हम अनेक बार यह प्रतिक्रिया देते हैं कि पता नहीं यह व्यक्ति कौन सी दुनिया में रहता है, पता नहीं ये कौन से लोक के वासी हैं और इसी प्रकार से पढ़े-लिखों और अनपढ़ों की दुनिया, जवानों बूढ़ों और बच्चों की दुनिया, पुरुषों और महिलाओं की दुनिया? और भी न जाने कितनी दुनिया की रचना हम कर डालते हैं। अलग-अलग इतनी सारी दुनिया? कितनी दुनिया है? कैसी दुनिया है? आध्यात्मिक जीवन में आध्यात्मिक लोग इन अलग-अलग लोगों की अलग ढंग से चर्चा करते हैं लेकिन वहीं साहित्यिक लोग इसकी अलग ढंग से चर्चा करते हैं।
सामान्यतः हम तीन लोकों की चर्चा करते
हैं।
पहला पाताल लोक जहां आसुरी
शक्तियों का निवास मानते हैं। पाताल में दैत्य, दानव
और नाग जैसे प्राणियों का निवास माना जाता है, जिनमें वासुकि
प्रमुख हैं।
दूसरा भू-लोक है,
यानी वह स्थान जहां मनुष्य यानि मानवीय शक्ति निवास करते हैं। और
यही प्रेरणा दी जाती है कि हम भू-लोक के निवासी अपने कर्मों से ब्रह्म लोक के वासी
बनें।
और तीसरा बह्म लोक जहां देवी, देवताओं का वास है।
कवीन्द्र रवीद्र ने इन से हट कर तीन
भूमियों की चर्चा की है जहां हमारा वास-स्थान
है। और ये तीनों ही हमारी जन्म-भूमि है क्योंकि जन्म के साथ ही हम इन तीनों जगत
में रहना प्रारम्भ कर देते हैं। पृथ्वी ही नहीं इसके अलावा और दो जगत हैं जहां हम
जन्म से मृत्यु पर्यंत वहाँ रहते हैं। वे लिखते हैं हमारी तीन जन्म भूमियां हैं,
और तीनों एक-दूसरे से मिली हुई हैं।
पहली जन्मभूमि है पृथ्वी - मनुष्य
का वासस्थान पृथ्वी पर सर्वत्र है। ठण्डा हिमालय और गर्म रेगिस्तान,
दुर्गम उत्तुंग पर्वत श्रेणी और बंगाल की तरह समतल भूमि - सभी जगह
मानव का निवास है। मनुष्य का निवासस्थान वास्तव में एक ही है - अलग-अलग देशों का
नहीं, सारी मानव जाति का। मनुष्य के लिए पृथ्वी का कोई अंश
दुर्गम नहीं - पृथ्वी ने उसके सामने अपना हृदय मुक्त कर दिया है।
मनुष्य का द्वितीय वासस्थान है स्मृतिजगत्।
अतीत से पूर्वजों का इतिहास लेकर वह काल का नीड़ तैयार करता है - यह नीड़ स्मृति
की ही रचना है। यह किसी विशेष देश की बात नहीं है, समस्त मानव जाति की बात है। स्मृतिजगत् में मानव मात्र का मिलन होता है। मानव
का वासस्थान एक ओर पृथ्वी है, दूसरी ओर स्मृतिलोक। मनुष्य
समस्त पृथ्वी पर जन्म ग्रहण करता है और समस्त इतिहास में भी। अतीत में, वर्तमान में और फिर इन दोनों के संयोग से भविष्य बुनता है।
उसका तृतीय वासस्थान है आत्मलोक।
इसे हम मानवचित्त का महादेश कह सकते हैं। यही चित्तलोक मनुष्यों के आन्तरिक योग का
क्षेत्र है। किसी का चित्त संकीर्ण दायरे में आबद्ध है,
किसी के चित्त में विकृति है - लेकिन एक ऐसा व्यापक चित्त भी है जो
विश्वगत है, व्यक्तिगत नहीं। उसका परिचय हमें अकस्मात् ही
मिल जाता है - किसी दिन अचानक वह हमें आह्वान देता है। साधारण व्यक्ति में भी देखा
जाता है कि जहाँ वह स्वार्थ भूल जाता है, प्रेम करता है,
वहाँ उसके मन का एक ऐसा पक्ष है जो 'सर्वमानव'
के चित्त की ओर प्रवृत्त है।
मनुष्य विशेष प्रयोजनों के कारण घर की
सीमाओं में बद्ध है, लेकिन महाकाश के साथ उसका सच्चा योग है। व्यक्तिगत
मन अपने विशेष प्रयोजनों की सीमा से संकीर्ण होता है, लेकिन
उसका वास्तविक विस्तार सर्वमानव-चित्त में है। वहाँ की अभिव्यक्ति आश्चर्यजनक है।
एक आदमी के पानी में गिरते ही दूसरा उसे बचाने के लिए कूद पड़ता है। दूसरे की
प्राण-रक्षा के लिए मनुष्य अपने प्राण संकट में डाल सकता है। हम देखते हैं कि
मनुष्य अपनी रक्षा को ही सबसे बड़ी चीज़ नहीं गिनता। इसका कारण यही है कि प्रत्येक
मनुष्य की सत्ता दूसरों की सत्ता से जुड़ी हुई है।
हम सब एक हैं, अलग-अलग नहीं।
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