मानवता में कुछ गिने चुने, थोड़े से व्यक्ति
शुद्ध सोने में बदलने
के लिए तैयार हैं और
ये बिना हिंसा के शक्ति को,
बिना विनाश के वीरता को और
बिना विध्वंस के साहस को
अभिव्यक्त कर सकेंगे।
श्री मां
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द्विवेदी जी की शर्त
आज हम एक विकट समस्या से जूझ रहे हैं।
चिंतन-मनन करने वाले लोग लुप्त होते जा रहे हैं और इनकी जगह ले रहे हैं ‘अपने मुंह मिट्ठू मियां’। कहीं से भी किसी भी प्रकार
उपाधियाँ जमा कर लिये, ‘डॉक्टरेट’ की उपाधियाँ और सम्मान खरीद लिये और सर तान कर निकल पड़े बड़े-बड़े दावे
ठोंकने। खुद तो आईना देखते ही नहीं हैं, आईना दिखाने वाले
लोग भी नहीं रहे। घिरे रहते हैं चापलूसों से। एक बार सोहन लाल द्विवेदी जी भी फंसे
इनके बीच। तब बड़ी होशियारी से उन्हें आईना दिखा ऐसे खिसक लिये –
सन् 81-82 की बात है। बस्ती एक छोटा शहर था, प्रायः
सभी प्रमुख लोग एक-दूसरे की गतिविधियों से परिचित थे। एक बार एक स्थानीय पत्रकार अपना एक
साप्ताहिक पत्र निकालना चाहते
थे और चाहते थे कि उसका लोकार्पण 'चल पड़े जिधर दो पग डग-मग में ...' जैसी प्रसिद्ध कविता के
रचयिता पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी के हाथों से हो। वे अपने एक मित्र, राजेंद्र परदेशी जी से अपनी इच्छा व्यक्त की। राजेन्द्र जी के अनुरोध
पर पंडित सोहन लाल द्विवेदी आये और उन्हीं के निवास
पर ठहरे। साप्ताहिक पत्र का लोकार्पण-कार्यक्रम दस बजे रात्रि से प्रारम्भ होना
निश्चित था। पंडित
सोहनलाल द्विवेदी जी के आगमन की सूचना स्थानीय एवं बाहर से आये सभी कवियों को मिल
चुकी थी। इस कारण अनेक कविगण उनसे मिलने घर पर
आ गये।
पंडित
सोहनलाल द्विवेदी के सम्मुख होते ही आगंतुक कवियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर
कुछ कवियों ने अपनी-अपनी कवितायें उन्हें सुनाने की इच्छा व्यक्त की साथ ही अपने
ही मुख से अपनी कविताओं के बारे में यह भी दावा ठोक दिया कि उन्होंने अपनी रचनाओं
में बिलकुल नया प्रयोग किया है। आगंतुक कवियों की बात सुनने के बाद पंडित जी ने
उनकी कविताएं सुनने के लिए एक शर्त लगा दी। उनकी
शर्त थी कि जो कवि अपनी कविताएं उन्हें सुनाना
चाहता हो, वह अपनी कविता से पहले पंत, निराला या
महादेवी वर्मा की कोई एक कविता सुनाये, फिर अपनी।
आगंतुक
कवि घंटों बैठे रहे इधर-उधर की बातें करते रहे, पर किसी ने
अपनी कविता नहीं सुनायी। कवियों से कविता सुनाने के लिए पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी
की शर्त राजेंद्र परदेशी को ठीक नहीं लगी थी।
साप्ताहिक
पत्र का लोकार्पण कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात् उपस्थित जनसमुदाय के अनुरोध
पर पंडित जी ने अपनी कवितायें भी सुनायीं फिर राजेंद्र जी के साथ घर लौट आये। रात भोजन के उपरांत बोले, 'शाम को तुम्हारे यहां आये कवियों की कविता सुनने के लिए मैंने जो शर्त
रखी थी उसके बाद किसी ने मुझे अपनी कविता नहीं सुनाई। तुम्हें तो यह अच्छा नहीं
लगा होगा, पर जानते हो मैने यह शर्त क्यों रखी थी,
क्योंकि आजकल लोग पढ़ते तो हैं नहीं, कि उनके पूर्व के लोगों ने क्या लिखा है और यह
दावा करने चले आते हैं कि उन्होंने जो लिखा है, वैसा अभी
तक किसी ने नहीं लिखा। किस आधार पर यह डींग हांकते हैं, तुम
तो विज्ञान के विद्यार्थी थे। क्या विज्ञान में कोई वैज्ञानिक बिना किसी सिद्धांत
को जाने नये सिद्धांत की खोज करने का दावा कर सकता है। फिर कवि ही ऐसा क्यों कर
रहे थे?'
