शुक्रवार, 1 नवंबर 2024

सूतांजली नवंबर 2024

 



मानवता में कुछ गिने चुने, थोड़े से व्यक्ति

शुद्ध सोने में बदलने

के लिए तैयार हैं और

ये बिना हिंसा के शक्ति को,

बिना विनाश के वीरता को और

बिना विध्वंस के साहस को

अभिव्यक्त कर सकेंगे। 

श्री मां 

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द्विवेदी जी की शर्त

आज हम एक विकट समस्या से जूझ रहे हैं। चिंतन-मनन करने वाले लोग लुप्त होते जा रहे हैं और इनकी जगह ले रहे हैं अपने मुंह मिट्ठू मियां। कहीं  से भी किसी भी प्रकार उपाधियाँ जमा कर लिये, डॉक्टरेट की उपाधियाँ और सम्मान खरीद लिये और सर तान कर निकल पड़े बड़े-बड़े दावे ठोंकने। खुद तो आईना देखते ही नहीं हैं, आईना दिखाने वाले लोग भी नहीं रहे। घिरे रहते हैं चापलूसों से। एक बार सोहन लाल द्विवेदी जी भी फंसे इनके बीच। तब बड़ी होशियारी से उन्हें आईना दिखा ऐसे खिसक लिये –

सन् 81-82 की बात है। बस्ती एक छोटा शहर था, प्रायः सभी प्रमुख लोग एक-दूसरे की गतिविधियों से परिचित थे। एक बार एक स्थानीय पत्रकार अपना एक साप्ताहिक पत्र निकालना चाहते थे और चाहते थे कि उसका लोकार्पण 'चल पड़े जिधर दो पग डग-मग में ...' जैसी प्रसिद्ध कविता के रचयिता पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी के हाथों से हो। वे अपने एक मित्र, राजेंद्र परदेशी जी से अपनी इच्छा व्यक्त की। राजेन्द्र जी के अनुरोध पर पंडित सोहन लाल द्विवेदी आये और उन्हीं के निवास पर ठहरे। साप्ताहिक पत्र का लोकार्पण-कार्यक्रम दस बजे रात्रि से प्रारम्भ होना निश्चित था पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी के आगमन की सूचना स्थानीय एवं बाहर से आये सभी कवियों को मिल चुकी थी। इस कारण अनेक कविगण उनसे मिलने घर पर आ गये।

          पंडित सोहनलाल द्विवेदी के सम्मुख होते ही आगंतुक कवियों ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। फिर कुछ कवियों ने अपनी-अपनी कवितायें उन्हें सुनाने की इच्छा व्यक्त की साथ ही अपने ही मुख से अपनी कविताओं के बारे में यह भी दावा ठोक दिया कि उन्होंने अपनी रचनाओं में बिलकुल नया प्रयोग किया है। आगंतुक कवियों की बात सुनने के बाद पंडित जी ने उनकी कविताएं सुनने के लिए एक शर्त लगा दीउनकी शर्त थी कि जो कवि अपनी कविताएं उन्हें सुनाना चाहता हो, वह अपनी कविता से  पहले पंत, निराला या महादेवी वर्मा की कोई एक कविता सुनाये, फिर अपनी।

          आगंतुक कवि घंटों बैठे रहे इधर-उधर की बातें करते रहे, पर किसी ने अपनी कविता नहीं सुनायी। कवियों से कविता सुनाने के लिए पंडित सोहनलाल द्विवेदी जी की शर्त राजेंद्र परदेशी को  ठीक नहीं लगी थी।

          साप्ताहिक पत्र का लोकार्पण कार्यक्रम सम्पन्न होने के पश्चात् उपस्थित जनसमुदाय के अनुरोध पर पंडित जी ने अपनी कवितायें भी सुनायीं फिर राजेंद्र जी के साथ घर लौट आये। रात भोजन के उपरांत बोले, 'शाम को तुम्हारे यहां आये कवियों की कविता सुनने के लिए मैंने जो शर्त रखी थी उसके बाद किसी ने मुझे अपनी कविता नहीं सुनाई। तुम्हें तो यह अच्छा नहीं लगा होगा, पर जानते हो मैने यह शर्त क्यों रखी थी, क्योंकि आजकल लोग पढ़ते तो हैं नहीं, कि उनके पूर्व के लोगों ने क्या लिखा है और यह दावा करने चले आते हैं कि उन्होंने जो लिखा है, वैसा अभी तक किसी ने नहीं लिखा। किस आधार पर यह डींग हांकते हैं, तुम तो विज्ञान के विद्यार्थी थे। क्या विज्ञान में कोई वैज्ञानिक बिना किसी सिद्धांत को जाने नये सिद्धांत की खोज करने का दावा कर सकता है। फिर कवि ही ऐसा क्यों कर रहे थे?'

          राजेंद्र परदेशी  जी का मौन आक्रोश शांत हो गया था। जो बूंद स्वयं ही सागर होने का भ्रम अपने मन में पाल लेता है, वह सागर की गहराई का अनुमान कैसे लगायेगा।

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संन्यास और त्याग

          गीता में अर्जुन प्रश्न करते हैं कि श्री कृष्ण को कौन ज्यादा प्रिय है सन्यासी या गृहस्थ? श्री कृष्ण मुसकुराते हुए कहते हैं कि उन्हें दोनों ही प्रिय हैं। जिनका चित्त सन्यास में है उसे सन्यासी बनना चाहिये और जिनका झुकाव गृहस्थी की तरफ है उसे त्याग की भावना के साथ गृहस्थ बनना चाहिये। प्रस्तुत प्रसंग कृष्ण के इसी कथन को स्पष्ट करता है। भगवद्गीता में आंतरिक वैराग्य, 'त्याग' और बाहरी त्याग 'संन्यास' के बीच किये गये अंतर के महत्व को बड़ी सरलता से सामने लाती है।

          दो घनिष्ठ मित्रों, निर्मल  और केशव में गहरी आध्यात्मिक आकांक्षा थी। एक दिन, चिंतन-मनन के बाद उन्होंने दुनिया त्याग कर संन्यासी बनने का फैसला लिया। कुछ समय साथ-साथ घूमने और विचार करने के बाद उन्होंने अलग-अलग  अकेले ही आगे बढ़ने का फैसला किया।



