सूतांजली
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वर्ष : ०५ * अंक : ०८ 🔊 (25.13) मार्च *
२०२२
संवाद की सबसे बड़ी समस्या यह है कि
हम समझने के लिए नहीं सुनते,
हम उत्तर देने के लिए सुनते हैं।
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दिखे, तब विश्वास हो – विश्वास हो, तब दिखे मैंने पढ़ा
थोड़ा सा समय निकाल कर आप अपने जीवन की कुछ घटनाओं को याद करें।
क्या कभी ऐसा हुआ कि फ्लाइट पकड़ने के लिए
सुबह 4 बजे उठना था, यह सोचते-सोचते सो गये और जब नींद खुली तो 4 ही बजे
थे? किसी को याद किया और उसी समय उसका फोन आ गया, किसी पुस्तक को ढूंढ रहे थे और अचानक वही पुस्तक किसी दोस्त के मेज पर या
किताब की दुकान पर या पुस्तकालय में दिख गई, मन में कोई
विचार चल रहा था और अचानक उसी के बारे में सुनने या पढ़ने को मिला। कमोबेश संसार के
हर व्यक्ति के जीवन में ऐसी घटनाएँ घटी हैं।
हमने देखा है; एक बच्चा चल रहा है, उसके पीछे-पीछे गाड़ी चल रही है, एक रस्सी गाड़ी से बंधी है और उस रस्सी का दूसरा सिरा उस बच्चे के हाथ में
है। यहाँ हम साफ तौर पर उस गाड़ी और बच्चे के बीच रस्सी के सम्बंध को देख रहे हैं
और इस घटना पर पूरा यकीन कर रहे हैं। देखा और विश्वास हुआ। दीवाल पर लगी स्विच को
हम दबाते हैं और छत पर लगी बत्ती जल उठती है। उस स्विच और बत्ती के बीच हम कोई
सम्बंध नहीं देख रहे हैं, फिर भी हमें यह विश्वास है कि उस
स्विच से लेकर बत्ती तक तार गया हुआ है। हमें नहीं दिखा लेकिन फिर भी विश्वास हुआ।
आज उस बच्चे के हाथ में कोई रस्सी नहीं है
बल्कि एक रिमोट है और उससे दूर एक गाड़ी उसके इशारों पर आगे-पीछे हो रही है, बाएँ-दायें मुड़ रही है। उस रिमोट और गाड़ी के मध्य कोई सम्बंध हमें नहीं
दिख रहा। लेकिन हम यह विश्वास करते हैं कि
कहीं कुछ है जो इन दोनों के बीच कोई सम्बंध बना रहा है। यह क्यों और कैसे है इसकी
हमें जरा भी जानकारी नहीं है, लेकिन हम इस पर विश्वास करते
हैं। अब तो इन दोनों, रिमोट और गाड़ी,
के बीच की दूरी भी कुछ मीटर, किलोमीटर तक सीमित नहीं रह गई
है बल्कि हजारों ही नहीं लाखों किलोमीटर दूरी पर भी बिना किसी सम्बंध के एक कहता
है दूसरा सुनता है (रेडियो), एक भेजता है दूसरे को मिलता है
(टीवी), एक आज्ञा देता है दूसरा उसके अनुसार कार्य करता है
(अन्तरिक्ष यान)। हमें उनके बीच कोई सम्बंध नहीं दिखता लेकिन हम विश्वास करते
हैं।
माँ और उसके बच्चे
के बीच दूरी है। एक दूसरे की आवाज नहीं सुन सकते। लेकिन माँ को बच्चे के रोने की
आवाज सुन जाती है, बच्चे को भूख लगने से माँ के स्तनों में दूध आता
है। कभी-कभी, कोई स्वतः कहीं कुछ कहता है और हम उसे साफ-साफ
सुन लेते हैं। हम दोनों के बीच कोई सम्बंध नहीं है, हमें कुछ
भी दिखाई नहीं पड़ता। लेकिन हम यह जन्म से देखते-सुनते आए हैं, इसलिए हमारे मन में कभी यह
प्रश्न नहीं उठा कि दिखता नहीं इसलिए मैं मानता नहीं, हम इस
पर विश्वास करते हैं।
एक नर्तक / नर्तकी
नृत्य कर रही है, उसका पूरा शरीर, चेहरा, मनोभाव उस में रमा हुआ है और उसका एक-एक अंग-प्रत्यंग स्वत: संचालित हो
रहा है। बज रही धुन जैसे ही बदलती है उसका पूरा नृत्य भी उसके अनुरूप तुरंत बदल
जाता है। एक रचनाकार, लेखक-कवि-चित्रकार-संगीतकार, रचना प्रारम्भ करता है और विचारों की कड़ी एक के बाद एक जुड़ती चली जाती है
और एक नई रचना तैयार हो जाती है। हमारे विचार हमारे अंग-प्रत्यंग से वार्तालाप
करते हैं। हमारा शरीर हमारे विचारों से बात कर रहा होता है। इन सबों के पीछे कोई
सम्बंध हमें दिखाई नहीं देता है, हमारी दृष्टि के परे है, लेकिन हम इस पर विश्वास करते हैं।
विश्व प्रसिद्ध
खिलाड़ियों के प्रशिक्षक अपने छात्र से कहते हैं,
जीतने के लिए केवल सबसे अच्छा खेलना काफी नहीं है। तब और क्या चाहिए? विरोधी खिलाड़ी के दिमाग को पढ़ो। जीतना है तो गोल,
गोल पोस्ट पर नहीं, गोलकीपर के दिमाग पर करो तुम जीत जाओगे।
क्या सम्बंध है इन दो खिलाड़ियों के विचारों के बीच?
