मनुष्य की
महानता इसमें नहीं है कि वह क्या है,
बल्कि इसमें है
कि वह किसे सम्भव बनाता है।
श्रीअरविंद
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नववर्ष 2025 के आगमन पर
हार्दिक बधाई
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आदर्श नागरिक
विश्व
की कुछ एक प्राचीन सभ्यताओं में एक ग्रीक सभ्यता का नाम बड़े आदर से लिया जाता है।
ग्रीक सभ्यता, यूनान और उसके आस-पास के
इलाकों में लगभग 1,200 सालों तक रही। ग्रीक सभ्यता ने कई खोजें कीं जिनका आज भी हमारे जीवन पर असर है। उनका भाषा, राजनीति, शिक्षा,
दर्शन, विज्ञान, और कला
के क्षेत्रों में बहुत अहम योगदान रहा। ग्रीक विद्वानों में कुछ-एक जिनके नाम से हम परिचित हैं वे हैं होमर, हेरोडोटस, प्लेटो, अरस्तू इरेटोस्थनीज़, हिपार्कस, पोसिडोनियस, थेल्स, हिकेटियस
आदि। इस सभ्यता की देन आज भी हमारा मार्ग दर्शन करती हैं।
ग्रीक के प्रख्यात
समाजशास्त्रियों ने मानव के व्यवहार और आचार-विचार के गहन अध्ययन के आधार पर यह
बताया कि समाज में तीन प्रकार के लोग होते हैं। इसका सर्वप्रथम उल्लेख जनतंत्र की
अवधारणा और समर्थन करने वाले विद्वानों द्वारा प्राचीन ग्रीस में मिलता है। उनके
अनुसार किसी भी आधुनिक समाज में तीन प्रकार के लोग होते हैं:
१. इडियट्स (idiots) – ग्रीक भाषा में इडियट शब्द का मतलब
है, “अपना” या “निजी”। इसी
से “आम आदमी” और बाद में “अज्ञानी व्यक्ति” का अर्थ आया। 'Idiots' का हिन्दी में अर्थ है - बेवकूफ़, मूर्ख, जड़ बुद्धि, जड़ मति,
पागल, मंदबुद्धि व्यक्ति। इडियट शब्द का मूल
अर्थ 'अज्ञानी व्यक्ति' था। हालांकि, आजकल इसका इस्तेमाल ज़्यादातर ऐसे व्यक्ति
के लिये किया जाता है जिसके पास शिक्षा की कमी है और बुनियादी बुद्धि या सामान्य
ज्ञान की कमी है। ग्रीक विद्वानों के अनुसार इडियट्स का अर्थ मूर्ख, जड़, मंद-बुद्धि या पागल नहीं,
बल्कि उनके अनुसार ये वे लोग हैं जो पूरी तरह निजी,
आत्म-केन्द्रित और स्वार्थी होते हैं। ये लोग सिर्फ-और-सिर्फ अपने बारे में सोचते
हैं, इन्हें अपने भले और सुख की ही परवाह होती है। वे इस
संकीर्ण दायरे से बाहर नहीं निकलते। उन्हें समझ और सामाजिकता का जरा भी ज्ञान नहीं
होता और वे इसकी कोई परवाह भी नहीं करते। इनमें किसी प्रकार का कोई कौशल नहीं होता, नैतिकता नहीं होती, चरित्र नहीं होता, गुण नहीं होता और वे समाज से कट कर रहने वाले लोग हैं। वे समाज को किसी
भी प्रकार का कोई योग दान नहीं देते। अपने निजी विलास, सुख
और सुविधा के अलावा और कहीं उनका ध्यान नहीं होता। ग्रीक समाजशास्त्रियों ने इन्हें
‘जंगली’ लोगों का थोड़ा परिवर्तित और
संवर्धित रूप बताया।
२. ‘ट्राइब्स’ (Tribes) – इसका मतलब है जनजातीय या आदिवासी। जनजाति से जुड़ी चीज़ों या
उनके संगठित होने के तरीके का वर्णन करने के लिए ट्राइबल शब्द का इस्तेमाल किया
जाता है। जनजाति ऐसे लोगों का एक समूह होता है जो एक साथ रहते हैं और एक ही भाषा,
संस्कृति, और इतिहास साझा करते हैं। यह वह सामाजिक
समुदाय होता है जो राज्य के विकास से पहले अस्तित्व में था और आज भी हैं और राज्यों
के बाहर ही रहते हैं। ग्रीक विद्वानों का तात्पर्य कोई विशेष जाति या प्रजाति से नहीं