          निर्मल ने अपना नया नामकरण किया, निर्मलानंद और लंबे समय के पश्चात भिक्षाटन  करता किसी अमीर आदमी के द्वार पर पहुंचा। जब घर का मालिक खाना लेकर बाहर आये, तो निर्मलानंद को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि वह अमीर आदमी उनका पुराना दोस्त केशव ही था। अमीर केशव, अपने संन्यासी दोस्त निर्मलानन्द को देखकर खुश हुआ और उससे कुछ दिनों के लिए अपने घर में रहने का अनुरोध किया। लेकिन निर्मलानंद अपने मित्र की वर्तमान स्थिति से खुश नहीं था। उसे लगा कि केशव का पतन हो गया है। निर्मलानंद ने तिरस्कार और दुखी होकर पूछा, "केशव तुम्हें यह क्या हुआ? संन्यास का पवित्र व्रत लेने के बाद तुम संसार के इस सागर में क्यों गिर गये!"

          केशव ने अपनी कथा सुनाई, "अपने अलग होने के बाद, मेरी मुलाक़ात एक संत से हुई। उन्होंने कुछ देर तक मेरी आँखों में  झाँका और कहा, 'युवा संन्यासी, इस जन्म में तुम्हारे कर्म संन्यासी जीवन के लिए नहीं हैं। आध्यात्मिक जीवन में प्रगति के लिए दुनिया पर विजय प्राप्त करने की कोई आवश्यकता नहीं है। अपने घर वापस जाओ और गृहस्थ बनो। कुरूक्षेत्र के दिव्य सारथी द्वारा दिखाये गए मार्ग का अनुसरण करो।'  मुझे महसूस हुआ मानो भगवान स्वयं उनके माध्यम से बात कर रहे हों। मैं अपने घर वापस चला गया। मैं नौकरी में लग गया और एक अमीर व्यवसायी व्यक्ति की इकलौती बेटी से विवाह कर लिया। एक दिन एक दुखद दुर्घटना में उनकी अचानक मृत्यु हो गई और मुझे उनके विशाल व्यापारिक साम्राज्य की देखभाल करनी पड़ी। लेकिन, जैसा कि ऋषि ने मुझसे कहा था, मैं अपने जीवन को, गीता के कर्म योग की भावना से आंतरिक वैराग्य के साथ संचालित करने की पूरी कोशिश कर रहा हूं।"

          निर्मलानंद ने व्यंग्यपूर्ण मुस्कान के साथ अपने मित्र की ओर देखा और कहा, "केशव तुम अपने आप को धोखा दे रहे हो। तुम धन और स्त्री की अपनी इच्छा पर काबू नहीं पा रहे हो और जब उस छद्म साधु ने तुम्हारी दबी हुई इच्छाओं के अनुकूल कुछ कहा, तो तुम्हें गिरने का औचित्य मिल गया और अपनी इच्छायें  पूरी करने उसी संसार में चले गये। तुम कहते हो कि तुम इसे आंतरिक वैराग्य के साथ कर रहे हो! क्या तुम अभी अपनी सारी संपत्ति, पत्नी और बच्चों को त्याग कर फिर से संन्यासी बन सकते हो?” केशव ने कहा, "हां, चलो चलें।" और तुरंत केशव सब कुछ त्याग कर संन्यासी बन निर्मलानंद के साथ चल दिये। दोनों पुराने दोस्त कुछ समय फिर साथ-साथ घूमे लेकिन और फिर अलग हो गए। जाते समय, निर्मलानंद ने केशव से कहा, "संन्यास के अपने महान और पवित्र जीवन के प्रति वफादार रहना और संसार में वापस न आना।"

          कई वर्षों बाद निर्मलानंद, एक राजकुमार द्वारा संन्यासियों के लिए बनवाई गई एक धर्मशाला में भोजन कर रहे थे। जब वह जाने ही वाले थे, एक लंबा युवा राजकुमार निर्मलानंद के पास आया और कहा, "श्रद्धेय महाशय, मैंने अपने गुरु के निर्देशन में आप जैसे संन्यासियों के लिए यह धर्मशाला बनवाई है। मेरे गुरु आपसे मिलना चाहते हैं। उन्होंने कहा है कि वे आपको जानते हैं। क्या आप कृपया मेरे साथ आ सकते हैं?" यह सोचकर कि वह कौन हो सकता है, निर्मलानंद उन के  साथ चल पड़े। राजकुमार उसे एक बड़े भव्य कमरे के द्वार पर ले गया। राजकुमार ने कहा, "मेरे गुरु इस कमरे में आराम कर रहे हैं। आप अंदर जा सकते हैं।"

          जैसे ही निर्मलानंद कमरे में दाखिल हुए और गुरु के सामने खड़े हुए, उन्हें यह देखकर आश्चर्य हुआ कि यह उनका दोस्त केशव है, जो एक नरम बिस्तर पर आराम से लेटा हुआ है। उसके पास एक बड़ी मेज पर कई प्रकार के फल, पेय और मिठाइयाँ रखी हुई हैं। केशव अपने बिस्तर से उठे और गर्मजोशी से निर्मलानंद को गले लगाया और नरम कोमल आवाज में कहा, "मेरे प्यारे दोस्त, तुम कैसे हो? मैं संन्यास की अग्नि में शुद्ध आपके शरीर के स्पर्श से पवित्र महसूस कर रहा हूं।"

          लेकिन निर्मलानंद ने उसे जोर से धक्का दिया और कठोर स्वर में कहा, "मुझे मत छूओ, पाखंडी। तुमने मुझे क्यों बुलाया? संन्यास के पवित्र व्रत को तुमने फिर अपवित्र किया है। तुम्हें यह समझना चाहिए कि संन्यास केवल एक पीला वस्त्र नहीं है, जिसे तुम अपनी इच्छानुसार पहन सकते हो या फेंक सकते हो।"

