शुक्रवार, 1 अगस्त 2025

सूतांजली अगस्त 2025

 




... यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था।

लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

तो आजादी चरखे से नहीं आई,

उस सैलाब से आई !

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सुनो-सुनो,

आजादी चरखे से नहीं आई !

          हाँ, यह सच है कि आजादी चरखे से नहीं आई!

          यह उस सैलाब से आई जो उस चरखे ने लाई।

          आज (2024 में) देश में 1330 जेलें हैं जिनमें 5.25 लाख कैदी बंद हैं। यह हाल तब है जब उनमें अपनी क्षमता से दो-तीन गुना ज्यादा कैदी बंद हैं। 1920 में या 1940 में देश में कितनी जेलें होंगी? उन जेलों की क्षमता कितनी होगी? तब देश की जनसंख्या कुल 32 करोड़ थी। अगर उनमें से 1% लोग भी जेल जाने को तैयार हो जाते तो 32 लाख लोग जेलों में बंद होते। जेल मुफ्त छात्रावास की तरह होते हैं। आपका खाना-पीना, कपड़े-लत्ते, दवा-दारू सब की जिम्मेदारी सरकार की होती है। फिर भी कोई जेल जाना नहीं चाहता है क्योंकि जेल जाने से नहीं, डर लगता है जेल जाने का ठप्पा लगने से! इधर ठप्पा लगा और उधर सारा मान-सम्मान चला गया! इसलिए जेल डराती है। पर हुआ ऐसा कि उस बूढ़े ने हवा ही बदल दी : जेल जाना इज्जत की बात बना दी! हाल यह है कि जिनके दादे-परदादे स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थे, कभी जेल गए थे, उनके वंशज आज भी उनका नाम सीना फुलाकर बताते हैं। तो यह गांधी की करामात थी, जिसने उस दौर में आम आदमी का जेल जाना इज्जत का सबब बना दिया। ऐसा क्यों किया उन्होंने? इसलिए कि वे भारत के मन से भय निकालना चाहते थे, अंग्रेजी आतंक का गुब्बारा फोड़ना चाहते थे। इसलिए जेलें भरना चाहते थे।

          भारतीयों में यह जज्बा जगाने के लिए गांधी स्वयं जेल जाते रहे। कांग्रेस का हर बड़ा नेता जेल जाता रहा। जेल नहीं गए तो कैसे नेता हो जी! लेकिन जेल जाने के लिए अपराध भी तो करना चाहिए! कैसा अपराध करें? थाने जलाएं, कलक्टर, एसपी, पटवारी को मारें? अरे नहीं, गांधी ने कहा नमक कानून तोड़ो; गली-गली, चौक-चौराहे नारे लगाओ, तिरंगा फहराओ! गिरफ्तार हो जाओ। सरकारी धाराओं का उल्लंघन करो, राजद्रोही भाषण दो, पर्चे लिखो, अखबार चलाओ, गिरफ्तार हो जाओ। शराब की दुकानें खुलने मत दो, मार खाओ, गिरफ्तार हो जाओ। इन सबके बीच पवित्र अहिंसा का संदेश, आपके अपराध को जघन्यता की तरफ न जाने देने के लिए था। यह अंग्रेजों का नहीं, आपका सुरक्षा चक्र था। क्योंकि जहां आप जघन्यता की तरफ बढ़े, फंसे। अंग्रेज़ तो चाहते ही थे कि आप जघन्यता की तरफ बढ़ें।  आप मारें, तो वे भी मारें।

          और चरखा? मन मजबूत करने का तार बुनता था। सुबह बैठकर प्रार्थना करते हैं, तो ईश्वर को समीप पाते हैं। फिर वह दिन भर साथ रहता है। वह आपकी मानसिकता (साइकोलॉजी) में बैठा रहता है और आपको संबल प्रदान करता रहता है। ऐसा ही चरखा भी था। सुबह चरखा चलाइए, गांधी आपके समीप आ जाएंगे। आजादी का जज्बा भीतर बैठ जाएगा। आप हर वक्त अंग्रेजों की न-कार और राष्ट्रभाव के स-कार में रहेंगे। चरखा द्रोण की मूर्ति बन गया। आप एकलव्य की तरह, हर पल आजादी के संधान का अभ्यास करेंगे। लिखने, बोलने, प्रदर्शन में जाने, पिटने, जेल भरने को तैयार होंगे, क्योंकि चरखा साथ  है। देश में करोड़ों लोग चरखा चला रहे थे, वे कपड़ा नहीं बना रहे थे भाई साहब, वे तकली के हर घुमाव के साथ अपने भीतर स्टील के तार बुन रहे थे। 1942 में क्या देखा कि देश के कोने-कोने से गांधी निकल आए : बलिया के गांधी, गया के गांधी, पटना के गांधी, मुंबई के गांधी, मद्रास के गांधी, केरल के गांधी... कोई गांव-शहर-प्रदेश बचा नहीं जिसके पास अपना गांधी नहीं था। जिसके सिर पर सफेद टोपी, वही गांधी। कहीं कोई भटका, लड़खड़ाया तो मोहनदास गांधी तो मौजूद ही था।

