समझदारी
सड़क किनारे खड़ी है,
हम सबों को खुलेआम
पुकारती है,
लेकिन
हम उसे एक भ्रम समझकर
नजरंदाज कर बैठते हैं।
खालील जिब्रान
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तब! .... कब? ....
मान लीजिए आप किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच
जाते है जहाँ के लोग नहीं मानते कि दो और दो चार होते हैं। उनमें से कुछ का कहना है
कि दो और दो तीन होते हैं लेकिन कुछ कहते हैं पाँच। कुछ औरों के विचार से दो और दो
सात होते हैं। और कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि अभी किसी को भी नहीं पता कि दो और
दो कितने होते हैं। इस पर विद्वानों को कहना है कि अभी इस पर गहन अनुसंधान करने की
ज़रूरत है। लेकिन कट्टरपंथी तो यह फरमान निकाल देते हैं कि जब तक अनुसंधान पूरा न
हो जाये तब तक किसी को भी दो और दो के योग के बारे में अपनी राय नहीं देनी चाहिये।
और प्रशासन इस पर कठोर कानून बना देता है।
ऐसे लोगों के बीच अपने आपको पाकर आप
क्या करेंगे? क्या आप नारेबाज़ी करेंगे? संगठन
बनाकर आंदोलन करेंगे, हड़ताल करेंगे और जुलूस निकलेंगे?
धरना देंगे? इश्तहार निकालेंगे? सत्ता दल से मिलकर संसद में बिल पास करवाएँगे, या
उच्चतम न्यायालय के पास जाएंगे? या फिर........ या फिर आप
शांत भाव से, पूर्ण आत्मविश्वास से अपनी बात कहते रहेंगे इस आशा के साथ कि शायद उन लोगों के बीच कभी कुछ ऐसे व्यक्ति
निकलें जो समझ सकें कि दो और दो वास्तव में चार होते हैं।
भारतीय चिंतन के विषय में ऐसा ही
दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। भारतीय चिंतन को बिना साधना के नहीं समझा जा सकता। यह
चिंतन अवश्य ही शब्दों में प्रकट किया गया है क्योंकि देश और काल के अंतराल में
संप्रेषण के लिए शब्दों के सिवाय और कोई चारा नहीं है। पर शब्द सत्य का केवल
संकेतभर करते हैं, शब्द
स्वयं सत्य नहीं है। शब्दों
की अपनी सीमाएं हैं। शायद इसी कारण हजारों वर्ष तक ऋषियों ने कभी भी अपने चिंतन को
लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं किया, वे श्रुति और स्मृति में ही रहे। कुछ लोग भारतीय चिंतन के किसी पक्ष के
कुछ शब्दों को लेकर आग्रही हो जाते हैं कि उनके पास ही भारतीय चिंतन का संपूर्ण
सत्य है। वे यहाँ-वहाँ से उद्धरण देते हैं, जोशीली बहस करते
हैं और औरों को अपने मत का अनुयायी बनाने का भरसक प्रयत्न करते हैं।
ज्यों-ज्यों आप सत्य के निकट पहुँचते
जाएँगे, त्यो-त्यों आपको शब्दों की सीमा का आभास होता
जाएगा। आप स्पष्ट देखने लगेंगे कि शब्दों में बहस करने से आप सत्य नहीं जान सकते
क्योंकि शब्द और भाषा स्वयं विशाल सत्य के बहुत छोटे से अंश हैं। सत्य को जानने के
लिए आपको अपने अंदर की शांत गहराई में जाना होगा जहाँ शब्दों का जन्म होता है। ताओ
ने कहा है कि सत्य कहा नहीं जा सकता, जैसे ही आप सत्य कहने
का प्रयास करते हैं, कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ छूट जाता है या
जुड़ जाता है। इसमें कठिनाई होती है। जिन व्यक्तियों ने कभी अपनी आँखें बंद करके
ध्यान का अभ्यास नहीं किया है उनके लिए यह जानना कठिन है कि मनुष्य का वास्तविक
जीवन उसके अंदर से नियंत्रित होता है। हमारी सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का स्रोत विभिन्न मनुष्यों के अंदर विद्यमान
अनुभूतियों और उनसे नियंत्रित विचारों में है। उस आंतरिक जगत को जानकर ही हम बाहरी
जगत् की समस्याओं को समझ और सुलझा सकते हैं।
आपके चारों ओर बहस और नारेबाज़ी का
वातावरण बना रहा रहेगा। आप उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं कर सकते। पर यदि आप
जानते हैं कि आप सही राह पर हैं तो आप बिना परेशान हुए अपना काम करते रहेंगे, वैसे ही जैसे यदि आप अपने आपको ऐसे लोगों से घिरा
पाएँ कि जो मानने को तैयार नहीं हैं कि दो और दो चार होते हैं। आप परेशान नहीं
होंगे क्योंकि यदि लोगों में सत्य को जानने की चाह है तो किसी-न-किसी दिन वे जान
लेंगे कि दो और दो चार होते हैं। आप स्थिर भाव से औरों तक अपने विचार पहुँचाने का
प्रयास करते रहेंगे, और सदा शान्त और प्रसन्न रहेंगे।
सत्य के कारण गैलीलियो को उसी के घर में
मृत्यु पर्यंत नज़रबंद कर दिया गया, ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ा दिया गया और मीरा को जहर का प्याला पीना पड़ा।
लेकिन वे सत्य जानते थे और उसे दोहराते रहे। शांत और प्रसन्न रहे।
लेकिन यह तब, जब आप जानते हों कि दो और दो चार होते हैं।
(अनिल विद्यालंकार के लेख पर आधारित)
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