रविवार, 1 मई 2022

सूतांजली मई 2022

 सूतांजली

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वर्ष : ०५ * अंक : ०१०                      🔉(24.48)                                मई  * २०२२

घर की चहारदीवारी आदमी को सुरक्षा देती है पर साथ ही उसे एक सीमा में बाँधती भी है।

स्कूल-कॉलेज जहां व्यक्ति के मस्तिष्क का विकास करते हैं, वहीं नियम-कायदे

और अनुशासन के नाम पर उसके व्यक्तित्व को कुंठित भी करते हैं .....

बात यह है बंधु, कि हर बात का विरोध उसके भीतर ही रहता है।

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धूप-छाँह

आपके जीवन में क्या है? धूप या छाँह!

अगर धूप है, तो छाँह से बच नहीं सकते।

आप दुःखी हैं या सुखी?

दुःखी हैं तो सुख के क्षण भी आएंगे।

आप जीवित हैं या मृत!

अगर जीवित हैं, तो मृत्यु भी निश्चित है।  

आप युवा हैं या बुजुर्ग?

अगर युवा हैं तो बुजुर्ग होना अवश्यंभावी है।

सूर्योदय जितना अटल है, सूर्यास्त भी उतना ही अटल है।

          अगर प्रकृति के ये नियम अवश्यंभावी हैं तो फिर इससे क्या घबराना? लेकिन इनका सामना करने के लिए तैयारी  करनी पड़ेगी! क्या आपने इसकी तैयारी की है? आर्थिक सुरक्षा के नाम पर भले ही आपने अनेक धन – करोड़, सौ करोड़, हजार करोड़ - सँजोया हो, बड़े रकम की जीवन बीमा या हैल्थ बीमा लिया हो तब भी ये कम पड़ सकते हैं, गायब हो सकते है, जरूरत के समय नदारद हो सकते हैं। पहरेदार लगाए हों, ज़ेड सुरक्षा की व्यवस्था की हो, मजबूत दरवाजे और निवास बनाया हो तब भी इनमें से कोई भी आपको छाँह, दुःख, मृत्यु, बुढ़ापे से नहीं बचा सकता। तब क्या इनसे बचने का कोई उपाय नहीं है? है, जरूर है, आपके हैसियत के अंदर ही है? क्या है वह उपाय? आसान भी है, कठिन भी।

          कठिन समय में इंद्रजीत सिंह तुलसी की लिखी ये पंक्तियाँ याद कीजिये:

जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम
कि रास्ता कट जाएगा मित्र, कि बादल छंट जाएगा मित्र

कि दुःख से झुकना न मित्र, कि इक पल रुकना न मित्र
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम

          मैं कई महीनों बाद दिल्ली से वापस कोलकाता पहुँचा। मुझे कोलकाता आए हुए कुछ ही दिन  हुए थे कि बड़े भाई साहब गिर पड़े और उनके कूल्हे की हड्डी चिटक है। उनके बच्चे बाहर रहते हैं। उनकी पूरी व्यवस्था हमने ही की। भाई साहब ईश्वर का शुक्र मनाते रहे कि हमारे आने के बाद गिरे। अगर हमारे आने के पहले गिर गए होते तो बहुत परेशानी होती। तकलीफ के कारण कोसने के बजाय वे ईश्वर के शुक्र गुजार थे कि हमारे आने के बाद गिरे।

जो जीवन से हार मानता, उसकी हो गयी छुट्टी
कि रूठे यार मना मित्र, कि यार को यार बना मित्र
न खुद से रह ख़फ़ा मित्र, खुदी से बने खुदा मित्र
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम

मैं और मेरी पत्नी अपनी वर्षों से सँजोई तमन्ना पूरी करने सड़क मार्ग से कोलकाता-विशाखापत्तनम-अरकू-केचला-चित्रकोटे छत्तीसगड़-वृन्दावन-दिल्ली का कार्यक्रम बना निकल पड़े। हमारी यात्रा बड़ी सुखद, उल्लास पूर्वक, आनंद दायक और हर्षोल्लास से बढ़ रही थी। हम अपने पहले पड़ाव, विशाखापत्तनम तक पहुँच गए थे और आगे का कार्यक्रम भी सुनिश्चित कर लिया था।  तभी अचानक पत्नी की तबीयत गड़बड़ा गई, उसे अस्पताल में भर्ती करना पड़ा, ऑपरेशन भी करवाया और अपना कार्यक्रम रद्द कर हम वापस लौट आए। शुक्र है ईश्वर का कि यह सब विशाखापत्तनम में हुआ, वहाँ अपना घर है, स्वास्थ्य और उपचार की पूरी सुविधाएं उपलब्ध हैं। सब कार्य सुचारु रूप से सम्पन्न हुआ और हम सकुशल अपने घर लौट आए। शुक्र है ईश्वर का कि यह सब विशाखापत्तनम में ही हुआ जहाँ अपना घर, लोग, स्वास्थ्य सुविधायें तथा डॉक्टर-अस्पताल आदि उपलब्ध थीं। अगर यह कहीं और रास्ते में हुआ होता तो यह सोच कर रूह काँप उठती है। शुक्र है ईश्वर का कि सही ठौर-ठिकाने पर ही पीड़ा हुई।

उजली उजली भोर सुनाती तुतलेय तुतलेय बोल
अन्धकार में सूरज बैठा अपनी गठरी खोल
कि उससे आँख लड़ा मित्र समय से हाथ मिला मित्र
जीवन चलने का नाम चलते रहो सुबहो शाम

         

परिस्थितियाँ – दुर्घटना सब वही थीं लेकिन इस सोच ने हमें न तो दुखी किया, न कमजोर बनाया और न ही हतोत्साहित किया। यह केवल अपनी-अपनी सोच का फर्क है। अगर सोच निर्मल है, ईश्वरार्पण है, खीज नहीं है, तो दुःख में  भी सुख है, छाँह में भी धूप है, मौत में भी जिंदगी है, सूर्यास्त भी सूर्योदय है, बुढ़ापे में भी जवानी है।

         हमारे जीवन में निश्चितता कभी नहीं होगी। कभी हमें जो प्रिय है वह होगा तो कभी अप्रिय, कभी ईष्ट - कभी अनिष्ट होगा ही। हमेशा जो हमें प्रिय है वही होता रहे यह कभी भी संभव नहीं है। यह उतार-चढ़ाव हमेशा होता रहेगा। इस जीवन में उतार-चढ़ाव, अप्रत्याशित मोड़ आते ही रहेंगे, अतः हमें अपना ध्यान परमात्मा की तरफ लगाना है ताकि हमें वापस घूमना न पड़े। जिंदगी तो ऐसे ही चलेगी। इसका सबसे अच्छा उदाहरण हमारे देश की सड़कें हैं। एकदम सपाट, सुंदर, चौड़ी सड़क पर कब कहाँ अंध मोड़, बैरियर, बम्प, खड्डे, साइकिल, उल्टी दिशा से वाहन आ जाएगा कुछ पता नहीं। यानी जीवन कभी एक समान नहीं होगा लेकिन हम अपने मन को समान रख सकतें हैं। बाहर हमेशा ही विषम रहेगा – सब दिन जात न एक समान – लेकिन अपने आंतर को ही हम  सम रख सकते हैं।

हिम्मत अपना दीन धर्म है, हिम्मत है ईमान
          हिम्मत अल्लाह, हिम्मत वाहेगुरु
                    हिम्मत है भगवान्,
जीवन चलने का नाम, चलते रहो सुबहो शाम

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पढ़ना, सुनना, गुनना, घुलना 

हम गीता के तीसरे अध्याय में हैं। श्री कृष्ण अर्जुन की शंका और मोह का नाश करने में लगे हैं। इसी क्रम में अनेक उपदेश के साथ-साथ ज्ञान की बातें भी बता रहे हैं। अर्जुन विचार कर रहा है कि भगवान इतना ज्ञान दे रहे हैं लेकिन फिर भी मानव उन्हें क्यों नहीं अपनाता, क्यों ये उनके आचरण में नहीं दिखता?