था बल्कि ये वे लोग हैं जिनकी सोच जनजाति / कबीले के लोगों की तरह होती है। वे
अपने छोटे से संसार में ही रहते हैं जिसका एक छोटा सा समाज होता है, थोड़े से लोग होते हैं। उनका अपना पूर्व निर्धारित क्षेत्र होता है और वे
उसी में रहते, विचरते और उससे चिपके रहते हैं, उसके बाहर नहीं निकलते। उनके अपने देवता ही उनके सर्वशक्तिमान ईश्वर
स्वरूप होते हैं। वे किसी भी प्रकार की अलग, नयी चीजों और
सोच से घबड़ाते हैं। उनके अपने समाज से बाहर के लोग उनके लिए दूसरी ग्रह के लोग
हैं। वे उन्हें शक की नजरों से देखते हैं और वे हर समय इस प्रकार के नए लोगों को पूरी
ताकत, उग्रता और हिंसा से प्रत्युत्तर देते हैं। ग्रीक
विद्वानों ने यह भी बताया कि युद्ध करना इन्हें प्रिय होता है। ये अपने समाज की
दुनिया से बाहर नहीं निकलते, अलग-थलग रहते हैं, बाहर के सभ्य समाज
से न कोई इनका सरोकार होता है और न ही कोई संपर्क।
३. सिटिज़न (Citizen) – सिटीजन का
मतलब है नागरिक यानि किसी देश का कानूनी रूप से संबंधित
व्यक्ति। नागरिक शब्द के अन्य अर्थ हैं निवासी, नगरवासी, स्थानीय-निवासी, आदि।
ग्रीक विद्वानों ने नागरिक शब्द का इस्तेमाल उस
व्यक्ति के लिए किया जो किसी देश के प्रति निष्ठा रखता है और उसके संरक्षण का
हकदार है। उसे अपने समाज, नगर, देश की तरफ़ से कुछ अधिकार मिलते हैं उसे अपने
कर्तव्य निभाने का एहसास होता है। वह अपने अधिकारों का प्रयोग उन कर्तव्यों को
निभाने के लिये करता है। इस संदर्भ में नागरिक का अर्थ कानूनी या राजनीतिक नागरिक
से नहीं है। ये आदर्श व्यक्ति होते हैं। ये आदर्श व्यक्ति ही सच्चे अर्थों में
नागरिक हैं।
नागरिक का अर्थ कानून या राजनीतिक नागरिक
नहीं बल्कि विचारों से नागरिक होना है। ये नागरिक वे व्यक्ति हैं जिनमें सार्वजनिक
तौर पर रहने का ज्ञान और समझ होती है। वे यह जानते हैं कि वे समाज के एक सदस्य हैं
और इसलिये वे सबों की भलाई के लिए जीते हैं। वे अपने अधिकार ही नहीं दूसरों के
अधिकार और पसंद को भी समझते हैं। वे जैसे अपने अधिकारों के प्रति सजग होते हैं
वैसे ही अपने कर्तव्यों और उत्तरदायित्वों को भी समझते और उनका भी भली भांति निर्वाह
करते हैं। अपने पड़ोसियों का और अल्पसंख्यकों का भी ख्याल रखते हैं। वे अपने आपसी मतभेदों
को भी सभ्य तरीके से निपटा लेते हैं। ये ही वे लोग हैं जो एक सभ्य समाज का निर्माण
और संरक्षण करते हैं। वे एक ऐसे समाज का निर्माण करते हैं जिसे सही अर्थों में एक
सभ्य समाज कहा जाता है। एक ऐसा समाज जहां सब एक दूसरे के परिचित होते हैं, मित्र होते हैं उनमें
मित्रता होती है।
प्राचीन ग्रीक विद्वानों ने इंसान को इन तीन अलग-अलग समूहों में
बांटा। जाने-अनजाने हर एक मानव यह निर्णय लेता है कि वह इन तीन समूहों में से किस
समूह का इंसान है।
१. केवल अपने
बारे में सोचने वाले मंद बुद्धि का समूह,
२. ट्राइब्स की तरह ज्यादा सोच-विचार करने की
क्षमता से हीन सिर्फ और सिर्फ अपने समूह में और उसी दायरे में रहना, या
३. एक सभ्य समाज में विश्व में माने जाने वाले
सभ्य नागरिक की तरह।
हमें भी यह निर्णय लेना है कि इन तीनों में हम कैसा समाज, कैसा शहर, और कैसा देश चाहते
हैं? और क्या हम वैसे बन रहे हैं?