साक्षात्कार (इंटरव्यू) में उत्तर का सही होना काफी नहीं होता, उत्तर प्रश्नकर्ता के विचारों के अनुकूल या उसे अपने विचारों के अनुकूल
बनाना अहम होता है। यहाँ विचारों का आदान-प्रदान कैसे होता है? इन दोनों के बीच हमें कोई सम्बंध नहीं दिखता लेकिन हम इस पर विश्वास करते
है। यही नहीं अगर हम ऐसे अनुभवों पर, घटनाओं पर विश्वास करने लगें, उनकी सुनने लगें, तो ऐसे अनुभव ज्यादा होने लगेंगे, उसकी बातें साफ-साफ
सुनने लगेगी।
क्या आप बता सकते
हैं कि एक अखरोट के खोल में कितनी चवन्नी आ सकती है?
हाँ कोई भी एक संख्या बताइये जो आपकी समझ में आती हो – 10,
15, 20, 50। हमारे दिमाग या ब्रेन की
बनावट और आकार एक अखरोट से मिलती जुलती है। क्या आप बता सकते हैं कि हमारे दिमाग
में कितनी यादें या विचार आ सकते हैं? बड़ा बेहूदा सा सवाल है?
विचार, जिसका कोई
आकार नहीं, कोई माप-जोख नहीं,
दिखता नहीं वह कैसे एक आकार वाले बर्तन में समा सकता है?
दिमाग तो एक आकार वाला हमारे शरीर का ही एक अंग है। और हमारी यादें क्या है? हमारे विचारों का ही एक रूप है। तब ये निराकार यादें कहाँ रहती हैं? आप में से बहुत यही कहेंगे हमारे दिमाग में। लेकिन दिमाग तो एक आकार वाला
बर्तन या अंग ही है। फिर एक निराकार एक आकार में कैसे रह सकता है? तब हमारी ये यादें कहाँ रहती हैं, कहाँ से आती हैं और कहाँ जाती हैं? ठहरिए, इससे आगे और एक प्रश्न है – हम जन्म के पहले कहाँ थे और मृत्यु के बाद
कहाँ जाएंगे? घबड़ाइए मत, मैं न गीता की
बात कर रहा हूँ, आध्यात्मिक की तरफ मुड़ रहा हूँ। और एक
प्रश्न करूँ – आप सब ने सपने देखे हैं। क्या आप बता सकते हैं सपनों में आप ने जो
भी देखा वे कहाँ से आए थे और कहाँ गए? अलग-अलग सपनों में अलग-अलग लोग अलग-अलग भूमिका
में भी दिखे, कुछ ऐसे लोग जो थे उन्हें हमने पहचाना क्योंकि
हमने उन्हें पहले देखा था और कुछ ऐसे अंजान लोग भी दिखे जिन्हें हम नहीं पहचानते
क्योंकि उन्हें पहले कभी नहीं देखा था। हो सकता है आने वाले समय में दिखें?