          केशव ने शांत भाव से उत्तर दिया, "मैं देख रहा हूं कि तुम मुझसे बहुत नाराज हो। मैं तुम्हारे साथ कुछ दिन बिताना चाहता हूं। तुम कृपया मेरी आगे की कहानी सुनो।  हमारे अलग होने के कुछ महीने बाद मैं एक पेड़ के नीचे बैठा था और त्याग, आंतरिक वैराग्य और संन्यास, बाहरी त्याग के बीच गीता में बताये  गये अंतर पर विचार कर रहा था। उसी समय, यह युवा राजकुमार आया और उसने कर्म योग पर गीता के बारे में कई प्रश्न पूछे। हमने इस विषय पर लंबी चर्चा की। मैंने इस विषय पर उनके सभी संदेहों का समाधान किया। इसके अंत में उन्होंने पूछा, 'स्वामीजी, क्या आप वास्तव में सोचते हैं कि हम शक्ति और धन के मध्य रहते हुए पूर्ण आंतरिक वैराग्य की स्थिति में रह सकते हैं?' मैंने अनुभव से उत्पन्न एक निश्चित आंतरिक विश्वास के साथ कहा, "हां, मुझे लगता है कि यह संभव है", राजकुमार ने कहा, 'आप एक संन्यासी हैं जिसने दुनिया को त्याग दिया है, लेकिन आप आंतरिक वैराग्य पर विश्वास के साथ बात करते हैं। आपके विश्वास का आधार क्या है? क्या आपका का कोई आंतरिक अनुभव है?' मैंने उन्हें अपना पिछले सन्यास का इतिहास सुनाया।”

          उसने ध्यान से सुना और मुस्कुराते हुए कहा, 'स्वामीजी, मुझे लगता है कि आप ही वह व्यक्ति हैं जिसकी मैं तलाश कर रहा हूं और उन्होंने बताया कि वे कौन थे और अपने परिवार के बारे में बताया; वह एक राजघराने का राजकुमार था। उनके पिता और परिवार के अधिकांश सदस्य आध्यात्मिक प्रवृत्ति के थे। वे एक कुल-गुरु की तलाश में थे जो उनकी आध्यात्मिक खोज में उनका मार्गदर्शन कर सके। कुछ दिन पहले, उन्हें एक सपना आया जिसमें कुलदेवता-परिवार की देवी ने उन्हें एक युवा संन्यासी की तलाश करने के लिए कहा, जिसके पास सांसारिक अनुभव हो और उसे अपने कुलगुरु के रूप में स्वीकार करने कहा। आपमें हमारे कुलदेवता द्वारा बताये गए सभी लक्षण और हमारे कुलगुरु बनने के लिए आवश्यक सभी गुण हैं' राजकुमार ने कहा और पूछा 'क्या आप हमारे गुरु बनेंगे और हमें चेतना की उस स्थिति को प्राप्त करने में मदद करेंगे जो आपने हासिल की है?'

          "मुझे लगा कि इसके पीछे भगवान की इच्छा है और मैंने उनका अनुरोध स्वीकार कर लिया। लेकिन मैं इन चीजों से जुड़ा नहीं हूं, जिनका मैं अभी आनंद ले रहा हूं। यदि आप मुझे फिर से आपके साथ आने और तीसरी बार संन्यासी बनने के लिए कहें, तो मैं ऐसा कर सकता हूं। बिना ज़रा भी झिझक और बिना पीछे मुड़े तुम्हारे साथ इस महल से बाहर चल सकता हूँ।”



 

    निर्मलानन्द विचारमग्न हो गये। कुछ मिनटों की चुप्पी के बाद, उन्होंने कहा, "मुझे विश्वास है कि तुम जो कह रहे हो वैसा कर सकते हो। तुम्हारा कर्म त्याग के लिए है, संन्यास के लिए नहीं। तुमने पूर्ण त्याग प्राप्त कर लिया है, तुम ही सच्चे संन्यासी हो, जो धन और विलासिता के बीच भी आंतरिक रूप से स्वतंत्र और अनासक्त रह सकते हो, जब वे अपने जीवन के दौरान या अपने कर्म के हिस्से के रूप में उसके पास आते हैं तो उनका आनंद लेते हो और जब वे जाते हैं तो उन्हें उसी आंतरिक वैराग्य के साथ से जाने देते हो। तुम धन्य हो।“

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मंगलवार, 1 अक्तूबर 2024

सूतांजली अक्तूबर 2024

 


असहयोग और कुछ नहीं,

शासकों के पशुबल को हटाने का कर्त्तव्य है

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युद्ध और गांधी

युद्ध

महाभारत

कौरव – पांडव

ऐसा कोई आयुध न बचा जिसका प्रयोग न हुआ हो।

युद्ध की सभी विधाओं का प्रयोग हुआ।

हाथी, घोड़े, ऊंट, पैदल, रथ हर प्रकार की सेना थी।   

एक ऐसा भयानक युद्ध जिसमें सम्पूर्ण आर्यावर्त के राज्य अपनी-अपनी सेना के साथ लड़े-कटे-मरे।

द्वारकाधीश श्री कृष्ण ने भी यादवों की अपराजेय चतुरंगिणी सेना के साथ युद्ध में भाग लिया।

18 दिन के इस भयानक रक्तपात के बाद युधिष्ठिर का राज्याभिषेक करवा श्रीकृष्ण अपने स्वर्ण जड़ित गरुड़ध्वज से सुशोभित रथ में द्वारका वापस चले।

            क्या श्री कृष्ण अपनी मृदु-मुस्कान के साथ द्वारका में प्रवेश किए होंगे? क्या उनमें विजय की प्रसन्नता रही होगी? उनकी चतुरंगिणी सेना किस हालत में वापस द्वारका आई होगी? द्वारका के द्वार पर जन सैलाब तो जमा होगा, लेकिन क्या उनकी आँखें विजयी श्रीकृष्ण को खोज रही थीं या उनको जो अब तक नहीं लौटे थे और अब कभी वापस लौट कर नहीं आने वाले थे? श्रीकृष्ण के कानों में मंगल गान पड़ रहे होंगे या रोने की, आर्तनाद की, चीख-पुकार की मार्मिक आवाजें आ रही होंगी?