राजेंद्र
परदेशी जी
का मौन आक्रोश शांत हो गया था। जो बूंद स्वयं ही सागर होने का
भ्रम अपने मन में पाल लेता है, वह सागर की गहराई का अनुमान कैसे लगायेगा।
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संन्यास
और त्याग
गीता में अर्जुन प्रश्न करते हैं कि श्री कृष्ण
को कौन ज्यादा प्रिय है सन्यासी या गृहस्थ? श्री कृष्ण मुसकुराते हुए कहते हैं कि उन्हें
दोनों ही प्रिय हैं। जिनका चित्त सन्यास में है उसे सन्यासी बनना चाहिये और जिनका
झुकाव गृहस्थी की तरफ है उसे त्याग की भावना के साथ गृहस्थ बनना चाहिये। प्रस्तुत
प्रसंग कृष्ण के इसी कथन को स्पष्ट करता है। भगवद्गीता में आंतरिक वैराग्य,
'त्याग' और बाहरी त्याग 'संन्यास' के बीच किये गये अंतर के महत्व को बड़ी
सरलता से सामने लाती है।
दो घनिष्ठ मित्रों, निर्मल और केशव में गहरी आध्यात्मिक आकांक्षा थी। एक
दिन, चिंतन-मनन के बाद उन्होंने दुनिया त्याग कर संन्यासी
बनने का फैसला लिया। कुछ समय साथ-साथ घूमने और विचार करने के बाद उन्होंने
अलग-अलग अकेले ही आगे बढ़ने का फैसला किया।
निर्मल ने अपना
नया नामकरण किया, निर्मलानंद
और लंबे समय के पश्चात भिक्षाटन करता किसी
अमीर आदमी के द्वार पर पहुंचा। जब घर का मालिक खाना लेकर बाहर आये, तो निर्मलानंद को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह अमीर आदमी उनका पुराना दोस्त
केशव ही था। अमीर केशव, अपने संन्यासी दोस्त निर्मलानन्द को
देखकर खुश हुआ और उससे कुछ दिनों के लिए अपने घर में रहने का अनुरोध किया। लेकिन
निर्मलानंद अपने मित्र की वर्तमान स्थिति से खुश नहीं था। उसे लगा कि केशव का पतन
हो गया है। निर्मलानंद ने तिरस्कार और दुखी होकर पूछा,
"केशव तुम्हें यह क्या हुआ? संन्यास का पवित्र व्रत लेने
के बाद तुम संसार के इस सागर में क्यों गिर गये!"