          इस जन सैलाब के सामने अंग्रेज़ एक ही दीवार खड़ी कर सकते थे - सेना की दीवार! लेकिन उस दीवार में स्पष्ट दरारें पड़ने लगी थीं। अंग्रेजों और उनके वफादार भारतीय सैनिकों के बीच की डोर जगह-जगह टूट गई थी। आजाद हिंद फौज के अफसरों पर लाल किला का मुकदमा उलटा पड़ा था।  नेवी का विद्रोह व्यापक ही नहीं था, गहरा भी था। जब बांध दरकने लगे, और पीछे खड़े सैलाब की ताकत का आपको अंदाजा हो, तो आप क्या करेंगे? भाग खड़े होंगे। अंग्रेजों ने भी यही किया भाग खड़े हुए! यह वह सैलाब था जो वर्षों की मेहनत से, खुद को तिल-तिल जलाकर, भारत मां के कितने ही नवजवानों को घिस-मांज कर गांधी ने रचा था। यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था। लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे, लड़ने को तैयार थे।

          तो आजादी चरखे से नहीं आई, उस सैलाब से आई! आप समझ सकें तो समझिए कि गांधी का चरखा.. कपड़ा नहीं बुनता था जनाब.. वह सैलाब बुनता था।

(गांधी मार्ग से)

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जिस सैलाब कि हम बात कर रहे हैं क्या आप उसे समझ पा रहे हैं, उसका उफान! उसकी तीव्रता! उसका जोश! और उसकी हुंकार! गांधी के समय में तो हम थे ही नहीं। लेकिन क्या आपको सम्पूर्ण क्रान्ति या 'जेपी आन्दोलन' या 'बिहार आन्दोलन', ध्यान में है? उस समय तो आप भी मौजूद थे। यह सन १९७४ में बिहार में छात्रों द्वारा आरम्भ किया गया एक आन्दोलन था जो इस राज्य के कुशासन एवं भ्रष्टाचार के विरुद्ध था। इसका नेतृत्व महान गांधीवादी नेता जयप्रकाश नारायण ने किया। वैसे तो इसका असर पूरे देश में था लेकिन सैलाब बिहार ने ही देखा था। इस सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि केन्द्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ गया था। जय प्रकाश नारायण जिनकी हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ता था। जेपी के नाम से मशहूर जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति का पर्याय बन चुके थे।

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खुदा-न-खस्ता अगर आप उस समय भी नहीं थे तो 2011 में तो थे! जन लोकपाल विधेयक के निर्माण के लिए जारी यह आंदोलन अपने अखिल भारतीय स्वरूप में ५ अप्रैल २०११ को समाजसेवी अन्ना हजारे  के जंतर-मंतर पर शुरु किए गए अनशन के साथ आरंभ हुआ। इस अनशन का प्रभाव समूचे भारत में फैल गया और इसके समर्थन में लोग सड़कों पर भी उतरने लगे। १६ अगस्त को अन्ना हजारे को गिरफ्तार कर लिया। किंतु इससे आंदोलन पूरे देश में भड़क उठा। देश भर में अगले १२ दिनों तक लगातार बड़ी संख्या में धरना, प्रदर्शन और अनशन आयोजित किए गए। अंततः संसद द्वारा अन्ना की तीन शर्तों पर सहमती का प्रस्ताव पास करने के बाद २८ अगस्त को अन्ना ने अपना अनशन स्थगित करने की घोषणा की। इस आंदोलन में देश भर के युवाओं ने जोश-खरोश से हिस्सा लिया और अन्न हज़ारे को “आज का गांधी” कहा।

          इन दोनों सैलाबों में आपको गांधी के सैलाब की एक झलक दिख जाएगी। इन दोनों में एक समानता थी, ये दोनों ही आंदोलन अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित थे। यानि गांधी के बाद भी लोगों ने अहिंसा की ताकत को पहचाना और उसे हथियार बनाया।

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मेरा देश महान

 