            युद्ध का कारण कुछ भी हो, परिणाम कुछ भी हो, किसी भी पक्ष की विजय हो सत्य तो यही है कि दोनों ही पक्ष पराजित होते हैं। विजयी पक्ष भी बहुत कुछ हार जाता है। अपरिमित  जन-धन की क्षति होती है जिसकी पूर्ति असंभव है। दिल में लगने वाले घाव कभी नहीं भरते।

            जब द्वितीय विश्व युद्ध के बादल मंडरा रहे थे, देशों के बीच तना-तानी चल रही थी, गांधी ने शांति बनाये  रखने की गुजारिश की थी और युद्ध के अन्य विकल्पों पर कार्य करने की सलाह दी थी। लेकिन न हिटलर और न ही मित्र देशों को उनका सुझाव रुचा। उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध करने का सुझाव दिया था। अहंकार में सराबोर दोनों ही पक्षों को यह नागवार लगा। यह तो आत्मसमर्पण है, अपमान है?

            4 वर्षों तक चले इस प्रलयंकारी युद्ध का समापन अणुबम के विस्फोट से हुआ। युद्ध की समाप्ति के बाद विदेशी पत्रकारों का एक दल गांधीजी से मिलने यह बताने पहुंचा कि युद्ध में मित्र देशों की विजय हुई और  हिटलर मारा गया। गांधी ने पूछा कि उस युद्ध में कुल कितने जन-धन का नुकसान हुआ? पत्रकारों ने एक दूसरे को देख गांधी को संख्या बताई और कहा यह अभी तक के अनुमानित आंकड़े है। गांधी का अगला सवाल था कि अगर उनकी बात मानी जाती तो नुकसान इससे कम होता या ज्यादा? कुछ देर की चुप्पी के बाद उत्तर आया, शायद इससे कम होता लेकिन ...... । गांधी ने बीच में ही रोक दिया और हिंसा पर अहिंसा का राज होता। अभी, हिंसा पर हिंसा की ही विजय हुई है, इसके दूरगामी परिणाम होंगे।

कालांतर में, भविष्य में युद्ध रोकने के लिए बने वैश्विक संगठन शक्तिहीन हो गये। अनेक समझौते हुए, संयुक्त राष्ट्र संघ भी बना। विश्व दो गुटों में विभक्त हो गया। हर समय, कहीं-न-कहीं बम के गोले, टैंकों की गरगराहट, गोलियों की आवाज चलती ही रहती है। युद्ध थमने का नाम ही नहीं ले रहे। पूरा विश्व बारूद की ढेर पर है, कब कहाँ धमाका होगा पता नहीं। इन आमने-सामने के युद्ध के अलावा गुमनाम और अब खुल्लम-खुल्ला आतंकवाद के निरंतर युद्ध से पूरी दुनिया खौफ में है। यह मत सोचिये जब हम युद्ध की बात कर रहे हैं तब केवल दो देशों के मध्य युद्ध की चर्चा कर रहे हैं। हर देश, कौम, जाति, धर्म और तो और हर इंसान भी दूसरे इंसान से युद्ध कर रहा है।

जब तक यह नफरत की आग समाप्त नहीं होगी युद्ध समाप्त नहीं होंगे। शांति का एकमात्र उपाय प्रेम, मुहब्बत, सौहार्द, सद्भावना ही है।  

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असहयोग

(काँग्रेस की बैठक में अपने असहयोग आंदोलन के प्रस्ताव को स्वीकृत कराने के लिए गांधी ने बड़ी मेहनत की और बड़े ज़ोरदार और तार्किक ढंग से अपनी बात रखी। गांधी-मार्ग पत्रिका ने इतिहास में गोता लगाकर सामग्री एकत्र कर  उसे प्रकाशित किया, इससे गांधी को समझा जा सकता है। उसी के कुछ अंश।)

            गांधी की इतनी छवियां गढ़ दी गई हैं कि गांधी कहीं खो ही गये हैं! हमारे हाथ बचे हैं या तो 'सुविधा के गांधी' या 'दुविधा के गांधी' गांधी इन दोनों से दूर, काल की दूरियों को पार कर हर उस जगह खड़े मिलते हैं जहां स्वतंत्रता-समता का संघर्ष हैउनके तरकश में सत्य है, तो सत्याग्रह भी है; सहमति की आतुरता है तो असहमति की दृढ़ता भी है; सबको साथ लेने का धीरज है तो सबको छोड़ अकेले निकल पड़ने की तीव्रता भी है, वे सबके साथ, सब तरह का सहयोग करने को तत्पर मिलते हैं तो असहयोग का ब्रह्मास्त्र चला कर सबको घुटनों पर भी ला देते हैंयह योद्धा गांधी आज की जरूरत है