केशव ने अपनी कथा
सुनाई, "अपने अलग होने के बाद, मेरी मुलाक़ात एक संत से हुई।
उन्होंने कुछ देर तक मेरी आँखों में झाँका
और कहा, 'युवा संन्यासी, इस जन्म में तुम्हारे कर्म संन्यासी जीवन के लिए नहीं हैं। आध्यात्मिक
जीवन में प्रगति के लिए दुनिया पर विजय प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है।
अपने घर वापस जाओ और गृहस्थ बनो। कुरूक्षेत्र के दिव्य सारथी द्वारा दिखाये गए
मार्ग का अनुसरण करो।' मुझे महसूस हुआ मानो
भगवान स्वयं उनके माध्यम से बात कर रहे हों। मैं अपने घर वापस चला गया। मैं नौकरी
में लग गया और एक अमीर व्यवसायी व्यक्ति की इकलौती बेटी से विवाह कर लिया। एक दिन
एक दुखद दुर्घटना में उनकी अचानक मृत्यु हो गई और मुझे उनके विशाल व्यापारिक
साम्राज्य की देखभाल करनी पड़ी। लेकिन, जैसा कि ऋषि ने मुझसे
कहा था, मैं अपने जीवन को, गीता के कर्म योग की भावना से
आंतरिक वैराग्य के साथ संचालित करने की पूरी कोशिश कर रहा हूं।"
निर्मलानंद ने
व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ अपने मित्र की ओर देखा और कहा, "केशव तुम अपने आप को
धोखा दे रहे हो। तुम धन और स्त्री की अपनी इच्छा पर काबू नहीं पा रहे हो और जब उस
छद्म साधु ने तुम्हारी दबी हुई इच्छाओं के अनुकूल कुछ कहा, तो
तुम्हें गिरने का औचित्य मिल गया और अपनी इच्छायें पूरी करने उसी संसार में चले गये। तुम कहते हो
कि तुम इसे आंतरिक वैराग्य के साथ कर रहे हो! क्या तुम अभी अपनी सारी संपत्ति,
पत्नी और बच्चों को त्याग कर फिर से संन्यासी बन सकते हो?” केशव ने कहा, "हां, चलो
चलें।" और तुरंत केशव सब कुछ त्याग कर संन्यासी बन निर्मलानंद के साथ चल
दिये। दोनों पुराने दोस्त कुछ समय फिर साथ-साथ घूमे लेकिन और फिर अलग हो गए। जाते
समय, निर्मलानंद ने केशव से कहा, "संन्यास के अपने महान और पवित्र जीवन के प्रति वफादार रहना और संसार में
वापस न आना।"
कई वर्षों बाद
निर्मलानंद, एक
राजकुमार द्वारा संन्यासियों के लिए बनवाई गई एक धर्मशाला में भोजन कर रहे थे। जब
वह जाने ही वाले थे, एक लंबा युवा राजकुमार निर्मलानंद के
पास आया और कहा, "श्रद्धेय महाशय, मैंने अपने गुरु के निर्देशन में आप जैसे संन्यासियों के लिए यह धर्मशाला
बनवाई है। मेरे गुरु आपसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि वे आपको जानते हैं।
क्या आप कृपया मेरे साथ आ सकते हैं?" यह सोचकर कि वह
कौन हो सकता है, निर्मलानंद उन के साथ चल पड़े। राजकुमार उसे एक बड़े भव्य कमरे के
द्वार पर ले गया। राजकुमार ने कहा, "मेरे गुरु इस कमरे
में आराम कर रहे हैं। आप अंदर जा सकते हैं।"
जैसे
ही निर्मलानंद कमरे में दाखिल हुए और गुरु के सामने खड़े हुए, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ
कि यह उनका दोस्त केशव है, जो एक नरम बिस्तर पर आराम से लेटा
हुआ है। उसके पास एक बड़ी मेज पर कई प्रकार के फल, पेय और
मिठाइयाँ रखी हुई हैं। केशव अपने बिस्तर से उठे और गर्मजोशी से निर्मलानंद को गले
लगाया और नरम कोमल आवाज में कहा, "मेरे प्यारे दोस्त,
तुम कैसे हो? मैं संन्यास की अग्नि में शुद्ध
आपके शरीर के स्पर्श से पवित्र महसूस कर रहा हूं।"
लेकिन निर्मलानंद
ने उसे जोर से धक्का दिया और कठोर स्वर में कहा, "मुझे मत छूओ, पाखंडी।
तुमने मुझे क्यों बुलाया? संन्यास के पवित्र व्रत को तुमने फिर