भइया! मेरा यह गट्ठर मेरे सिर पर रख दो', मुम्बई महानगरी की एक सड़क के किनारे एक बुढ़िया लकड़ियों के एक गट्ठर के पास खड़ी उधर से गुजरने वालों से यह निवेदन कर रही थी। किंतु उसकी ओर देखकर सब आगे बढ़ जाते। कुछ तो मुंह बिचकाते हुए निकलते। काफी समय निकल गया लेकिन किसी ने सहायता नहीं की। सूर्यास्त हो चुका था, बुढ़िया को घर पहुंचने और भोजन बनाकर बच्चों को खिलाने की चिंता भी सता रही थी। अचानक उसने देखा पैंट-कोट पहने, टाई लगाए एक सज्जन उसी की तरफ आ रहे हैं। बुढ़िया कातर दृष्टि से उनकी तरफ निहारने लगी। जब वह पास से गुजरने लगे, तब बुढ़िया ने उनसे भी यही निवेदन करना चाहा, किंतु संकोच के कारण उसका उठा हुआ हाथ नीचे आ गया और खुला मुंह बंद हो गया। उन सज्जन को लगा कि बुढ़िया उनसे कुछ कहना चाहती है। वह पीछे मुड़े और बोले, माँ!क्या कुछ कहना चाहती हो?’ यह आत्मीय संबोधन सुनकर बुढ़िया की आंखों में आंसू आ गए। सज्जन ने कहा, मां! रोओ मत, यदि पैसे की जरूरत हो तो...। बुढ़िया आंसू पोंछते हुए बोली, 'नहीं बाबू! मुझे पैसे नहीं चाहिए। मैं तो यहां से गुजरने वालों से लकड़ियों यह गट्ठर अपने सिर पर रखने का निवेदन कर रही थी। किसी ने सहायता नहीं की। आपने मेरे कुछ कहे बिना ही मां कहकर मुझ से पूछा इसलिए आंखों में आंसू आ गए।' उन्होंने लकड़ियों का गट्ठर उठाकर बुढ़िया के सिर पर रख दिया। बुढ़िया ने रुंधे कंठ से कहा, ‘तुम बड़े महान हो बेटा, भगवान तुम्हारा कल्याण करें और वह अपने रास्ते पर चल पड़ी। वह सज्जन थे, मुम्बई उच्च न्यायालय के न्यायाधीश महादेव गोविंद रानाडे।



किसी भी देश को महान बनाने में सबसे अहम भूमिका वहाँ के नागरिकों की ही होती है। महान नागरिक बनिए, देश को महान बनाइये।   

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मंगलवार, 1 जुलाई 2025

सूतांजली जुलाई 2025


 

  अपने प्रति ईमानदार रहो -               आत्म प्रवंचना नहीं

          भगवान् के प्रति सच्चे रहो -            समर्पण में सौदेबाज़ी नहीं

          मानवजाति के साथ सीधे रहो -        दिखावा और पाखण्ड नहीं

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विश्वधर्म की अवधारणा

          ‘विश्व धर्म’ की आवश्यकता और स्वरूप पर चिंतन और विचार-विमर्श विश्व भर में होता रहता है। इन विमर्श में विश्व के धार्मिक प्रतिनिधि, चिंतक, मनीषी, वैज्ञानिक अपने विचारों से हमारा परिचय कराते हैं और साथ ही इस बात पर अपनी प्रतिबद्धता भी दर्शाते हैं कि जो है वह न तो समुचित है और न ही विश्व एकता और शांति को लाने में सक्षम है। तब यह प्रश्न उठता है कि क्या धर्म की आवश्यकता है? लेकिन धर्म से तात्पर्य पंथ से नहीं स्वयं सिद्ध अनुशासन  से है। भारतीय परम्परा में धर्म शब्द का व्यवहार उन मानवीय गुणों यथा सत्य, अहिंसा, करुणा, अपरिग्रह, आत्मसंयम, सन्तोष, शान्ति आदि को इंगित करने के लिए हुआ है जिनका सभी मनुष्यों द्वारा अपनाया जाना आवश्यक है। हर समाधान नये प्रश्न खड़े करती है।  यही कारण है कि हमें ऐसे विचार-विमर्श की आवश्यकता है।

          यह स्वीकार्य है कि मनुष्य बिना धर्म के नहीं रह सकता, लेकिन वर्तमान धर्म उन हदों को पार कर चुके हैं जहां अब वे धार्मिक संघर्ष और टकराहट का त्याग कर मनुष्य को शान्ति प्रदान कर सकेंगे। तब पहले इस प्रश्न पर विचार करना है कि धर्म से मनुष्य की क्या और कैसी अपेक्षाएं हैं? कमोबेश हम सब चाहते हैं-