            1920 का काल था1915 में भारत लौटे 46 वर्ष के गांधी ने केवल पांच सालों में भारत के सार्वजनिक जीवन को अपनी मुट्ठी में कर लिया था, और असहयोग आंदोलन की व्यापक योजना कांग्रेस के सामने रख दी थी। काँग्रेस का हृदय गांधी के साथ था, दिमाग कुछ दूसरा कह रहा थासर्वश्री विपिन चंद्र पाल, मुहम्मद अली जिन्ना, एनी बीसेंट, मदनमोहन मालवीय, जमनादास द्वारकादास आदि सबने गांधी के असहयोग से सहयोग करने से इंकार करते हुए, उनके प्रस्ताव पर हर तरह की आपत्तियां उठाई थीं... गांधी ने दृढ़ता से एक-एक आपत्ति का जवाब देते हुए उनकी निरर्थकता ही उजागर नहीं कर दी बल्कि यह भी संकेत दे दिया कि अब देश रुकने-थमने को तैयार नहीं है- "हम, जो भारत का नेतृत्व करते हैं उनमें भी वे गुण नहीं हैं, तो भारत को कभी स्वराज्य नहीं मिलेगा" मैं अच्छी तरह जानता हूं कि इस महान सम्मेलन के समक्ष यह प्रस्ताव रखने का जो अवसर मुझे दिया गया है, उससे मेरे कंधों पर कितनी गंभीर जिम्मेवारी आ पड़ी हैमैं यह भी समझता हूं कि आप यह प्रस्ताव मंजूर कर लेंगे तो मेरी अपनी और आपकी भी मुश्किलों में कितनी वृद्धि हो जाएगीमेरा प्रस्ताव मंजूर करें तो इसका अर्थ होगा कि अब तक जनता अपने हक और सम्मान की रक्षा के लिए जो नीति अपनाती रही, उसे हम बिलकुल बदल रहे हैंमैं पूरी तरह जानता हूं कि हमारे बहुत से नेता इसके विरुद्ध हैं - ऐसे नेता, जिन्होंने मातृभूमि की सेवा में मेरी अपेक्षा कहीं अधिक समय और शक्ति लगाई हैयह सब पूरी तरह समझकर मैं आपके सामने खड़ा हुआ हूंमैं यह प्रस्ताव परमेश्वर से डरते हुए और स्वदेश के प्रति अपने धर्म के भासे प्रेरित होकर पेश कर रहा हूंमैं चाहता हूं कि आप उसका स्वागत करेंआप घड़ी भर के लिए मुझे भूल जाइये। मुझ पर यह आरोप है कि मैं बड़ा 'महात्मा' हूं और तानाशाही चलाना चाहता हूंमैं साहसपूर्वक कहता हूं कि मैं आपके पास 'महात्मा' बनकर या हुकूमत करने की आकांक्षा से नहीं आया हूंमैं तो आपके सामने अनेक वर्षों के अपने आचरण में असहयोग के जो अनुभव मुझे हुए, उसे उपस्थित करने खड़ा हुआ हूंमैं इस बात को मानने से इनकार करता हूं कि असहयोग देश के लिए बिलकुल नयी चीज हैहजारों की भीड़ वाली, सैकड़ों सभाओं ने असहयोग को स्वीकार किया हैमैं फिर आपसे प्रार्थना करता हूं कि आप इस महत्व के प्रश्न पर विचार करने में धीरज और शांति से प्रस्ताव के गुण-दोषों पर अपना मत निश्चित कीजिये।

सहनशक्ति की तालीम : प्रस्ताव को महज मंजूर कर लेने से आप छूट नहीं जाएंगेजो धारा जहां लागू होती हो, वहां उस पर अमल शुरू कर देना पड़ेगामेरा अनुरोध है कि आप धीरज रखकर मेरा कहना सुन लीजिये, तालियां भी न बजाइये और आवाज-कशी भी मत कीजिये, तालियों से विचारों का प्रवाह रुकता है और आवाज-कशी करने से बोलने और सुनने वालों के बीच जुड़ा हुआ तार टूट जाता हैअसहयोग में तो अनुशासन और त्याग की साधना की बात हैविरोधी के मत को धीरज और शांति से समझ लेना असहयोग का लक्षण हैबिलकुल ही विरुद्ध विचारों को भी सह लेने की वृत्ति जब तक हम पैदा नहीं कर लेंगे, तब तक असहयोग असंभव हैक्रोध के वातावरण में असहयोग चल ही नहीं सकता। मैं वे अनुभव से एक बहुत महत्वपूर्ण पाठ सीखा हूं कि क्रोध को दबा दिया जाये तो जैसे दबाकर रखी गई उष्णता में से शक्ति उत्पन्न होती है वैसे ही संयम में रखे गए क्रोध से भी ऐसा बल पैदा किया जा सकता है कि सारे संसार में हलचल मचा देहम मत-विरोध के बावजूद एक-दूसरे को सहन करना सीख लें तो इससे अधिक अनुशासन और क्या हो सकता है?

कांग्रेस और अल्पमत : मुझसे कहा गया है कि मैं तो बस विनाश का ही कार्य करता रहता हूंअपने प्रस्ताव से मैं देश के राजनीतिक जीवन में दरार डाल रहा हूंकांग्रेस किसी खास दल की संस्था नहीं हैसंख्या थोड़ी है, इसीलिये  किसी दल को कांग्रेस छोड़कर जाने की जरूरत नहींउन्हें समय पाकर देश के लिए अपना मत रुचिकर बनाकर अपना ही बहुमत बना लेने की आशा रखनी चाहिएहां, कांग्रेस द्वारा निंदित किसी भी नीति को कांग्रेस के नाम से कोई अख्तियार नहीं कर सकताआप मेरा ढंग नापसंद करेंगे तो मैं कोई कांग्रेस छोड़कर नहीं चला जाऊंगाआज मेरे विचारों का अल्पमत हो, तो जब तक वह बदलकर बहुमत नहीं बन जायेगा तब तक मैं कांग्रेस को समझाता ही रहूंगा

असहयोग एकमात्र उपाय : पंजाब पर सितम ढाये गए और यह समझ लीजिए कि जिस दिन एक भी पंजाबी को पेट के बल चलना पड़ा, उस दिन सारा भारत पेट के बल चलायदि हम भारत की योग्य संतान हैं तो हमें यह कलंक का टीका मिटा ही डालना होगाइन जुल्मों का न्याय कराने के लिए हम महीनों से जूझ रहे हैं, परंतु अभी तक हम ब्रिटिश सरकार को रास्ते पर नहीं ला सकेक्या लोग अब तक, इतना सब कुछ करने के बाद, इतना जोश और लगाव प्रकट करने के बाद, केवल अपनी क्रोध की भावना का थोथा प्रदर्शन करके ही बैठे रहना पसंद करेंगे? अगर कांग्रेस अनिच्छुक अधिकारियों को न्याय करने के लिए विवश नहीं कर पाती तो फिर वह अपने अस्तित्व की सार्थकता कैसे सिद्ध करेगी? अपने सम्मान की रक्षा कैसे करेगी? और उनके खून से सने हाथों से कोई मेहरबानी स्वीकार करने से पहले यदि वह उनसे अपने किये पर पश्चाताप नहीं प्रकट करा पाती तो यह कैसे कहा जा सकता है कि उसने न्याय प्राप्त कर लिया या अपने सम्मान की रक्षा कर ली?