तब हमारे ये
निराकार विचार, यादें कहाँ रहती हैं, कहाँ
से आती हैं और कहाँ जाती हैं? क्या हम इसकी कल्पना कर सकते
हैं? जब तक हम एक आकार में हैं और एक आकार के बारे में ही
सोचते हैं हम इस निराकार के बारे में न सोच सकते हैं न समझ सकते हैं। इसके लिए यह
आवश्यक है कि हम एक ऐसे विचारों में जाएँ जहां न प्रारम्भ है, न अंत है और न ही रुकने की जगह। हमें अपनी सोच बदलनी पड़ेगी, एक निराकार के स्वरूप की भांति विचार करना पड़ेगा। हम अपने इस निराकार
स्वरूप को कोई भी नाम दे सकते हैं अध्यात्म, चेतना (consciousness) या उच्च चेतना, आंतरिक ज्ञान,
ज्ञानोदय, आलोक, चेतना का बदला स्वरूप
या और कुछ। लेकिन सहजता के लिए हम इसे केवल अपने विचार ही मान लेते हैं। विचार हम
सब जानते हैं, समझते हैं, परिचित हैं।
हम अपने विचार ही हैं, विचार ही हम हैं। अपने जीवन का 75%
हिस्सा हम अपने इन्हीं विचारों में व्यतीत करते हैं। एक निराकार को हम आकार नहीं
दे सकते। कहीं न कहीं कुछ न कुछ छूट ही जाएगा। और अगर कुछ छूट गया तो अधूरा ही रहा
गया। हम लिख कर या बातों से मीठे-कड़ुए-नमकीन-तीखे का स्वाद नहीं बता सकते, लाल-नीला-काला-पीला-हरा रंग नहीं समझा सकते।
हमने देखा हमारी
यादें, हमारे विचार हमारे दिमाग में नहीं रहती हैं। हमें
यह स्वीकार करना पड़ेगा कि हमारे विचार हमारे दिमाग के बाहर ही कहीं रहते हैं। हमने
यह भी देखा कि दिखने वाले तो आकारों (बच्चा और गाड़ी) के बीच आकार (रस्सी) का
सम्बंध है, दिखने वाले आकारों (स्विच और बत्ती) के बीच अदृश्य
सम्बंध है, दो दिखने वाले आकारों (गाड़ी और रिमोट कंट्रोलर)
के बीच अदृश्य सम्बंध है, दो जीवों के बीच (आवाज के माध्यम
से) अदृश्य सम्बंध है, हमारे निराकार विचारों का हमारे शरीर
से (नर्तक, खिलाड़ी) अदृश्य सम्बंध है,
हमारे निराकार विचारों का दूसरे आकार जीव से (बच्चे का रोना,
स्तन में दूध आना) अदृश्य सम्बंध है, हमारे अपने निराकार
विचारों का अपने खुद के निराकार विचारों से (रचनाकर) अदृश्य सम्बंध है।
तब फिर मेरे
निराकार विचारों का किसी अन्य जीव के निराकार विचारों के बीच अदृश्य सम्बंध क्यों
नहीं हो सकता? मैं अपने
विचारों से आपके विचारों से अदृश्य सम्बंध क्यों नहीं बना सकता? गुरुत्वाकर्षण शक्ति न्यूटन के पहले भी थी,
सापेक्षता का सिद्धान्त (theory of relativity) आइन्स्टाइन
के पहले भी था। इनके आविष्कार के बाद हम इन सिद्धांतों का प्रयोग निर्माण के लिए
कर सके। मेरे और आपके विचारों का आपसी सम्बंध है, यह मान लें
तो हम इसका प्रयोग जैविक कल्याण के लिए अनेक निर्माण के लिए कर सकते हैं। लेकिन
हमें यह तभी दिखेगा जब हम इस पर विश्वास करेंगे।
(मेरा यह लेख मनोवैज्ञानिक डॉ.वायेन डायर की पुस्तक ‘यू विल सी इट व्हेन यू बिलिव इट’ पर आधारित है। मुझे ऐसा लगता है कि डॉ.वायेन वही कह रहे हैं जो उपनिषद कह
रही है। हाँ, एक बहुत बड़ा फर्क है, उपनिषद
मूल पुस्तक (टेक्स्ट बूक) है और डॉ. की पुस्तक कुंजी (की बूक) है। एप्लिकेशन
सिद्धांतों से ही निकल कर आता है। “हमने” सिद्धांतों को हेय दृष्टि से देखा और “समझदारों”
ने उन्हीं सिद्धांतों पर पूरे एप्लिकेशन तैयार कर लिए।)