          इसके पहले कि अर्जुन प्रश्न करे भगवान उसकी शंका का समाधान कर देते हैं:-

सदृशं चेष्टते स्वस्याः प्रकृतेर्ज्ञानवानपि ।

प्रकृतिं यान्ति भूतानि निग्रहः किं करिष्यति ॥ ।। ३३ ।।

सभी प्राणी प्रकृति  को प्राप्त होते हैं अर्थात् अपने स्वभाव  के परवश हुए कर्म करते हैं। ज्ञानवान् भी अपनी प्रकृति के अनुसार चेष्टा करता है। फिर इसमें किसी का हठ क्या करेगा?

          यानी, ज्ञान की बातें सुनकर, पढ़कर, गुनकर भी अज्ञानी ही नहीं ज्ञानी के स्वभाव में वह ज्ञान नहीं दिखता, क्योंकि हर मनुष्य अपनी प्रकृति के वश में होकर उसी के अनुसार आचरण करता है। हर मनुष्य की प्रकृति अपनी अलग-अलग होती है और यह प्रकृति उसे जन्म से मिलती है। जब तक मनुष्य उस ज्ञान के साथ घुल-मिल कर उसे आत्मसात नहीं कर लेता तब तक वह ज्ञान प्रकट नहीं होता। जैसे दूध में चीनी डाल देने मात्र से दूध में मिठास नहीं आती। क्योंकि चीनी तो दूध के बर्तन के पेंदे में  बैठ जाती है। जब उसी चीनी को मिलाया जाता है तब वह उसमें घुल-मिल जाती है, दूध चीनी को आत्मसात कर लेता है, तब उसमें मिठास आती है।

          मनुष्य को समझना चाहिए कि पढ़ना, सुनना और गुनना पर्याप्त नहीं बल्कि उसके अनुसार कर्म करना, उसे अपने कर्म में उतारना, उसके अनुरूप आचरण करना आवश्यक है। कर्म में आने पर ही वे ज्ञान दृष्टिगोचर होते हैं। अतः सिर्फ पढ़ने, सुनने, देखने, गुनने और आज की दुनिया में आगे फॉरवर्ड करने के साथ-साथ उसके अनुरूप कर्म भी कीजिये। यही महत्वपूर्ण है। अगर कर्म में अवतरित कर लिया तो फिर फॉरवर्ड करने की आवश्यकता नहीं। कर्म स्वयं उसे फॉरवर्ड करेगा।

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बचपन की भाषा                                                                   मैंने पढ़ा

वो मेरा इस धरती पर तीसरा दिन था... मां ने हुलसकर पूछा, 'कैसा है मेरा लाल ?' तो आया ने जवाब दिया, 'बड़े मजे में है.... मैं उसे तीन बार दूध पिला चुकी हूं।' मैं चिल्लाया, 'नहीं... ये झूठ बोल रही है। मैं बिलकुल भी मजे में नहीं हूं। सख्त होने की वजह से बिस्तर मुझे तकलीफ़ दे रहा है और इसके द्वारा पिलाया दूध कड़वा था, क्योंकि इसके स्तनों से भयंकर दुर्गंध आ रही थी। पर मेरी मां ने मेरी बात नहीं सुनी, क्योंकि वो मेरी भाषा नहीं समझती थीं। इक्कीसवें दिन जब मेरा नामकरण हुआ, तब पादरी ने मां से कहा, 'आपको खुश होना चाहिए, आपके बेटे ने ईसाई के रूप में जन्म लिया।' हैरानगी से भरकर मैंने पादरी से कहा, 'तब तो स्वर्ग में आपकी मां बहुत दुखी होंगी, क्योंकि... 'मगर चूंकि पादरी भी मेरी भाषा से अनजान था, वो मेरी बात नहीं समझ सका। सात साल की उम्र में एक नजूमी ने मेरी मां को बताया, 'आपका बेटा बड़ा होकर नेता बनेगा।' मैं फ़ौरन बोला, 'नहीं मैं केवल और केवल संगीतकार बनूंगा।' पर अफ़सोस इस बार भी कोई मेरी बात नहीं समझा।