असहयोग की सर्वोत्तम योजना : इसी कारण मैं असहयोग की अपनी योजना पके सामने रख रहा हूंमैं आपसे यह इसलिये नहीं कहता कि मुझे अपनी योजना का आग्रह हैमेरे कहने का मतलब यह है कि आप मेरी योजना को जब खूब विचार करके देख लेने पर दूसरी कोई योजना आपको इससे बढ़कर मालूम न हो, तभी मंजूर कीजिये । मैं यह दावा करता हूं कि इस योजना को लोगों का काफी समर्थन मिला है लेकिन मैं आपसे फिर यह कहने की हिम्मत करता हूं कि इस पर अमल करें तो एक ही वर्ष में स्वराज्य ले सकते हैंयह विराट समाज इस प्रस्ताव को केवल पास कर दे, इतना ही काफी नहीं हैदेश की मौजूदा हालत को ध्यान में रखकर दिन-दिन अधिक जोश के साथ लोग उस पर अमल करें, तभी वह फलदायी हो सकता है

त्याग और अनुशासन असहयोग के सिवा एक और मार्ग लोगों के सामने था और वह था तलवार उठाने का, परंतु भारत के पास इस समय तलवार नहीं हैयदि उसके पास तलवार होती तो मैं जानता हूं कि वह असहयोग की इस सलाह को सुनता तक नहीं, परंतु मैं तो आपको यह बता देना चाहता हूं कि आप अनिच्छुक शासकों के हाथों रक्तपात के मार्ग द्वारा जबरन न्याय प्राप्त करना चाहते हों, तो उस मार्ग में भी आवश्यक अनुशासन और त्याग के बिना आपका काम नहीं चलेगामैंने आज तक नहीं सुना कि जिसमें कोई तालमेल न हो ऐसी किसी भीड़ ने कभी लड़ाई जीती होकवायदी सेना को लड़ाई जीतते मैंने और आपने भी देखा हैब्रिटिश सरकार या यूरोप की सम्मिलित ताकत से लोहा लेना हो तो हमें अनुशासन और त्याग पैदा करना ही होगामैं लोगों को उस अनुशासन और त्याग की स्थिति में पहुंचा हुआ देखने का उत्सुक हूंउस स्थिति को देखने को मैं उतावला हूंबुद्धिबल में हम पिछड़े हुए नहीं हैं, परंतु मैं देखता हूं कि राष्ट्रीय पैमाने पर अभी तक हममें त्याग और अनुशासन नहीं आया है कौटुंबिक क्षेत्र में तो हमने अनुशासन और त्याग का जितना विकास किया है उतना संसार के और किसी राष्ट्र ने नहीं किया। उसी वृत्ती को राष्ट्रीय व्यवहार में भी दिखाने का इस समय मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूं

            अंततः काँग्रेस ने गांधी का असहयोग प्रस्ताव स्वीकार कर लिया था।

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रविवार, 1 सितंबर 2024

सूतांजली सितंबर 2024


 

स्वयं को भेड़ बना लोगे

तो भेड़िये आकर तुम्हें खा जायेंगे।

-        जर्मन

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बुद्धि : आत्मा का दीपक

 

          ईश्वर ने हमें बुद्धि प्रदान की है उसका प्रयोग करने के लिये। यह हमारा शृंगार नहीं है, यह हमारी शक्ति  है जिसका प्रयोग कर हम पशुत्व से ईश्वरत्व की तरफ बढ़ सकते हैं। ईश्वर के प्रति हमारा यह कर्त्तव्य है कि हम अपने जीवन का उपयोग बुद्धिमत्तापूर्वक करें, उसे बुद्धिमत्तापूर्वक चलायें। मूढ़ से भी मूढ़ व्यक्ति को भी ईश्वर उसके लिये आवश्यक बुद्धि अवश्य देता है, पर दुर्भाग्यवश हम प्राप्त बुद्धि के बहुत थोड़े अंश का उपयोग करते हैं। जीवन के प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक क्षण बुद्धि का उपयोग किया जाना चाहिये, पर हम बुद्धि से काम कहीं-कहीं ही लेते हैं।

 

          एक बार हम अपने आप से आज यह प्रश्न करें कि क्या हम अपने जीवन का उपयोग सचमुच बुद्धिमत्तापूर्वक कर रहे हैं? क्या हम अपने खान-पान में अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं? क्या अपनी खाद्य साम्रगी बुद्धिमत्तापूर्वक चुनते हैं? अपने धन का खर्च बुद्धिमत्तापूर्वक करते हैं? अपने शब्द-बल का प्रयोग लोगों में उस आशा और उत्साह का संचार करने के लिए करते हैं जिन्हें हम जीवन का अमृत समझते हैं? सबसे आवश्यक प्रश्न तो यह है कि क्या हम विचार करते समय अपनी बुद्धि से काम लेते हैं? क्या जिन बातों को हम सुनते हैं उन्हें अपनी कसौटी पर कसते हैं? अपने दैनिक कार्यों के करने में, वे छोटे हों या बड़े, क्या हम अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं? जब-जब हमारे सामने कोई नयी समस्या खड़ी होती है तो हम उसे क्या भावुकता, भौतिकता, स्वार्थ के बजाय बुद्धि से सुलझाते हैं?

          क्या हमने अपने भविष्य के लिये कोई कार्यक्रम बुद्धिमत्तापूर्वक बनाया है? क्या हम जानते हैं कि भविष्य में हम क्या बनना चाहते है और क्या करना चाहते हैं? यदि नहीं तो क्या यह बुद्धिमानी नहीं होगी कि हम जो कुछ करें और जो हम करना चाहते हैं उसको प्राप्त करने के लिए एक कार्यक्रम निश्चित करें? कब तक, कितना और कैसे चाहिये?

          आज संसार को जिस वस्तु की अधिक-से-अधिक आवश्यकता है, वह है बुद्धि। संसार में सदिच्छा और सद्भावना की कमी नहीं है, पर चूंकि हमलोग बुद्धि का उपयोग नहीं करते, हम अपने को हर जगह कठिनाई में पाते हैं।

          आज के संसार की समस्या का समाधान इसीमें है कि प्रत्येक देश, संप्रदाय, धर्म के लोग अंधविश्वास और अंधपरंपरा का त्याग करके सभी राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक  समस्याओं का सामूहिक हल बुद्धि से निकालें। पर जबतक ऐसा नहीं होता हम में से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप में बुद्धि का उपयोग कर ही सकता है।

          बुद्धि ईश्वर प्रदत्त आत्मा का दीपक है। इस दीपक का प्रकाश धुंधला न होने दें, न इस प्रकाश की परिधि से दूर जायँ । अपनी बुद्धि का उपयोग करें। बुद्धि का प्रयोग कर अन्य नकारात्मक अकर्षणों से बचें। बुद्धि के प्रयोग का-सा आनंदप्रद खेल दुनिया में दूसरा नहीं है।

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जंगली कौन? 

