सूतांजली
~~~~~~~~
वर्ष : ०५ * अंक : ०१२ जुलाई * २०२२
जीवन
में सबसे बड़ा आनंद वह कार्य करने में है जिसे
लोग
कहते हैं
आप
नहीं कर सकेंगे।
------------------
000 ----------------------
विडम्बना
संसार का हर संगठन जानता है कि जिस आवश्यकता की पूर्ति के लिए उसका
जन्म हुआ है उस आवश्यकता का बना रहना, बल्कि
और बढ़ते रहना ही उसके जिंदा रहने की शर्त है। बीमारियाँ खत्म हो गई तो दवा
निर्माता कहाँ जाएंगे? विश्व में शांति और सौहार्द होगा तो
हथियार निर्माण का विशाल कारोबार कहाँ जाएगा? दवा निर्माताओं
को स्वास्थ्य में रुचि नहीं होती, हथियार बनाने वालों को
केवल युद्ध चाहिए और राजनीतिक पार्टियों को समस्याएँ। इसलिए धर्मों को जन्मे हजारों वर्ष बीत जाने के
बाद भी मनुष्य की आत्मा उतनी ही प्यासी है, उसकी चेतना का
स्तर कहीं भी ऊपर उठता दिखाई नहीं देता, शांति और विश्व
बंधुत्व की जगह धार्मिक, जातीय, सामाजिक
संकीर्णता के परस्पर विरोधी दायरे बनते जा रहे हैं। अपनी सामूहिक पहचान को बनाए
रखने का आग्रह अहमन्यता तक पहुँचता दिखाई देता है। या तो हर स्थान पर संगठित धर्म
की असफलता है या एक संगठन होने के नाते कोई धर्म नहीं चाहता कि वे समस्याएँ समाप्त हो जिन पर उनकी उपादेयता टिकी है। शायद
इसीलिए धर्मों और धर्मगुरुओं को लक्ष्य करके 20वीं सदी के गंभीर विचारक जे.
कृष्णमूर्ति ने कहा था, जिस क्षण आप किसी का अनुसरण
करते हैं, आप सत्य का अनुसरण बंद कर देते हैं (The
moment you follow someone, you cease to follow truth.)। धर्म हो, धर्मगुरु हो या धर्म ग्रंथ वह केवल एक
इशारा भर करते है। संस्कृत के अनुसार गुरु की अंगुली तो शिष्य को संकेत देती है,
मार्ग इस दिशा में है। अब अगर शिष्य अंगुली पकड़ कर बैठ जाए तो अपनी
मंजिल पर कैसे पहुंचेगा? धर्मगुरु अगर सही है तो भी वह हमारे
और सत्य के मध्य केवल एक सेतु भर है। उस पर चलना तो हमें ही होगा।
पैगंबर, मसीहा, संत, मोहम्मद सिर्फ सहायता कर सकते हैं, अपने सत्य की खोज तो हमें खुद ही करनी होगी। डॉ.राधाकृष्णन ने कहा था, धर्म ही, प्रत्येक व्यक्ति के अंदर जलनेवाली ज्वाला को प्रज्ज्वलित करने में सहायता करती है। धर्म केवल सहायता करती है, उसे जलाना और जलाए रखना हमारा ही काम है।
यहाँ एक बोध कथा का उल्लेख सामयिक होगा –
संत ने एक रात सपना देखा। सपने में वह स्वर्ग जा पहुँचा। सारा
स्वर्ग सजा-धजा था - रास्तों पर फूल,
इमारतों पर रोशनी की लड़ियां, चारों ओर नृत्य और संगीत उसने
पूछा, 'भाई, क्या बात है? कोई उत्सव है क्या?' जवाब मिला, 'आज परमात्मा का जन्मदिन है।’ सड़क पर एक लंबा जुलूस
गुजरने लगा। जुलूस के आगे घोड़े पर बैठा एक आदमी चल रहा था। संत ने सवाल किया,
भाई ये महाशय कौन हैं? जवाब आया, ' ये ही तो हजरत मोहम्मद हैं।' पीछे लोगों का हुजूम
उमड़ रहा था। फरीद ने पूछा, 'फिर ये लोग कौन हैं? जवाब मिला, ये लोग मोहम्मद के अनुयायी हैं। इन्हें
मुसलमान कहते हैं।'
पीछे-पीछे क्रूस
हाथों में लिए लाखों ईसाइयों के साथ ईसा मसीह आए। इसके बाद अपने स्वर्ण रथ पर बैठे
कृष्ण आए, धनुर्धारी राम आए। पीछे नाचते-गाते भक्तों का मेला
लगा हुआ था.... इसी तरह पैगंबर आते रहे, जय-जयकार करते जुलूस
गुजरते रहे। और सभी जुलूसों के गुजर जाने के बाद अंत में एक अधेड़ सा आदमी आता हुआ
दिखाई दिया। उसके साथ कोई नहीं था। वह निपट अकेला चला जा रहा था। उसे देख कर संत
विचार में पड़ गया। न कोई अनुगामी, न कोई साथी, यह अकेला कहाँ जा रहा है। संत ने पूछा, 'श्रीमान,
आप हैं कौन? मोहम्मद, ईसा,
राम, बुद्ध..... सभी को मैं पहचानता हूं। बिना
किसी अनुगामी के इस तरह आप कौन हैं?!"