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असहयोग
(तत्कालीन काँग्रेस की बैठक में अपने ‘असहयोग’
आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृत कराने के लिए गांधी ने बड़ी मेहनत की और प्रस्ताव को
बड़े ज़ोरदार और तार्किक ढंग से पेश किया। ‘गांधी-मार्ग’ पत्रिका ने उनके प्रस्तावों, तर्कों और शंका
समाधानों को इतिहास से इकट्ठा कर प्रकाशित किया था। उसी के कुछ अंश आप तक पहुंचा
रहा हूँ। इसकी पहली कड़ी अक्तूबर 2024 में थी, यहाँ उसकी दूसरी
कड़ी प्रस्तुत है।)
विजय के मूलाक्षर : मैं भारत के एक सिरे से
दूसरे सिरे तक इसी बात का पता लगाता घूम रहा हूं कि लोगों में सच्ची राष्ट्रीय भावना
आई है या नहीं, लोग राष्ट्र की वेदी पर
अपना सर्वस्व बलिदान करने को तैयार हैं या नहीं? और यदि कुछ लोग भी बिना कुछ बचाये रखे अपना सब कुछ होम देने
को तैयार हों तो इसी क्षण मैं स्वराज्य
आपके हाथ में रखवा देने को तैयार हूं। इतना त्याग करने को लोग
तैयार हैं? पदवीधारी अपनी पदवियां और सम्मान के पदों को छोड़ देने को तैयार
हैं? मां-बाप देश की लड़ाई लड़ने के लिए अपने बच्चों की किताबी शिक्षा का बलिदान करने
को तैयार हैं? मैं तो कहता हूं कि जब तक हम यह मानते रहेंगे कि जो स्कूल-कॉलेज सरकार
के लिए क्लर्क बनाने के कारखाने मात्र हैं, उनमें बच्चों को न भेजने से हम बच्चों की
शिक्षा की बलि करते हैं, तब तक स्वराज्य हमसे सैकड़ों कोस दूर है। अन्य
राष्ट्रों के हाथों दबी हुई कोई भी जनता एक तरफ उसकी मेहरबानी स्वीकार करती रहे और
दूसरी ओर शासक जनता पर जो बोझ और जिम्मेदारी डाले उन्हें वह हटाती रहे, यह नहीं हो
सकता। विजेताओं की तरफ से होने वाली कोई मेहरबानी विजित जाति
के कल्याण के लिए नहीं, परंतु शासकों के लाभ के लिए ही होती है, यह बात जिस क्षण किसी
भी पराधीन जाति को समझ आ जाती है, उसी क्षण वह जाति शासकों को
हर प्रकार की स्वेच्छापूर्ण सहायता देना बंद कर देती है और किसी प्रकार की सहायता लेने
से साफ इनकार कर देती है। हमारी आजादी के लड़ाई की जीत के ये
मूलाक्षर हैं।
इज्जत-आबरू के लिए : मैं चाहता हूं कि मेरे
देश-बंधु मेरी यह बात अच्छी तरह समझ लें, और यदि यह बात उनके गले न उतरी हो तो मेरा
प्रस्ताव नामंजूर कर देना ही उनका कर्त्तव्य होगा। एक तरफ पंजाब
और सारे भारत की इज्जत और दूसरी ओर भारत में कुछ समय तक अंधेर, लड़कों की शिक्षा की
बरबादी, अदालतों और धारासभाओं की बंदी और ब्रिटिश संबंध का त्याग - इनके बीच चुनाव
करना पड़े, तो भी पंजाब और भारत का सम्मान और उसके साथ आने वाली अराजकता और स्कूलों,
अदालतों वगैरह के बंद होने और इनके साथ जुड़ी हुई तमाम व्यवस्था का जरा भी आनाकानी
किए बिना स्वागत करूंगा। आपका जी भी उतना ही
जल रहा हो, आप भी इस्लाम की इज्जत अक्षुण्ण रखने को मेरे जितने ही उत्सुक हों, पंजाब
की इज्जत निष्कलंक करने को तड़प रहे हों तो बिना संकोच के आपको यह प्रस्ताव मंजूर कर
लेना चाहिये।
धारासभाओं का बहिष्कार : परंतु इतना ही काफी
नहीं है। मुद्दे की असल बात पर तो अभी तक मैं आया ही नहीं। वह बात यह है कि उम्मीदवार तथा मतदाता धारासभाओं का पूर्ण बहिष्कार
करें इस समय यही मुद्दे का प्रश्न हो गया है। धारासभाओं द्वारा
स्वराज्य मिलेगा या धारासमाओं का त्याग करके मिलेगा? क्या सचमुच धारासभाओं द्वारा स्वराज्य
लेने की बात में लोगों को विश्वास है?