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बुद्धि या हृदय, चरित्र या शील मेरे विचार
(यह उद्धरण ओशो के प्रवचनों में से लिया गया है।)
जब
तुम सोचते हो और निर्णय लेते हो, बुद्धि सक्रीय हो
जाती है। जब तुम मात्र देखते हो, तब हृदय का फूल खिलता है।
जैसे ही तुमने निर्णय लेना शुरू किया, बुद्धि बीच में आ गई।
क्योंकि निर्णय विचार का काम है। जैसे ही तुमने तौला, तराजू
आया। तराजू बुद्धि का प्रतीक है। तुमने नहीं तौला, बस देखते
रहे, तो बुद्धि को बीच में आने की जरूरत ही नहीं रही। मात्र
देखने की अवस्था में, साक्षीभाव में,
बुद्धि हट जाती है। और जीवन के जो गहरे रहस्य हैं उन्हें हृदय जानता है।
अक्ल को क्यों बताएं इश्क का
राज़, गैर को राज़दां नहीं करते।
और हृदय ने कोई राज प्रेम का,
परमात्मा को नहीं बताया। पराये को कहीं कोई भेद की बातें बताता है? बुद्धि पराई है, उधार है। हृदय तुम्हारा है।
इसे थोड़ा समझो। जब
तुम पैदा हुए, तो हृदय लेकर पैदा हुए थे। बुद्धि समाज देता है, संस्कार देता है, शिक्षा देती है, घर, परिवार, सभ्यता देती है।
तो हिन्दू के पास एक तरह की बुद्धि होती है। मुसलमान के पास दूसरे तरह की बुद्धि
होती है। जैन के पास तीसरे तरह की बुद्धि होती है। तीनों के संस्कार अलग,
शास्त्र अलग, सिद्धान्त अलग। लेकिन तीनों के पास दिल एक ही
होता है। दिल परमात्मा का है। बुद्धियाँ समाज की हैं।
रूस में कोई पैदा
होता है, तो उसके पास कम्यूनिस्ट बुद्धि होगी। ईसाई घर में
कोई पैदा होता है, तो उसके पास ईसाई बुद्धि होगी। बुद्धि तो
धूल है बाहर की इकट्ठी की हुई। जैसे हृदय के दर्पण पर धूल जम जाए। दर्पण तो तुम
लेकर आते हो, धूल तुम्हें मिलती है। इस धूल को झाड़ देना जरूरी है। समस्त धर्म की गहनतम
प्रक्रिया धूल को झाड़ने की प्रक्रिया है, कि दर्पण फिर
स्वच्छ हो जाए, तुम फिर से बालक हो जाओ, तुम फिर हृदय में जीने लगो। तुम फिर वहीं से देखने लगो जहां से तुमने
पहली बार देखा था, जब तुमने आंखे खोली थी। तब बीच में कोई बुद्धि
न खड़ी थी। तब तुमने सिर्फ देखा था। वह था अवलोकन।
अक्ल के बंदे जिस
दिन दिल की ज्योति जला कर देखेंगे
होश
के बंदे समझेंगे क्या गफलत है क्या होशियारी
“शील
की सुगंध सर्वोत्तम है”। क्योंकि वस्तुत: वह परमात्मा की सुगंध है। शील का क्या
अर्थ है? शील का अर्थ चरित्र नहीं है। इस भेद को समझ लेना
जरूरी है, तो ही बुद्धि की व्याख्या में तुम उतार सकोगे।
चरित्र का अर्थ है, ऊपर से थोपा गया अनुशासन। शील का अर्थ है भीतर से आई गंगा। चरित्र का
अर्थ है, आदमी के द्वारा बनाई गई नहर। शील का अर्थ है, परमात्मा के द्वार से उतरी गंगा। चरित्र का अर्थ है, जिसका तुम आयोजन करते हो, जिसे तुम सम्हालते हो।
सिद्धांत, समाज, शास्त्र, तुम्हें एक दृष्टि देते हैं – ऐसे उठो, ऐसे बैठो, ऐसे जियो, ऐसे करो। तुम्हें भी पक्का पता नहीं है
कि तुम जो कर रहे हो वह ठीक है या गलत। अगर तुम गैर-मांसाहारी घर में पैदा हुए तो
तुम मांस नहीं खाते, अगर तुम मांसाहारी घर में पैदा हुए तो
मांस खाते हो। क्योंकि जो घर की धारणा है, वही तुम्हारा