उस व्यक्ति ने एक
उदास-सी मुस्कान के साथ कहा, 'प्रिय मित्र,
मैं ही परमात्मा हूँ। आज मेरा जन्मदिन है। लेकिन कुछ लोग,
ईसाई बन गए, कुछ मुसलमान, कुछ यहूदी, कुछ हिंदू, कुछ ...
मेरे साथ चलने के लिए कोई नहीं बचा।'
...अगर आपने
परमात्मा को लेकर पहले से ही कोई धारणा बना ली है, तो आप उसे नहीं जान सकते। आपकी धारणा ही आपके और ईश्वर के बीच सबसे बड़ी
दीवार बनी है। सभी बाह्य धारणाओं को छोड़ देने पर ही अंतर्यात्रा आरंभ हो सकती है।
यही सोच मनुष्य के आध्यात्मिक संसार और व्यावहारिक संसार की दूरियाँ मिटाने का भी
प्रयास है। अध्यात्म धर्मस्थलों और धर्मग्रंथों में बंद करके रख देने की चीज नहीं
है। अध्यात्म वही है, जो बाहर से जीवन और भीतर से आत्मा को
बदल सके, अधिक समृद्ध, अधिक विस्तृत कर
सके। आध्यात्मिक राह पर पैर जमाकर चलने के लिए जरूरी है कि हमारा व्यक्तिगत जीवन
भी प्रेम, शांति और आनंद से परिपूर्ण हो। जैसे आध्यात्मिक
क्षेत्र में हिंदुत्व, बौद्ध, जैन,
ताओ, ईसाइयत
आदि से सहयोग लिया, उसी तरह बाह्य जीवन में पूर्णता लाने के
लिए मनोविज्ञान, स्वास्थ्य विज्ञान, पर्यावरण
विज्ञान और समाज शास्त्र आदि से सहायता लेने में भी कोई संकोच नहीं किया जाना
चाहिए।
इस तरह एक
अंतर-बाह्य परिपूर्ण, स्वतंत्रचेता और ऊर्जावान मनुष्यों के गतिमान
संसार का स्वप्न देखिए। समझिए, कहीं हम सभी उसी भीड़ का ही एक
हिस्सा हैं जो परमात्मा को भूल उसके धर्म-संगठनों का अनुगमन कर रहा है? वेदव्यास ने लिखा है, प्राणियों की अभिवृद्धि के लिए धर्म का प्रवचन किया गया है, अतः जो प्राणियों की अभिवृद्धि का कारण हो, वही
धर्म है।
परमात्मा का
अनुगमन कीजिये। कम से कम एक बंदा तो उसके साथ हो।
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
ईश्वर को एक अर्जी
हे
परम पिता, परम अदरणीय एवं आराध्य ईश्वर,
आपके चरणों में मेरा सविनय प्रणाम।
मैं एक अति नाजुक
और आवश्यक विषय पर आपको यह पत्र लिखने का दु:स्साहस करने की आजादी ले रहा हूँ।
आपने हमें, पूर्णत: रिक्त, बिना आपकी जानकारी और जीवन के उन
सिद्धांतों से जिनपर हमें चलना है, अवगत कराये, इस जगत में भेज दिया। आपने हमें इस बात की भी जानकारी नहीं दी कि हमने
अपने पूर्व जन्म में कितनी साधना की, हमारी प्रगति हुई या
अवनति, हमने कितने कक्षाओं को उत्तीर्ण किया और अब हमें कहाँ
से प्रारम्भ करना है।
अपने हमें
बारम्बार नर्सरी कक्षा में ही डाल दिया। आपके नियम हम कभी समझ नहीं पाये।
जब हम यहाँ एक
भोले-भाले और अज्ञानी के रूप में आये तब हमें हजारों प्रकार के वातावरणीय दबावों
में डाल दिया; यथा – माता-पिता, दादा-दादी, भाई-बहन, अनेक संबंधी और उनके बच्चे, हमारे अनगिनत पड़ोसी, असंख्य मेहमान और कभी समाप्त न
होने वाले पारिवारिक मित्र, सहपाठी,