स्वदेशी: मैं अवश्य चाहता हूं कि लोग
विदेशी माल का बहिष्कार करें, परंतु मैं यह भी जानता हूं कि इस समय यह बात नहीं हो
सकती। जब तक हमें सूई-कांटे के लिए भी विदेशों का मुंह ताकना
पड़ता है, तब तक विदेशी माल का बहिष्कार असंभव है। परंतु यदि
आप लक्ष्य तक पहुंचने को अधीर हो गए हों और कोई भी कुर्बानी करने को तैयार हों, तो
मैं स्वीकार करता हूं कि विदेशी माल का बहिष्कार करते ही पलक मारते भारत अपनी आजादी
प्राप्त कर सकता है। इसलिए मैंने आनाकानी किए बिना अपने प्रस्ताव
में किया गया संशोधन स्वीकार कर लिया। मुझे तो लोगों के आगे व्यावहारिक
कार्यक्रम रखना है और मैं सहज ही स्वीकार कर लेता हूं कि यदि
हमसे विदेशी माल का बहिष्कार हो सके तो वह जबरदस्त चीज है। ऐसा
बहिष्कार और स्वराज्य दोनों आपको पसंद हों तो प्रस्ताव के अंतिम पैरे में उनका उल्लेख
किया है।
मैं आपसे इस मामले पर खूब
गहरा विचार करके मत देने का अनुरोध करता हूं। उसमें आप मेरा ख्याल
न करें। मैंने देश की सेवाएं की हों तो उनका ख्याल बीच में न
आने दीजिए। यहां उनका मूल्य नहीं हो सकता। मेरा
यह जरा भी दावा नहीं है कि मैं जो कार्यक्रम देश के सामने रखूं, वह भूल रहित ही होगा। मैं इतना ही दावा करता हूं कि मैंने यह कार्यक्रम तैयार करने में
बहुत मेहनत की है, खूब विचार किया है और इस निश्चय पर पहुंचा हूं कि जो व्यावहारिक
हो वही कार्यक्रम तैयार किया जाए। इन दो बातें का आप अवश्य ध्यान
रखें। आपके पास काम करने वाली संस्था भी मौजूद है। फिलहाल यह तरीका तय करते हुए, विचार करने के लिए ही सही, कार्यक्रम
को प्रत्यक्ष स्वीकार करने वाले हजारों अनुयायी आपके साथ खड़े हैं। (नवजीवन,
19.09.1920)
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बुझते दीपक का सन्देश
दीपक
का तेल चुक गया था। केवल रूई की बाती जल कर मन्द-मन्द प्रकाश बिखेर रही थी। उसके
अन्तिम समय को निकट आया देख कर एक गृहस्थ ने पूछ ही लिया- 'तुम जीवन-भर आलोक बिखेर कर दूसरों का पथ-प्रदर्शन करते रहते हो, संसार के साथ इतनी भलाई करते रहते हो, फिर भी
तुम्हारा इस प्रकार दुःखद अन्त देख कर मेरा हृदय विदीर्ण हुआ जा रहा है।'
बुझते
दीपक ने पूर्ण शक्ति के साथ अन्तिम बार अपनी आभा बिखेरते हुए कहा- 'भाई ! इस भौतिक जगत् में जिसका जन्म होता है, उसका
अन्त भी होता है। हम प्रयास करने पर भी उससे बच नहीं सकते। हाँ, इतना अवश्य कर सकते हैं कि अपने जीवन की मूल्यवान् घड़ियों को व्यर्थ ही
नष्ट न होने दें।'
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