शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

सूतांजली अगस्त 2025

 




... यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था।

लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

तो आजादी चरखे से नहीं आई,

उस सैलाब से आई !

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सुनो-सुनो,

आजादी चरखे से नहीं आई !

          हाँ, यह सच है कि आजादी चरखे से नहीं आई!

          यह उस सैलाब से आई जो उस चरखे ने लाई।

          आज (2024 में) देश में 1330 जेलें हैं जिनमें 5.25 लाख कैदी बंद हैं। यह हाल तब है जब उनमें अपनी क्षमता से दो-तीन गुना ज्यादा कैदी बंद हैं। 1920 में या 1940 में देश में कितनी जेलें होंगी? उन जेलों की क्षमता कितनी होगी? तब देश की जनसंख्या कुल 32 करोड़ थी। अगर उनमें से 1% लोग भी जेल जाने को तैयार हो जाते तो 32 लाख लोग जेलों में बंद होते। जेल मुफ्त छात्रावास की तरह होते हैं। आपका खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, दवा-दारू सब की जिम्मेदारी सरकार की होती है। फिर भी कोई जेल जाना नहीं चाहता है क्योंकि जेल जाने से नहीं, डर लगता है जेल जाने का ठप्पा लगने से! इधर ठप्पा लगा और उधर सारा मान-सम्मान चला गया! इसलिए जेल डराती है। पर हुआ ऐसा कि उस बूढ़े ने हवा ही बदल दी : जेल जाना इज्जत की बात बना दी! हाल यह है कि जिनके दादे-परदादे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, कभी जेल गए थे, उनके वंशज आज भी उनका नाम सीना फुलाकर बताते हैं। तो यह गांधी की करामात थी, जिसने उस दौर में आम आदमी का जेल जाना इज्जत का सबब बना दिया। ऐसा क्यों किया उन्होंने? इसलिए कि वे भारत के मन से भय निकालना चाहते थे, अंग्रेजी आतंक का गुब्बारा फोड़ना चाहते थे। इसलिए जेलें भरना चाहते थे।

          भारतीयों में यह जज्बा जगाने के लिए गांधी स्वयं जेल जाते रहे। कांग्रेस का हर बड़ा नेता जेल जाता रहा। जेल नहीं गए तो कैसे नेता हो जी! लेकिन जेल जाने के लिए अपराध भी तो करना चाहिए! कैसा अपराध करें? थाने जलाएं, कलक्टर, एसपी, पटवारी को मारें? अरे नहीं, गांधी ने कहा नमक कानून तोड़ो; गली-गली, चौक-चौराहे नारे लगाओ, तिरंगा फहराओ! गिरफ्तार हो जाओ। सरकारी धाराओं का उल्लंघन करो, राजद्रोही भाषण दो, पर्चे लिखो, अखबार चलाओ, गिरफ्तार हो जाओ। शराब की दुकानें खुलने मत दो, मार खाओ, गिरफ्तार हो जाओ। इन सबके बीच पवित्र अहिंसा का संदेश, आपके अपराध को जघन्यता की तरफ न जाने देने के लिए था। यह अंग्रेजों का नहीं, आपका सुरक्षा चक्र था। क्योंकि जहां आप जघन्यता की तरफ बढ़े, फंसे। अंग्रेज़ तो चाहते ही थे कि आप जघन्यता की तरफ बढ़ें।  आप मारें, तो वे भी मारें।

          और चरखा? मन मजबूत करने का तार बुनता था। सुबह बैठकर प्रार्थना करते हैं, तो ईश्वर को समीप पाते हैं। फिर वह दिन भर साथ रहता है। वह आपकी मानसिकता (साइकोलॉजी) में बैठा रहता है और आपको संबल प्रदान करता रहता है। ऐसा ही चरखा भी था। सुबह चरखा चलाइए, गांधी आपके समीप आ जाएंगे। आजादी का जज्बा भीतर बैठ जाएगा। आप हर वक्त अंग्रेजों की न-कार और राष्ट्रभाव के स-कार में रहेंगे। चरखा द्रोण की मूर्ति बन गया। आप एकलव्य की तरह, हर पल आजादी के संधान का अभ्यास करेंगे। लिखने, बोलने, प्रदर्शन में जाने, पिटने, जेल भरने को तैयार होंगे, क्योंकि चरखा साथ  है। देश में करोड़ों लोग चरखा चला रहे थे, वे कपड़ा नहीं बना रहे थे भाई साहब, वे तकली के हर घुमाव के साथ अपने भीतर स्टील के तार बुन रहे थे। 1942 में क्या देखा कि देश के कोने-कोने से गांधी निकल आए : बलिया के गांधी, गया के गांधी, पटना के गांधी, मुंबई के गांधी, मद्रास के गांधी, केरल के गांधी... कोई गांव-शहर-प्रदेश बचा नहीं जिसके पास अपना गांधी नहीं था। जिसके सिर पर सफेद टोपी, वही गांधी। कहीं कोई भटका, लड़खड़ाया तो मोहनदास गांधी तो मौजूद ही था।