          अब मैं तैंतीस बरस का हूं। मेरी मां, आया और उस पादरी का स्वर्गवास हो चुका है, लेकिन कल मुझे वो ज्योतिषी मिला। बातचीत के दौरान उसने कहा, 'मैं तो शुरू से जानता था कि तुम एक महान संगीतकार बनोगे। मैंने तुम्हारी मां को बताया भी था।' उसकी इस बात पर मैंने कुछ नहीं कहा, क्योंकि अब तक मैं भी बचपन की भाषा भूल गया था।

खलील जिब्रान

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जीवन की नदी में हर कहानी बह रही है...                                         मैंने पढ़ा

500 ईसा पूर्व इटली में दार्शनिकों का एक समूह था – ईलिया। इस समूह में एक दार्शनिक थे - परमेनीडीज (540-480 ई.पू.) उनका मानना था कि कोई चीज कभी ख़त्म नहीं होती। हर अस्तित्वमान चीज़ सदा अस्तित्व में रहती है। उनका कहना था कि ज्ञानेन्द्रियां हमारे सामने अंत का झूठ रखती हैं, पर एक दार्शनिक होने के नाते मेरा कर्तव्य है कि मैं हर भ्रम की कलई खोलूं।

          परमेनीडीज के समय में एक और दार्शनिक थे - हिरेक्लिटस (540-480 ई.पू.) उनका कहना था कि चीजें कभी ख़त्म नहीं होतीं, बस बदल जाती हैं। निरंतर बहाव या परिवर्तन ही संसार का आधारभूत लक्षण है। वे कहते थे, 'हर चीज बहती है। हम एक ही नदी को दोबारा नहीं देख सकते, क्योंकि हर बीतते क्षण के साथ नदी का बहाव नया हो जाता है और हमारी दृष्टि भी।'

          सिसली के दार्शनिक एम्पीडोक्लीज (490-430 ई.पू.) का मानना था कि संसार की रचना के चार स्रोत हैं – हवा, धरती, आग और पानी। जीवन की कहानी इन्हीं से फूटती है और नया रूप पाने के लिए इन्हीं में समा जाती है, कभी ख़त्म न होने के लिए...

(सबों का अपना नजरिया होता है देखने का, कहने का। उनमें विरोध नहीं होता, होना भी नहीं चाहिए। यह तो सुनने वाले पर निर्भर करता है कि उसने क्या समझा! हो सकता है, बात एक ही हो, सिर्फ कहने का ढंग अलग-अलग। महत्वपूर्ण है आपको क्या सही लगा और उसे आपने किस हद तक अपनाया।)

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तरीका                                                   लघु कहानी - जो सिखाती है जीना

एक अंधा व्यक्ति एक बड़ी हवेली के बाहर बैठकर भीख मांग रहा था। उसने अपने पास एक छोटा सा बोर्ड लगाया हुआ था, “मैं अंधा हूँ, कृपया मेरी मदद करें”। दोपहर होने चली थी और उसके कटोरे में कुछ ही सिक्के आए थे। तभी वहाँ से एक रचनाकार गुजरा। उसकी नज़र उस अंधे भिखारी और उसके बोर्ड पर पड़ी। उसने उसके बोर्ड पर लिखे हुए वाक्य को मिटा कर उस पर कुछ और लिखा और कुछ सिक्के डालकर चल दिया। शाम को वह व्यक्ति दुबारा वहाँ से लौटा। अब उस भिखारी के कटोरे में ढेर सारे सिक्के थे। भिखारी उसके कदमों की आहट पहचान गया। उसने उससे पूछा, तुमने बोर्ड पर क्या लिखा था? कुछ खास नहीं मैंने तुम्हारी ही बात को दूसरे तरीके से लिख दिया था, उस व्यक्ति ने जवाब दिया। उस साइन बोर्ड पर लिखा था, आज से बसंत शुरू हो गया, लेकिन मैं देख नहीं सकता

किसी भी बात को कहने का तरीका उसके उद्देश्य को पूरा करने में अहम भूमिका रखता है।

 (उजाले के गाँव में से)