सड़कें, गाँव, कस्बे, शहर के लोग और उनके बच्चे, बाजार, विज्ञापन, रेडियो, टेलीविज़न, विडियो, अखबार उनके विचार और दृष्टिकोण, राजनीतिक पार्टियां और उनके अपने स्वार्थ, संगठन और
ट्रस्ट, पंथ और मठ, गुरु और आश्रम, विचारक और अनेकानेक पथ, हर ढंग और रंग के और उनका
अलग-अलग गहरा और हलकापन, बिना किसी नियंत्रण के, हमें पूरी तरह भ्रमित करने के लिए। हम इन्हीं सब के आकस्मिक और उलझन से
प्राकृतिक रूप में पैदा हुए, हमारे हाथ में कुछ भी नहीं है।
तब हमारी गलतियों और त्रुटियों के लिए आप हमें कैसे दोषी ठहरा सकते हैं?
जब हम युवा थे, उस समय आपने हमें वैवाहिक जीवन के धधकते चूल्हे पर चढ़ा कर हमें बच्चे
पैदा करने के कार्य में लगा कर उसे ढोने में लगा दिया। हे मेरे ईश्वर! आप यह जानते
थे कि हमें कैसे नये वातावरण और परिस्थितियों में से गुजरना होगा।
और अब, जब हम अपने विगत जीवन के अनुभवों के आधार पर हम अपनी भूलों और गलतियों, दोषों और मूर्खताओं को समझने लगे हैं, हम कुछ हद तक
परिपक्व हो गये, हमें इतना ज्ञान प्राप्त हुआ कि हम कुछ
बेहतर और पवित्र जिंदगी समझ पायें, हम दूसरों को ज्ञान देने
में सक्षम बने, तब मेरे ईश्वर आपने हमें बूढ़ा और अक्षम बना
दिया, और हमारी प्रत्येक मानसिक शक्ति और कार्य करने की क्षमता को बिगाड़ दिया। यही नहीं अपने तब यमराज
को हमारे पास बिना जमानत का वॉरेंट और बिना किसी शर्त का सम्मन के साथ भेज दिया
जिसकी न कोई सुनवाई हो सकती है और न ही हम अपनी परिस्थिति बयां कर सकते हैं। आपने
न हमें, न हमारे वकील को जिरह करने की अनुमति दी और एक तरफा
फैसला सुना दिया।
मेरे ईश्वर, आपने इस बात को समझने से इंकार कर दिया कि जब हमें इस जीवन का थोड़ा अनुभव
और ज्ञान प्राप्त हुआ, हमें अपनी भूलों, मूर्खताओं, और अज्ञान का अहसास हुआ तब हमने यह शपथ
ली कि ‘बहुत हुआ अब नहीं’ और यह निश्चय
किया कि अब आगे हम एक अच्छी, पवित्र और सच्चाई की जिन्दगी
जिएंगे। तब उस अवसर का लाभ उठाते हुए हमें नए सिरे से नई ऊर्जा के साथ हमारी
तीक्ष्ण मानसिक शक्ति और नए मानस, शरीर तथा आत्मा से आपके अनुरूप कार्य करने और दूसरों को भी परामर्श देने
में लगाते।
मेरे ईश्वर, आपके वर्तमान कार्य प्रणाली में कहीं-कुछ बुनियादी भूल है। मेरे ईश्वर
शायद, आपको एक नई प्रणाली ईजाद करनी चाहिए जिसमें सकारात्मक
और नकारात्मक नंबर दिये जाएँ और अगर नकारात्मक १०० नंबर मिल जाएँ तब हमें नर्क में
भेजें जहां से हम फिर से शून्य से जीवन प्रारम्भ करें।
मेरे ईश्वर, अब तक तो आपके पास कई प्रतिभाशाली लोग पहुँच गए होंगे। मैं आपसे निवेदन
और प्रार्थना करता हूँ कि आप अब कोई एक ऐसा नवीन तरीका ईजाद कर सकते हैं या बनवा
सकते हैं ताकि हम ८४ लाख योनियों में प्रविष्ट होने के कष्ट से बच सकें।