चरित्र बन जाता है। आगे तुम रूस में पैदा हुए तो तुम मंदिर नहीं जाओगे, मस्जिद नहीं जाओगे। तुम कहोगे परमात्मा, कहाँ है
परमात्मा? राहुल सांकृत्यायन 1936 में रूस गए। और उन्होने एक
प्राइमरी स्कूल में एक छोटे बच्चे से जाकर पूछ, ईश्वर है? उस बच्चे ने कहा, हुआ करता था, अब नहीं है। यूज्ड टू बी, बट नो मोर। ऐसा हुआ करता था, जब लोग अज्ञानी थे –
क्रांति के पहले – 1917 के पहले हुआ करता था। अब नहीं है। ईश्वर मर चुका है। आदमी
जब अज्ञानी था, तब हुआ करता था।
जो हम सुनते हैं, वह मान लेते हैं। संस्कार हमारा चरित्र बन जाता है। पश्चिम में शराब पीना
कोई दुश्चरित्रता नहीं है। छोटे-छोटे बच्चे भी पी लेते हैं। सहज है। पूरब में
दुश्चरित्रता है। धारणा की बात है।
शील क्या है? शील है, जब तुम्हारे मन से सब विचार समाप्त हो जाते
हैं और निर्विचार दशा उपलब्ध होती है, शून्यभाव बनता है, ध्यान लगता है, उस ध्यान की दशा में तुम्हें जो ठीक
मालूम होता है, वही
करना शील है। और वैसा शील सारे जगत में एक सा होगा। उसमें कोई संस्कार के भेद नहीं
होंगे, समझ के भेद नहीं होंगे।
चरित्र हिन्दू का अलग होगा, मुसलमान का अलग होगा, ईसाई का अलग होगा, जैन का अलग होगा, सिक्ख का अलग होगा। शील सभी का एक
होगा। शील वहाँ से आता है जहां न हिन्दू जाता है, न मुसलमान
जाता है, न ईसाई जाता है। तुम्हारी गहनतम गहराई से, अछूती
कुंवारी गहराई से, जहां किसी ने कभी कोई स्पर्श नहीं किया, जहां तुम अभी भी परमात्मा हो, वहाँ से शील आता है।
जैसे अगर तुम थोड़ी सी जमीन खोदो तो
ऊपर-ऊपर जो पानी मिलेगा वह तो पास की सड़कों से बहती हुई नालियों का पानी होगा, जो जमीन ने सोख लिया है – चरित्र। चरित्र होगा वह। फिर तुम गहरा खोदो, इतना गहरा खोदो, इतना गहरा कुआँ खोदो जहां तक
नालियों का पानी नहीं जा सकता, तब तुम्हें जलस्त्रोत मिलेंगे, वे सागर के हैं। तब तुम्हें शुद्ध जल मिलेगा। अपने भीतर इतनी खुदाई करनी
है कि विचार समाप्त हो जाएँ, निर्विचार का तल मिल जाए। वहाँ
से तुम्हारे जीवन को जो ज्योति मिलेगी वह शील की है।
अगर शील का जन्म हो जाए, तो उसका अर्थ है, तुमने वहाँ पाया अब, जो जन्म के पहले था, जब तुम पैदा भी न हुए थे। उस
शुद्ध चैतन्य से आ रहा है। अब मृत्यु के आगे भी ले जा सकोगे। जो जन्म के पहले है, वह मृत्यु के बाद भी साथ जाएगा। शील को उपलब्ध कर लेना इस जगत की सबसे
बड़ी क्रांति है।
न जाने कौन है गुमराह कौन
आगाहे1-मंजिल है
हजारों कारवां हैं
जिंदगी की शाहराहों2 में।
1
– सजग, 2 – राजमार्ग
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कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी धारावाहिक
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया
है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं।
इसी कड़ी में यहाँ इसकी पंद्रहवीं किश्त है।)
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आसामियों
की पहचान - 2
मेदिनीपुर के एक साक्षी - मेदिनीपुर के आसामियों से पता लगा कि
वे भी गोयन्दा हैं- बोले कि उन्होंने श्रीहट्ट के हेमचन्द्र सेन को तमलुक में
वक्तृता देते देखा था। किन्तु हेमचन्द्र ने अपनी स्थूल आँखों से कभी तमलुक नहीं