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कारावास की कहानी - श्री अरविंद की जुबानी                                        धारावाहिक 

(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने कारावास की कहानी के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी सत्रहवीं किश्त है।)

 

(17)

हम जितने दिन अलग-अलग कोठरियों में बन्द थे उतने दिन केवल गाड़ी में मजिस्ट्रेट के आने से पहले एक घण्टा या आधा घण्टा और खाने के समय कुछ बातें करने का अवसर पाते। जिनका परस्पर परिचय या आलाप था वे इस समय कोठी (cell) की नीरवता और निर्जनता का प्रतिशोध लेते, हंसी, आमोद और नाना विषय की आलोचना में समय बिताते। लेकिन ऐसे अवसरों पर अपरिचितों के साथ बात करने की सुविधा नहीं होती इसलिए मैं अपने भाई बारीन्द्र और अविनाश को छोड़ और किसी से भी ज्यादा बात न करता, उनका हंसी-मजाक, उनकी बातें सुनता पर स्वयं उसमें भाग न लेता। किन्तु एक व्यक्ति बातचीत में मेरे पास खिसक आते। वे थे भावी मुखबिर (approver)  नरेन्द्रनाथ गोस्वामी। दूसरे लड़कों की तरह उनका स्वभाव न शान्त था न शिष्ट, वे थे साहसी और लघुचेता एवं चरित्र, वाणी और कर्म में असंयत। पकड़े जाने के समय नरेन गोंसाई ने अपना स्वाभाविक साहस और प्रगल्भता दिखायी थी, लेकिन लघुचेता होने के कारण कारावास का थोड़ा सा भी दुःख और असुविधा सहन करना उनके लिए असाध्य हो उठा था। वे थे जमींदार के बेटे अतः सुख, विलास और दुनीति में पले, वे कारागृह के कठोर संयम और तपस्या से अत्यन्त कातर हो गये थे, और यह भाव सब के सामने प्रकट करने में भी कुण्ठित नहीं हुए। जिस किसी भी उपाय से इस यन्त्रणा से मुक्त होने की उत्कट लालसा उनके मन में दिन-दिन बढ़ने लगी। पहले उन्हें यह आशा थी कि अपनी स्वीकारोक्ति का पत्याहार कर वे यह प्रमाणित कर सकेंगे कि पुलिस ने शारीरिक यन्त्रणा देकर दोष स्वीकार कराया था। उन्होंने हमें बताया कि उनके पिता इस तरह के झूठे गवाह जुटाने के लिए कृतसंकल्प थे। किन्तु थोड़े दिनों में ही और एक भाव सामने आने लगा। उनके पिता और एक मुखतार उनके पास बार-बार जेल में आने जाने लगे, अन्त में जासूस शमसुल आलम भी उनके पास आ बहुत देर तक गुप-चुप बातें करने लगे। ऐसे समय हठात् गोसाईं के कौतुहल और प्रश्न करने की प्रवृत्ति देख बहुतों के मन में सन्देह हुआ। भारतवर्ष के बड़े-बड़े आदमियों के साथ उनका परिचय या घनिष्ठता थी कि नहीं, गुप्त समिति को किस-किस ने आर्थिक सहायता दे उसका पोषण किया, समिति के और कौन-कौन सदस्य बाहर या भारत के अन्यान्य प्रदेशों में थे, अब कौन समिति का कार्य चलायेंगे, शाखा समिति कहाँ है इत्यादि अनेक छोटे-बड़े प्रश्न बारीन्द्र और उपेन्द्र से पूछते। गोसाईं की यह ज्ञानतृष्णा की बात अचिरात् सबके कर्णगोचर हुई और शमसुल आलम के साथ उनकी घनिष्ठता की बात भी अब गोपनीय प्रेमालाप न रह खुला रहस्य (open secret) हो उठी। इसे लेकर खूब आलोचना होती और किसी-किसी ने यह भी लक्ष्य किया कि हमेशा पुलिस-दर्शन के बाद ही इस तरह के नये-नये