अगर आपने हमारी
प्रार्थना और निवेदन को स्वीकार नहीं किया तब हमें इस बात के लिए बाध्य होना पड़ेगा
कि हम इस मुद्दे को भड़काएँ, विद्रोह करें और अपने एक नया साम्राज्य बनाने के
लिए आँधी उठाएँ।
अपनी
पूरी श्रद्धा के साथ,
हम
हैं
इस
धरती के बच्चे
(श्री अरविंद आश्रम-दिल्ली शाखा द्वारा प्रकाशित ‘सुरेन्द्र नाथ जौहर – जीवनी,
लेखन और विचार’ पर आधारित)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
जिंदगी ....., जरूरी यह है कि वह कुछ बेहतर दे मैंने पढ़ा
एक दिन कहानीकार हाथार्न
और कवि लॉन्गफेलो एक साथ भोजन ले रहे थे। हाथार्न ने कहा, 'मैं बड़े दिनों से उस दंतकथा
पर कहानी लिखने की सोच रहा हूं, जिसमें एक लड़की अपने प्रेमी से अलग हो जाती है और सारी जिंदगी उसे
खोजती फिरती है। सारी जिंदगी, माने बूढ़ी होने तक... और अंत में उसका प्रेमी उसे एक अस्पताल में मिलता
है, मृत्यु शैया पर पड़ा हुआ। वह उसके पास पहुंचती है, उसे देखती है, छूती है और वह उसकी
बाहों में दम तोड़ देता है। जानते हो लॉन्गफेलो, ये कहानी मुझे
बार-बार प्रेरित करती है, लेकिन इसे लिखने में मैं अब तक असमर्थ रहा हूं।"
लॉन्गफेलो ने एक
क्षण सोचते रहने के बाद सवाल किया, 'तुम कहो तो इस पर मैं कविता लिखूं ?’ हाथार्न ने सहमति दे
दी। तब लांगफेलो ने 'इवेजेलिना' नामक मर्मस्पर्शी काव्य की रचना की। दो महान साहित्यकारों के बीच
घटी इस घटना से कई चीजें सीखी जा सकती हैं-
एक)
अगर आपके पास ऐसा अवसर
है, जिसको आप पूरी तरह से निभाने की मनः स्थिति में नहीं हैं, तो उसे व्यर्थ मत पकड़े
रखिए। उदार बनकर उसे किसी और को सौंप दीजिए। इससे वह अवसर ही नहीं, आपका व्यक्तित्व भी
एक सुखद राह पा जाएगा।
दो)
जब आप जीवन को कहानी की
तरह लिखने की कोशिश करते-करते थक जाएं, तो कुछ नया करें। यह सोचना शुरू करें कि उसे कविता में कैसे
तब्दील किया जाए!
तीन)
अगर आपके पास कोई सपना
है, तो उसे दूसरे के सपने में मिलाकर देखें, यह प्रयोग स्वार्थी
होती जिंदगी को एक नया और खुशनुमा रसायन बना देगा। एक गीत.....
* * * * * *
लॉन्गफेलो कार्ल वोनेगुट |
कार्ल वोनेगुट अपने उपन्यास 'केट्स क्रेडिल' में एक दंतकथा सुनाते हैं, 'ईश्वर ने धरती बनाई, पर जब उसने धरती को देखा, तो उसे सब ओर सूनापन ही दिखाई दिया। तब उसने सोचा, क्यों न इस सूनेपन को ख़त्म करने के लिए मैं मिट्टी से जीवित प्राणियों की रचना करूं? और फिर उसने मिट्टी से उन सब प्राणियों को बनाया जो आज धरती पर विचरते हैं। मनुष्य उन्हीं में से एक था। लेकिन मिट्टी से बना यह अत्त्युत्तम कृति बाकी सब प्राणियों में सबसे सक्षम था। और तो और उसके पास भाषा भी थी। लिहाजा बनते ही उसने आंख झपकाते हुए ईश्वर से पूछा, 'इस सब का क्या अर्थ है ?"