देखा, तो भी उनके छायामय शरीर ने
श्रीहट्ट से सुदूर तमलुक जाकर तेजस्वी और राजद्रोहपूर्ण स्वदेशी व्याख्यान दे
गोयन्दा महाशय की चक्षुतृप्ति और कर्णतृप्ति की थी। किन्तु चन्दननगर के चारुचन्द्र
राय के छायामय शरीर ने मानिकतल्ला में उपस्थित हो इससे भी ज़्यादा रहस्यमय काण्ड
मचाया था। पुलिस के दो कर्मचारियों ने शपथ खाकर कहा था कि उन्होंने अमुक दिन अमुक
समय चारु बाबू को श्याम बाज़ार में देखा था, वे श्याम बाज़ार
से एक षड्यंत्रकारी के साथ मानिकतल्ला बागान तक पैदल गये थे, उन्होंने भी वहाँ तक उनका पीछा किया था और बहुत पास से देखा था, अतः भूल होने की गुंजाईश नहीं। वकील की जिरह से दोनों साक्षी टस से मस न
हुए। व्यासस्य वचनं सत्यम्, पुलिस की गवाही भी अन्यथा नहीं
हो सकती। दिन और समय के सम्बन्ध में भी उनकी भूल होने की कोई बात नहीं, क्योंकि ठीक उसी दिन, उसी समय चारु बाबू कॉलेज से
छुट्टी ले कलकत्ते में उपस्थित थे, चन्दननगर के डुप्ले
कॉलेज के अध्यक्ष की गवाही से यह प्रमाणित हुआ था। किन्तु आश्चर्य! ठीक उसी दिन,
उसी समय चारु बाबू हावड़ा स्टेशन के प्लेटफॉर्म पर चन्दननगर के मेयर
तार्दिवाल, तार्दिवाल की पत्नी, चन्दननगर
के गवर्नर और अन्यान्य सम्भ्रान्त यूरोपीय सज्जनों के साथ बातें करते-करते टहल रहे
थे। ये सब इसी बात को याद कर चारु बाबू के पक्ष में गवाही देने के लिए राज़ी हुए
थे। फ्रेंच गवर्नमेंट की चेष्टा से पुलिस द्वारा चारु बाबू को छोड़ दिये जाने पर
विचारालय में इस रहस्य का उद्घाटन नहीं हुआ। किन्तु चारु बाबू को मैं यह परामर्श
देता हूँ कि वे ये प्रमाण Psychical Research Society को भेज
मनुष्य जाति के ज्ञान संचय में सहायता करें। पुलिस की गवाहियाँ मिथ्या नहीं हो
सकतीं - विशेषकर सी.आई.डी. की - अतएव थियोसोफ़ी के आश्रय के
अलावा हमारे लिए और कोई चारा नहीं। सौ बात की एक बात, ब्रिटिश
क़ानून प्रणाली में कितनी आसानी से निर्दोषों को जेल, कालापानी
और फाँसी तक हो सकती है इसका दृष्टान्त इस मुक़द्दमे में पग-पग पर पाया। कठघरे में
खड़े न होने तक पाश्चात्य विचार प्रणाली की मायावी असत्यता हृदयंगम नहीं की जा
सकती। यूरोप की यह प्रणाली है जुए का एक खास खेल; मनुष्य की स्वाधीनता,
मनुष्य का सुख-दुःख, उसकी और उसके परिवार एवं
आत्मीय बंधु की जीवनव्यापी यंत्रणा, अपमान और जीवंत मृत्यु
को ले जूए का खेल। इससे कितने दोषी बच जाते हैं और कितने निर्दोष मर जाते हैं इसकी
कोई गिनती नहीं। यूरोप में समाजवाद (Socialism) और अराजकता
वाद (Anarchism) का कितना प्रचार और प्रभाव हुआ है वह इस जुए
में एक बार फंसने पर, इस निष्ठुर निर्विचार समाज रक्षक षड़यंत्र
में एक बार पड़ने पर पहली दृष्टि में ही समझ में आ जाता है। ऐसी अवस्था में यह कोई
आश्चर्य की बात नहीं कि अनेक उदार-चेता दयालु जन कहने लग गये हैं कि इस समाज को
तोड़ दो, चूर-मार कर दो; इतने पाप,
इतने दुःख, इतने निर्दोषों के तप्त निःश्वास
और हृदय के खून से यदि समाज की रक्षा करनी हो तो बेकार है वह रक्षा।
(क्रमशः, आगे अगले अंक में)
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