प्रश्न गोसाईं के मन में चक्कर काटते हैं। कहने की जरूरत नहीं कि उन्हें इन प्रश्नों का सन्तोषजनक उत्तर नहीं मिला। जब पहले-पहल आसामियों में यह बात प्रचारित होने लगी तब गोसाईं ने स्वयं स्वीकार किया था कि पुलिस उनके पास आ "सरकारी गवाह" बन जाने के लिए उन्हें नाना उपायों से समझाने की चेष्टा कर रही है। कोर्ट में उन्होंने मुझसे एक बार यह बात कही थी। मैंने उससे पूछा था, “आपने क्या उत्तर दिया।" वे बोले, "मैं क्या मान लूँगा! मानने पर भी भला मैं क्या जानता हूँ जो उनकी इच्छानुसार साक्ष्य दूंगा?" उसके कुछ दिन बाद उन्होंने फिर से जब इस बात का उल्लेख किया तो देखा कि यह बात बहुत आगे बढ़ चुकी है। जेल में Identification Parade (पहचान परेड) के समय मेरी बगल में गोंसाई खड़े थे, तब उन्होंने मुझसे कहा: "पुलिस केवल मेरे पास ही आती है।" मैंने उपहास करते हुए कहा, “आप यह बात कह क्यों नहीं देते कि सर ऐन्दू फ्रेजर गुप्त समिति के प्रधान पृष्ठपोषक थे, इससे उनका परिश्रम सार्थक होगा।" गोसाई बोले, "ऐसी बात तो मैंने कह ही दी है। मैं उन्हें कह चुका हूँ कि सुरेन्द्रनाथ बेनर्जी हैं हमारे प्रधान (head)  और मैंने उन्हें भी एक बार बम दिखाया है।" स्तम्भित हो मैंने उनसे पूछा, "यह बात कहने की जरूरत क्या थी ?" गोसाईं बोले, "मैं..... का श्राद्ध करके रहूँगा उस तरह की और भी बहुत सी खबरें मैंने दी है। मरें साले प्रमाण (corroboration)  खोजते खोजते क्या पता, इस उपाय से, मुकद्दमा फिस ही हो जाये इसके उत्तर में मैंने केवल इतना कहा था, "ऐसी शरारत से बाज़ आइये। उनके साथ चालाकी करते-करते खुद ही ठगे जायेंगे।" पता नहीं गोसाईं की यह बात कहाँ तक सच थी। और सब आसामियों की यह राय थी कि हमारी आँखों में धूल झोंकने के लिए उन्होंने ऐसा कहा था।  मेरा ख्याल था कि तब तक गोसाईं  मुखबिर (approver) होने के लिए पूर्णतया कृतनिश्चय नहीं थे, यह ठीक है कि इस विषय में वे बहुत आगे बढ़ चुके थे, किन्तु पुलिस को ठग उनका केस मिट्टी कर देने की आशा भी उन्हें थी। चालाकी और असदुपाय से कार्यसिद्धि ही दुष्प्रवृत्ति की स्वाभाविक प्रेरणा है। तभी से समझ गया था कि गोसाईं पुलिस के वश हो सच झूठ उन्हें जो भी चाहिये, वह कह अपने को बचाने की चेष्टा करेंगे। एक नीच स्वभाव का और भी निम्नतर दुष्कर्म की ओर अध:पतन हमारी आँखों के सामने नाटक की तरह अभिनीत होने लगा। मैंने लक्ष्य किया कि किस तरह गोसाईं का मन दिन-प्रतिदिन बदलता जा रहा है, उनके मुख, भावभंगिमा और बातचीत में भी परिवर्तन हो रहा है। विश्वासघात कर आने संगी-साथियों का सर्वनाश करने के लिए वे जो कुछ जुटा रहे थे उसके समर्थन के लिए क्रम से नाना अर्द्धनैतिक और राजनीतिक युक्तियां बाहर करने लगे। ऐसी मनोरंजक मनोवैज्ञानिक अध्ययन (interesting psychological study) प्रायः सहज ही हाथ नहीं लगती।                                                                                              (क्रमश:, आगे अगले अंक में)

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