ईश्वर ने कहा, 'बेशक हर वस्तु का
अर्थ होता है, लेकिन यह मैं तुम पर छोड़ता हूं कि तुम इस
बारे में क्या तय करते हो...'
इतना कहकर ईश्वर ग़ायब
हो गया...'
यह दृष्टांत जहां ख़त्म होता है, वहां से एक
नई कहानी शुरू होती है। अपनी तलाश की कहानी... अब हमारे सामने कोई ईश्वर नहीं,
जो जीवन का अर्थ बताए। यह प्रश्न अब हमारा ही दायित्व है। नई भोर
आमंत्रण दे रही है कि हम इस सवाल को थामकर आगे बढ़ें और उसकी रोशनी में जीवन को
देखें। उसे देखना उदासी में गुम हुए मन के वश का नहीं। पर इस रोशनी को देखने के
लिए अदम्य विश्वास की आंख चाहिए।
अनुपमा ऋतु के
लेख का अंश
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
चरित्र बल लघु कहानी - जो
सिखाती है जीना
नोबल पुरस्कार विजेता सी.वी.रमण भौतिकशास्त्र के प्रख्यात
वैज्ञानिक थे। अपने विभाग के लिये उन्हें एक योज्ञ वैज्ञानिक की जरूरत थी। कई लोग
साक्षात्कार के लिये आये। जब साक्षात्कार समाप्त हो गया, तब उन्होंने देखा कि एक व्यक्ति, जिसे उन्होंने
अयोग्य सिद्ध कर दिया था, कार्यालय के आसपास घूम रहा है।
उन्होंने क्रोधित होकर उस व्यक्ति से पूछा कि ‘जब तुम्हें
अयोग्य घोषित कर दिया गया है, तुम यहाँ क्यों घूम रहे हो’?
सी.वी.रमण
उस व्यक्ति की बात सुनकर विस्मित रह गये। फिर थोड़ा रुक कर बोले, “अब तुम कहीं मत जाना, मैंने तुम्हारा चयन कर लिया
है। तुम चरित्रवान व्यक्ति हो। भौतिकशास्त्र के ज्ञान की कमजोरी तो मैं किसी को
पढ़ाकर दूर कर दूँगा, परंतु ऐसा चरित्र मैं कैसे निर्मित करूंगा”?
(गीतप्रेस गोरखपुर की ‘कल्याण’ से)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
कारावास की कहानी-श्री अरविंद की जुबानी समापन किस्त
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद
कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। इसके रोचक अंश हम जनवरी २०२१ से एक
धारावाहिक के रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसकी उन्नीसवीं तथा
अंतिम किश्त है।)
(19)
गोसाई की बात का विश्वास करने से यह भी विश्वास करना
होगा कि उन्हीं के कहने से हमारा निर्जन कारावास खत्म हुआ एवं हमें इकट्ठे रहने का
हुकुम मिला। उन्होंने बताया कि पुलिस ने उन्हें सब के बीच में रख षड्यन्त्र की
गुप्त बातें निकलवाने के लिए यह व्यवस्था की है। गोसाईं नहीं जानते थे कि पहले ही
सब ने उनके नूतन व्यवसाय की गन्ध पा ली है, इसलिए कौन षड्यन्त्र
में लिप्त हैं, शाखा समिति कहाँ है, कौन
पैसे देते या सहायता करते हैं, अब कौन गुप्त समिति का काम
चलायेंगे आदि ऐसे अनेक प्रश्न पूछने लगे। इन सब प्रश्नों के उन्हें कैसे उत्तर
मिले इसका दृष्टान्त मैंने ऊपर दिया है। लेकिन गोसाईं की अधिकांश बातें ही झूठी
थीं। डॉ. डैली ने हमें बताया था कि उन्हीं ने इमर्सन साहब से कह सुनकर यह परिवर्तन
कराया था। सम्भवत: डैली की बात ही सच है; हो सकता है कि इस
नूतन व्यवस्था से अवगत होने के बाद ही सच है; हो सकता है कि