          एक मिशनरी ने एक बार किसी देश के मूल निवासियों के एक समूह को अपने पवित्र धर्म की सच्चाइयों की शिक्षा देने का बीड़ा उठाया। उसने उन्हें छह दिनों में पृथ्वी के निर्माण और एक सेब खाने से हमारे प्रथम  माता-पिता के पतन के बारे में बताया।

          विनम्र मूल निवासियों ने ध्यान से उनकी बात सुनी, सुनने के बाद उन्होंने उसे धन्यवाद दिया और फिर एक ने मक्के की उत्पत्ति के संबंध में एक बहुत प्राचीन परंपरा बताई। लेकिन मिशनरी ने स्पष्ट रूप से अपनी घृणा का प्रदर्शन किया, उनकी बात पर अविश्वास दिखाया और क्रोधपूर्वक कहा, "जो कुछ मैं ने तुम्हें सुनाया वह पवित्र सत्य था, परन्तु जो कुछ तुम मुझ से कह रहे हो, वह कोरी काल्पनिक कहानी और झूठ है!"

          "मेरे भाई" मूल निवासी ने नाराज होकर लेकिन गंभीरता से उत्तर दिया, "ऐसा लगता है कि अभी आपको सभ्यता के  नियमों की अच्छी जानकारी नहीं हैं। आपने देखा कि हम, जो इन नियमों का पालन करते हैं यह मानते हैं कि ये सत्य हैं, उनकी श्रद्धा करते हैं और पवित्र भी मानते हैं, लेकिन फिर भी हम आपका आदर करते हैं और आपकी कहानियों पर विश्वास करते हैं; तो फिर, आप हमारी बातों को समझने से इनकार क्यों करते हैं?"

          ईसाई मिशनरी शायद अपने को अन्य से श्रेष्ठ समझ रहा था। शायद वह यह सोच रहा था, "मैं इन जंगली मूल निवासियों को ईश्वर और मनुष्य के पवित्र सत्य के प्रति जागृत करने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन ये जंगली लोग मक्के जैसी सांसारिक चीज़ के बारे में कुछ बचकानी दंतकथाएं गढ़ रहे हैं।" लेकिन वह यह नहीं समझ रहा था कि मूल अमेरिकियों के लिए, मक्का सांसारिक नहीं है बल्कि भगवान के समान पवित्र है क्योंकि यह प्रकृति का हिस्सा है। महान आत्मा जिसने दुनिया को बनाया है वह इसमें निवास करती है और इसे एक अद्वितीय उद्देश्य से भर देती है। मूल अमेरिकी दृष्टिकोण में, जो आंतरिक रूप से पारिस्थितिक है, मक्का की उत्पत्ति की कहानी मनुष्य के निर्माण की कहानी जितनी ही पवित्र है, क्योंकि मनुष्य और मक्का प्रकृति के समान, परस्पर जुड़े हुए और अन्योन्याश्रित हिस्से हैं। मूल अमेरिकी जनजातियाँ पौधों का सम्मान करती थीं, कीड़े, सरीसृप, पशु और पक्षी "वस्तुओं" के रूप में नहीं बल्कि "सामान्य इंसान" के रूप में।

          ये जंगली निवासी जिन्हें हम अनपढ़, गंवार, असभ्य, रूढ़िवादी मानते हैं शायद किसी हद तक हम पढ़े-लिखे, समझदार, सभ्य और आधुनिक लोगों से ज्यादा अच्छे इंसान हैं। वे हमारी तुलना में सभ्यता के नियमों को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।

          हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री नरेंद्र कोहली सागर मंथन में लिखते हैं - ... “व्यक्ति जिस समाज में रहता है, उसी के रीति-रिवाज और प्रचलन के अनुसार उसे चलना पड़ता है। अमेरिका में रहने वाला भारतीय अमरीका में रह रहा है या अमरीकी समाज में? देश अलग है, वहाँ के लोग अलग हैं; किन्तु वह उनका समाज नहीं है। उनका अपना समाज तो भारतीय समाज ही है, चाहे भारत में रहें, या अमरीका में”।

          ... और क्या यह सही है? और अगर सही है तो वह कब तक भारतीय समाज है, पहली पीढ़ी तक, या दूसरी पीढ़ी तक या उसके बाद और कितनी पीढ़ी तक! क्या उसके साथ हर समय भारतीय मूल की पूंछ नहीं लगी रहेगी? वह अपने को तो अमरीकी समाज का हिस्सा मानता है लेकिन क्या अमेरिकी समाज भी उसे अपना हिस्सा मानती है?

          विदेश में रहने वाला बेटा स्वयं अपनी माँ को सूचना दे रहा है कि वह अपनी एक कैनेडियन गर्लफ्रेंड के साथ रह रहा है। विवाह के बिना ही दोनों साथ रह रहे हैं – लिव इन। इसलिए वह लड़की न उनको अपना सास-ससुर मानती है और न उनसे कोई सम्बन्ध रखना चाहती है। उन्होंने कई बार उन लोगों को घर आने को कहा, किन्तु वे नहीं माने। मित्र ने स्वयं उनके घर जाने की अनुमति माँगी तो उस लड़की ने पूछा, "वाय दिस ओल्डमैन वांट्स टू कम टू आवर हाउस।" (यह वृद्ध इंसान क्यों हमारे घर आना चाहता है? वे उसके ससुर नहीं थे। बस एक ओल्डमैन थे।

          माँ ने बेटे को समझाया कि तुम्हें वह लड़की पसन्द है और वह तुम्हें पसन्द करती है, इतने समय से साथ रह रहे हो, तो विवाह क्यों नहीं कर लेते?

बेटे का उत्तर था, "वाय स्पॉयल दि फन।" (आनंद को क्यों बर्बाद किया जाये)

"क्या मतलब?"