          इस जन सैलाब के सामने अंग्रेज़ एक ही दीवार खड़ी कर सकते थे - सेना की दीवार! लेकिन उस दीवार में स्पष्ट दरारें पड़ने लगी थीं। अंग्रेजों और उनके वफादार भारतीय सैनिकों के बीच की डोर जगह-जगह टूट गई थी। आजाद हिंद फौज के अफसरों पर लाल किला का मुकदमा उलटा पड़ा था।  नेवी का विद्रोह व्यापक ही नहीं था, गहरा भी था। जब बांध दरकने लगे, और पीछे खड़े सैलाब की ताकत का आपको अंदाजा हो, तो आप क्या करेंगे? भाग खड़े होंगे। अंग्रेजों ने भी यही किया भाग खड़े हुए! यह वह सैलाब था जो वर्षों की मेहनत से, खुद को तिल-तिल जलाकर, भारत मां के कितने ही नवजवानों को घिस-मांज कर गांधी ने रचा था। यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था। लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

          तो आजादी चरखे से नहीं आई, उस सैलाब से आई! आप समझ सकें तो समझिए कि गांधी का चरखा.. कपड़ा नहीं बुनता था जनाब.. वह सैलाब बुनता था।

(गांधी मार्ग से)

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जिस सैलाब कि हम बात कर रहे हैं क्या आप उसे समझ पा रहे हैं, उसका उफान! उसकी तीव्रता! उसका जोश! और उसकी हुंकार! गांधी के समय में तो हम थे ही नहीं। लेकिन क्या आपको सम्पूर्ण क्रान्ति या 'जेपी आन्दोलन' या 'बिहार आन्दोलन', ध्यान में है? उस समय तो आप भी मौजूद थे। यह सन १९७४ में बिहार में छात्रों द्वारा आरम्भ किया गया एक आन्दोलन था जो इस राज्य के कुशासन एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध था। इसका नेतृत्व महान गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने किया। वैसे तो इसका असर पूरे देश में था लेकिन सैलाब बिहार ने ही देखा था। इस सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।

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खुदा-न-खस्ता अगर आप उस समय भी नहीं थे तो 2011 में तो थे! जन लोकपाल विधेयक के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे  के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ। इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। १६ अगस्त को अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया। किंतु इससे आंदोलन पूरे देश में भड़क उठा। देश भर में अगले १२ दिनों तक लगातार बड़ी संख्या में धरना, प्रदर्शन और अनशन आयोजित किए गए। अंततः संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद २८ अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की। इस आंदोलन में देश भर के युवाओं ने जोश-खरोश से हिस्सा लिया और अन्न हज़ारे को “आज का गांधी” कहा।

          इन दोनों सैलाबों में आपको गांधी के सैलाब की एक झलक दिख जाएगी। इन दोनों में एक समानता थी, ये दोनों ही आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित थे। यानि गांधी के बाद भी लोगों ने अहिंसा की ताकत को पहचाना और उसे हथियार बनाया।

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मेरा देश महान

 

भइया! मेरा यह गट्ठर मेरे सिर पर रख दो', मुम्बई महानगरी की एक सड़क के किनारे एक बुढ़िया लकड़ियों के एक गट्ठर के पास खड़ी उधर से गुजरने वालों से यह निवेदन कर रही थी। किंतु उसकी ओर देखकर सब आगे बढ़ जाते। कुछ तो मुंह बिचकाते हुए निकलते। काफी समय निकल गया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। सूर्यास्त हो चुका था, बुढ़िया को घर पहुंचने और भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने की चिंता भी सता रही थी। अचानक उसने देखा पैंट-कोट पहने, टाई लगाए एक सज्जन उसी की तरफ आ रहे हैं। बुढ़िया कातर दृष्टि से उनकी तरफ निहारने लगी। जब वह पास से गुजरने लगे, तब बुढ़िया ने उनसे भी यही निवेदन करना चाहा, किंतु संकोच के कारण उसका उठा हुआ हाथ नीचे आ गया और खुला मुंह बंद हो गया। उन सज्जन को लगा कि बुढ़िया उनसे कुछ कहना चाहती है। वह पीछे मुड़े और बोले, माँ!क्या कुछ कहना चाहती हो?’ यह आत्मीय संबोधन सुनकर बुढ़िया की आंखों में आंसू आ गए। सज्जन ने कहा, मां! रोओ मत, यदि पैसे की जरूरत हो तो...। बुढ़िया आंसू पोंछते हुए बोली, 'नहीं बाबू! मुझे पैसे नहीं चाहिए। मैं तो यहां से गुजरने वालों से लकड़ियों यह गट्ठर अपने सिर पर रखने का निवेदन कर रही थी। किसी ने सहायता नहीं की। आपने मेरे कुछ कहे बिना ही मां कहकर मुझ से पूछा इसलिए आंखों में आंसू आ गए।' उन्होंने लकड़ियों का गट्ठर उठाकर बुढ़िया के सिर पर रख दिया। बुढ़िया ने रुंधे कंठ से कहा, ‘तुम बड़े महान हो बेटा, भगवान तुम्हारा कल्याण करें और वह अपने रास्ते पर चल पड़ी। वह सज्जन थे, मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे।



किसी भी देश को महान बनाने में सबसे अहम भूमिका वहाँ के नागरिकों की ही होती है। महान नागरिक बनिए, देश को महान बनाइये।   

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यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/yJ032kHK3iY

सूतांजली अगस्त 2025

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