अपवित्र किया है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि संन्यास केवल एक पीला वस्त्र नहीं है,
जिसे तुम अपनी इच्छानुसार पहन सकते हो या फेंक सकते हो।"
केशव ने शांत भाव
से उत्तर दिया, "मैं देख रहा हूं कि तुम मुझसे बहुत नाराज हो। मैं तुम्हारे साथ कुछ दिन
बिताना चाहता हूं। तुम कृपया मेरी आगे की कहानी सुनो। हमारे अलग होने के कुछ महीने बाद मैं एक पेड़
के नीचे बैठा था और त्याग, आंतरिक वैराग्य और संन्यास,
बाहरी त्याग के बीच गीता में बताये
गये अंतर पर विचार कर रहा था। उसी समय, यह युवा
राजकुमार आया और उसने कर्म योग पर गीता के बारे में कई प्रश्न पूछे। हमने इस विषय
पर लंबी चर्चा की। मैंने इस विषय पर उनके सभी संदेहों का समाधान किया। इसके अंत
में उन्होंने पूछा, 'स्वामीजी, क्या आप
वास्तव में सोचते हैं कि हम शक्ति और धन के मध्य रहते हुए पूर्ण आंतरिक वैराग्य की
स्थिति में रह सकते हैं?' मैंने अनुभव से उत्पन्न एक निश्चित
आंतरिक विश्वास के साथ कहा, "हां, मुझे लगता है कि यह संभव है", राजकुमार ने कहा,
'आप एक संन्यासी हैं जिसने दुनिया को त्याग दिया है, लेकिन आप आंतरिक वैराग्य पर विश्वास के साथ बात करते हैं। आपके विश्वास का
आधार क्या है? क्या आपका का कोई आंतरिक अनुभव है?' मैंने उन्हें अपना पिछले सन्यास का इतिहास सुनाया।”
उसने ध्यान से
सुना और मुस्कुराते हुए कहा, 'स्वामीजी, मुझे लगता है कि
आप ही वह व्यक्ति हैं जिसकी मैं तलाश कर रहा हूं और उन्होंने बताया कि वे कौन थे
और अपने परिवार के बारे में बताया; वह एक राजघराने का
राजकुमार था। उनके पिता और परिवार के अधिकांश सदस्य आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे।
वे एक कुल-गुरु की तलाश में थे जो उनकी आध्यात्मिक खोज में उनका मार्गदर्शन कर
सके। कुछ दिन पहले, उन्हें एक सपना आया जिसमें
कुलदेवता-परिवार की देवी ने उन्हें एक युवा संन्यासी की तलाश करने के लिए कहा,
जिसके पास सांसारिक अनुभव हो और उसे अपने कुलगुरु के रूप में
स्वीकार करने कहा। आपमें हमारे कुलदेवता द्वारा बताये गए सभी लक्षण और हमारे
कुलगुरु बनने के लिए आवश्यक सभी गुण हैं' राजकुमार ने कहा और
पूछा 'क्या आप हमारे गुरु बनेंगे और हमें चेतना की उस स्थिति
को प्राप्त करने में मदद करेंगे जो आपने हासिल की है?'
"मुझे लगा कि इसके पीछे भगवान की इच्छा है और मैंने उनका अनुरोध स्वीकार कर
लिया। लेकिन मैं इन चीजों से जुड़ा नहीं हूं, जिनका मैं अभी
आनंद ले रहा हूं। यदि आप मुझे फिर से आपके साथ आने और तीसरी बार संन्यासी बनने के
लिए कहें, तो मैं ऐसा कर सकता हूं। बिना ज़रा भी झिझक और
बिना पीछे मुड़े तुम्हारे साथ इस महल से बाहर चल सकता हूँ।”
निर्मलानन्द विचारमग्न हो गये। कुछ
मिनटों की चुप्पी के बाद, उन्होंने कहा, "मुझे विश्वास है कि तुम
जो कह रहे हो वैसा कर सकते हो। तुम्हारा कर्म त्याग के लिए है, संन्यास के लिए नहीं। तुमने पूर्ण त्याग
प्राप्त कर लिया है, तुम ही सच्चे संन्यासी हो, जो धन
और विलासिता के बीच भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र और अनासक्त रह सकते हो, जब वे अपने जीवन के दौरान या अपने कर्म के
हिस्से के रूप में उसके पास आते हैं तो उनका आनंद लेते हो और जब वे जाते हैं तो
उन्हें उसी आंतरिक वैराग्य के साथ से जाने देते हो। तुम धन्य हो।“ |
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