"अरे हम दोनों अपनी-अपनी जरूरत से साथ रह रहे हैं। पत्नी बन गयी तो छाती पर बैठ कर मूँग दलेगी। हुकुम चलायेगी। अपनी माँगों की सूची बढ़ाएगी। दंगा-फसाद करेगी। पुलिस और कोर्ट-कचहरी की धमकी देगी। उससे तो हम ऐसे ही भले। रहती है, रहे। जाती है, जाये...। उसका मुझ पर कोई कानूनी अधिकार नहीं, मेरा उस पर कोई कानूनी हक नहीं।"

          तो यह सारा भय कानूनी अधिकार का है; प्यार का कोई सम्बन्ध नहीं है। आवश्यकताओं के कारण एक साथ रह रहे हैं। आवश्यकता भी केवल यौन सम्बन्धों की है।... दोनों अपने-अपने पैसों का अलग हिसाब रखते हैं। यह पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं है। सुख का साथ है। न दायित्व का साथ है। न दुख का साथ है।..... और यह शायद केवल युवावस्था का ही साथ है। प्रौढ़ होंगे, वृद्ध होंगे तो जाने क्या होगा। .....” लिव-इन का यही उद्देश्य है। जैसा उद्देश्य है फल भी उसके अनुरूप ही है। समाज और लोग भी वैसे ही हैं।

          हम, असभ्य से सभ्य बनने वाले और हमें असभ्य से सभ्य बनाने वाले लोगों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानना आवश्यक है। विदेशियों ने असभ्य को सभ्य बनाने और हम निरीह भारतीयों पर शासन के नाम पर क्या-क्या अत्याचार किये थे? जो लोग हमारे लिए आक्रमणकारी, लुटेरे और हत्यारे थे, उनके लिए वे सन्त थे। जब वास्को डी गामा यहाँ आया था तो उसे हिन्दुओं और ईसाइयों में कोई विशेष अन्तर दिखायी नहीं दिया था। उसने अपने राजा को यही सूचना दी थी कि यहाँ के लोग भी ईसाई ही हैं, किन्तु दूसरे ईसाइयों और इनमें कुछ अन्तर है। किन्तु पुर्तगालियों ने  अधिक दिन इस को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने विदेशी आक्रमणकारियों और शासकों के रूप में अपने कानून बनाने आरम्भ किये। पहला महत्वपूर्ण कानून था - संपत्ति पर अधिकार केवल ईसाइयों का है। (गोवा इंक्वीसीशन पृ. 50,51,56,57,23,24)

          1543 में एक नव-धर्म-परिवर्तित भारतीय ने  अपने मित्रों के साथ हल्के-फुल्के वार्तालाप में कुछ टिप्पणियों की जो कैथोलिक धर्म के अनुकूल नहीं थीं। परिणाम स्वरूप उसे जिंदा जला का राख में परिवर्तित करने का दंड सुनाया गया।

मेरे1 (नरेंद्र कोहली के) सामने विकीपीडिया की पंक्तियाँ थीं -

        "अनेक ईसाई प्रचारक, विशेष रूप से कट्टरपन्थी ईसाई, हिन्दू देवी- देवताओं को उनकी निन्दा कर, उन्हें दुष्ट और राक्षसी घोषित कर रहे थे। कैथोलिक ईसाइयों द्वारा सन्त माने जाने वाले फ्रांसिस जेवियर, हिन्दुओं को भूत-प्रेत की पूजा करने वाले और आध्यात्मिकता से शून्य प्रचारित कर रहे थे। हिन्दू सिद्धान्तों को वे घृणित और विकृत बता रहे थे। ...

        "फ्रांसिस जेवियर ने ही 1545 ई. में पुर्तगाली शासकों से इनक्विजिशन आरम्भ करने की माँग की थी। गोवा में पुर्तगाली शासन-काल में सहस्त्रों हिन्दुओं को ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया। ऐसे कानून बनाये गये कि हिन्दुओं का अपने धर्म का पालन करना तो दूर जीवित रहना भी कठिन हो गया। उन्हें झूठे मुकदमे चला कर, छोटी-छोटी शिकायतें कर, उनका जीना दूभर कर दिया गया। ... कहा जाता है कि 1560 से आरम्भ कर गोवा धर्माधिकरण के काल में सहस्रों हिन्दुओं की हत्या की गयी। इस धर्माधिकरण का प्रस्ताव फ्रांसिस जेवियर ने रखा था।' 2

... ईसाई प्रचारकों की ये गतिविधियाँ 1544 में सन्त फ्रांसिस जेवियर के भारत आगमन के साथ आरम्भ हुईं। ... फ्रांसिस जेवियर ने लिखा : जब सबका बपतिस्मा हो जायेगा, मैं उनके मिथ्या देवताओं की प्रतिमाओं को भंग कर, मन्दिरों को ध्वस्त करने का आदेश दूँगा। इस कल्पना से ही मैं आनन्द में झूमने लगता हूँ।"3

          अजीब त्रासदी है। जिस देश के ये लोग थे, जिस धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए इन्होंने यह सब किया उस देश के लोग, उस धर्म के लोग अगर इन्हें संत मानते हैं, इन्हें पूजते हैं, इनके दर्शन को पवित्र मानते हैं, उन्हें महान मानते हैं, तो इसमें न तो कोई आश्चर्य है न ही अटपटा। लेकिन यह कैसी विडम्बना है कि हम भारतीयों को इसकी कोई जानकारी नहीं और जिन्हें इसकी जानकारी है उन्होंने इसे बताने की जहमत नहीं उठाई बल्कि हमें अंधेरे में रखा। जिसके प्रति  हम भारतीयों और हिंदुओं का खून खौल उठना चाहिए था, जिसके प्रति कोई सम्मान नहीं होना चाहिए था,  न उसे संत मानना चाहिए था, जो हमारे धर्म और देश का शत्रु था, हम भी उसका वैसे ही महिमा-मंडन करते हैं, पूजते हैं, संत मानते हैं, पवित्र मानते हैं।

          मैं तो यही कहूँगा -

जागते रहो!   जागते रहो!!   जागते रहो!!!

1 सागर मंथन पृ 31 से 35, 2 विकीपीडीया,  3 फ़्रीडम अँड रिलीजन

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