इस नूतन व्यवस्था से अवगत होने के बाद पुलिस ने ऐसे लाभ की कल्पना की हो। जो भी हो,
इस परिवर्तन से मुझे छोड़ अन्य सब को परम आनन्द मिला, मैं उस समय लोगों से मिलने-जुलने को अनिच्छुक था, तब
मेरी साधना खूब जोरों से चल रही थी। समता, निष्कामता और
शान्ति का कुछ-कुछ आस्वाद पाया था; किन्तु तब तक यह भाव दृढ;
नहीं हुआ था। लोगों के साथ मिलने से, दूसरों
के चिन्तन स्त्रोत का आघात मेरे अपक्व नवीन चिन्तन पर पड़ते ही इस नये भाव का ह्यस
हो सकता है, वह जा सकता है। और सचमुच यही हुआ। उस समय नहीं
जानता था कि मेरी साधना की पूर्णता के लिए विपरीत भाव के उद्रेक का जागना आवश्यक
है, इसीलिए अन्तर्यामी ने हठात् मुझे मेरी प्रिय निर्जनता से
वञ्चित कर उद्दाम रजोगुण के स्रोत में बहा दिया। दूसरे सभी आनन्द में अधीर हो उठे।
उस रात जिस कमरे में हेमचन्द्र दास, शचीन्द्र सेन इत्यादि
गायक थे वह कमरा सबसे बड़ा था, अधिकतर आसामी वहीं एकत्रित
हुए थे और रात के दो-तीन बजे तक कोई भी सो न सका। सारी रात हँसी के ठहाके, गाने का अविराम स्रोत, इतने दिन की रुद्ध कथा-वार्ता
वर्षा ऋतु की वन्या की तरह बहती रहने से नीरव कारागार कोलाहल से ध्वनित हो उठा। हम
सो गये लेकिन जितनी बार नींद टूटी उतनी ही बार सुनी समान वेग से चलती हुई वही हँसी,
वही गाने, वही गप्पें अन्तिम प्रहर में वह
स्रोत क्षीण हो गया, गायक भी सो गये। हमारा वार्ड नीरवता में
डूब गया ...... (समाप्त)
(श्री
अरविन्द का लेख इस स्थान पर आकर समाप्त हो जाता है जहाँ अभियुक्तों को एक बड़े हॉल
में स्थानान्तरित कर दिया गया था। 'कारा-काहिनी' (कारावास की कहानी) का अन्तिम हिस्सा मार्च 1910 में 'सुप्रभात' में छपा था, तब तक
श्रीअरविन्द ने कलकत्ता छोड़कर चन्दरनगर में शरण ले ली थी। ब्रिटिश सरकार के फिर
से पीछे पड़ने पर पॉण्डिचेरी आने से पहले वे चालीस दिनों तक गुप्त रूप से रहे,
और 'कारा- कहानी' अधूरी
रह गयी। अब श्रीअरविन्द को एक भिन्न प्रकार की क्रान्ति में जुटना था—यह थी
आध्यात्मिक क्रान्ति- जिसमें न केवल भारत के लक्ष्य की बल्कि पृथ्वी के भविष्य की
बाज़ी लगी थी।
"जब मैं ‘अज्ञान'
में सोया पड़ा था,
तो मैं एक ऐसे ध्यान कक्ष में
पहुँचा
जो साधु-संतों से भरा था।
मुझे
उनकी संगति उबाऊ लगी और
स्थान
एक बंदीगृह प्रतीत हुआ;
जब
मैं जगा तो
भगवान्
मुझे एक बंदीगृह में ले गये
और
उसे ध्यान मंदिर
और
अपने मिलन-स्थल में बदल दिया।
(श्रीअरविंद)
~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~
अगर आपको
सूतांजली पसंद आ रही है, तो इसे लाइक करें,
सबस्क्राइब (subscribe) करें, परिचितों से शेयर
करें, पसंद नहीं आ रही है तो डिसलाइक भी कर सकते हैं। अपने
सुझाव (कोम्मेंट्स) दें, आपको
सूतांजली कैसी लगी
और क्यों, आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।
यू
ट्यूब पर सुनें : à
1 टिप्पणी:
Excellent choice of articles - very thought provoking, specially "Vidambna"
एक टिप्पणी भेजें