ में न जाने कहाँ छूट गए सारे ख्वाब। अनजाने ही धूल खाये गिटार पर हाथ चला गया था। 

(उजाले के गाँव में से)

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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी                                        धारावाहिक

(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी चौदहवीं किश्त है।)

 

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आसामियों की पहचान - 1

आसामियों को पहचानने की व्यवस्था भी बड़ी रहस्यमय थी। पहले साक्षी से पूछा जाता, तुम इनमें से किसी को पहचान सकोगे? साक्षी यदि कहते, हाँ, पहचान सकता हूँ तो नॉर्टन साहब हर्षोत्फुल्ल हो तुरंत कठघरे में Identification parade (पहचान-परेड) की व्यवस्था करा वहाँ उन्हें अपनी स्मरणशक्ति को चरितार्थ करने का आदेश देते। यदि वे कहते, पता नहीं, शायद पहचान भी लूँ, तो ज़रा नाराज़गी से कहते, अच्छा, जाओ, चेष्टा करो। यदि कोई कहता, नहीं, नहीं कर सकूँगा, मैंने उन्हें नहीं देखा या ध्यान नहीं दिया तो भी नॉर्टन साहब उन्हें न छोड़ते। शायद इतने चेहरे देख पूर्वजन्म की कोई स्मृति ही जाग्रत् हो जाये इसलिए उसे परीक्षा करने को भेज देते। साक्षी में वैसी योगशक्ति नहीं थी, शायद पूर्वजन्मवाद में आस्था भी नहीं, वे आसामियों की दीर्घ दो पंक्तियों के बीच सार्जेंटों के नेतृत्व में, शुरू से अन्त तक गम्भीर भाव से कूच करते हुए, हमारे चेहरों को बिना देखे ही सिर हिला कर कहते नहीं, नहीं पहचानता। निराश हृदय नॉर्टन इस मत्स्यशून्य जीवन्त जाल को समेट लेते। मनुष्य की स्मरणशक्ति कितनी प्रखर और अभ्रान्त हो सकती है इसका अपूर्व प्रमाण मिला इस मुक़द्दमे में। तीस-चालीस आदमी खड़े हैं, उनका नाम नहीं पता, किसी भी जन्म में एक बार भी उनके साथ बातचीत नहीं हुई, फिर भी दो मास पहले किसे देखा है, किसे नहीं देखा, अमुक को अमुक तीन जगह देखा, अमुक दो जगह नहीं; एक बार उसे दाँत माँजते हुए देखा था इसलिए उसका चेहरा जन्म-जन्मान्तर के लिए मेरे मन में अंकित रह गया है। इन्हें कब देखा, क्या कर रहे थे, कौन साथ थे, या एकाकी थे, कुछ भी याद नहीं, फिर भी उनका चेहरा मेरे मन में जन्म-जन्मान्तर के लिए अंकित है; हरि को दस बार देखा है इसलिए उन्हें भूलने की कोई सम्भावना नहीं, श्याम को एक बार सिर्फ आधे मिनट के लिए देखा लेकिन उसे भी मरते दम तक नहीं भूल सकूँगा, भूल-चूक होने की कोई सम्भावना नहीं, ऐसी स्मरण  शक्ति इस अपूर्ण मानव प्रकृति में इस तमोभिभूत मर्त्य धाम में साधारणतः नहीं मिलती। एक नहीं, दो नहीं, प्रत्येक पुलिस पुंगव में ऐसी विचित्र निर्भूल, अभ्रान्त स्मरणशक्ति देखने को मिली। इससे सी.आई.डी. पर हमारी श्रद्धा भक्ति दिन-दिन प्रगाढ़ होने लगी। अफ़सोस है, सेशन्स कोर्ट में वह भक्ति कम करनी पड़ी थी। मजिस्ट्रेट को कोर्ट में दो-एक बार सन्देह न हुआ हो ऐसी बात नहीं। जब यह लिखित गवाही देखी कि शिशिर घोष अप्रैल में बम्बई में थे और ठीक उसी समय कुछ एक पुलिस पुंगवों ने उन्हें स्कॉट्स लेन और हैरिसन रोड पर भी देखा तब थोड़ा-सा सन्देह तो हुआ ही था। जब श्रीहट्टवासी वीरेन्द्रचन्द्र सेन स्थूल शरीर से बनियागंज में पितृभवन में रहते हुए भी बागान में और स्कॉट्स लेन में- जिस स्कॉट्स लेन का पता वीरेन्द्र नहीं जानते थे, इसका अकाट्य प्रमाण लिखित साक्ष्य में मिला था- उनका सूक्ष्म शरीर सी.आई.डी. की सूक्ष्म दृष्टि ने देखा था, तब और भी सन्देह हुआ था। विशेषकर जिन्होंने स्कॉट्स लेन में कभी भी पदार्पण नहीं किया, उन्होंने जब सुना कि पुलिस ने उन्हें वहाँ कई बार देखा है, तब सन्देह का उद्रेक होना कुछ अस्वाभाविक नहीं।                                                                               (क्रमशः आगे अगले अंक में)

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