·      सभी प्रकार के भय और दुःखों से छुटकारा और चरम सुख-शान्ति पाना,  

·      अपने परिवार और समाज में मिलकर रहते हुए एक दूसरे की सहायता करना और सुख-दुख बांटना,  

·      इस सृष्टि का स्रोत और स्वयं अपने  जीवन का उद्गम जानना,  

·      सर्वोच्च ज्ञान पाना - ऐसा ज्ञान जिसे पा लेने के बाद कुछ और जानने को बाकी न बचे,

·      सभी प्रकार के बन्धनों से मुक्त होना,  

·      अपने सच्चे स्वरूप को जानने के साथ जन्म और मृत्यु के रहस्य को भी जानना,

·      और अगर ईश्वर है तो उसके स्वरूप को भी जानना।

          आज के अधिकतर वैज्ञानिक ईश्वर को नहीं मानते, पर उच्च कोटि के कई ऐसे वैज्ञानिक भी हैं जो न केवल ईश्वर की सत्ता में विश्वास करते हैं अपितु विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य बैठाने का प्रयास कर रहे हैं। आजकल वैज्ञानिक एक ‘थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग’ की तलाश कर रहे हैं जिसके अनुसार किसी एक सिद्धान्त के आधार पर सारे संसार की और इसके अन्दर होनेवाली घटनाओं की व्याख्या की जा सकेगी। यह देखना है कि क्या थ्योरी ऑफ़ एवरीथिंग मनुष्य के मन की भी व्याख्या कर सकेगी? जिस प्रकार ‘गॉड पार्टिकल’ को लेकर सारा विश्व उत्सुक हुआ उस से जाहिर है कि जनसाधारण के अवचेतन मन में यह धारणा विद्यमान है कि अन्ततोगत्वा विज्ञान और ईश्वर में सामंजस्य का सूत्र हासिल हो जाएगा।

          पर जिज्ञासा मानव-मात्र में होती है आम मनुष्यों में से बहुतों में ईश्वर के बारे में जिज्ञासा है। आम तौर से ईश्वर के बारे में लोग वही मानते हैं जो उनके धर्म ने उन्हें बचपन से सिखाया है। पर मानने और जानने में भेद है। जहाँ तक मानने की बात है, धर्म के क्षेत्र में विभिन्न धर्मों का मानना अलग-अलग है। यदि हमें बचपन से सिखा दिया गया है कि ईश्वर ने दस अवतार लिए जिनमें राम और कृष्ण प्रमुख हैं, या यह कि ईसा मसीह के रूप में ईश्वर का एक ही पुत्र था, या फिर यह कि हज़रत मुहम्मद ख़ुदा के सबसे सच्चे और आखिरी पैग़म्बर थे तो हम जीवन भर इन मान्यताओं से चिपके रहेंगे और इन मान्यताओं से मुक्त होना प्रायः असंभव होग। हमारे धर्म हमारे ईश्वर से अधिक शक्तिशाली बन गए हैं। हममें से लगभग सभी का धर्म वही है जो हमें अपने परिवार से मिला है। इस तरह धर्म हमारे लिए एक जेल की तरह काम करता है जिसके बाहर जाने की बात हमारे मन में ही नहीं आती। जब कभी धर्मान्तरण के द्वारा कोई व्यक्ति दूसरा धर्म अंगीकार करता है तो वह एक जेल से दूसरी जेल में जाने जैसा ही होता है।

          संसार में झगड़े, टकराहट और हिंसक उपद्रव धर्म की मान्यताओं को लेकर हो रहे हैं न कि धर्म के वास्तविक स्वरुप को लेकर। हममें से प्रत्येक को धर्म का वास्तविक स्वरूप जानने की आवश्यकता है। इसके लिए आवश्यक है सभी धार्मिक मान्यताओं से मुक्ति

                    मान्यताएँ बनती कैसे हैं? मनुष्य का मन भाषा के माध्यम में काम करता है। मनुष्य के हर चेतन क्षण में उसके अन्दर भाषा उत्पन्न होती रहती है। और उस भाषा पर उसका नियंत्रण नहीं के बराबर है। मनुष्य वह प्राणी है जो सोचता है। रेने देकार्त का प्रसिद्ध कथन "मैं सोचता हूँ, इसलिए मैं हूँ (कॉजिटो एर्गो सुम)"भाषा के बारे में एक और बहुत विशेष बात। शब्द देश-काल में होते हैं, उनका अर्थ देश-काल के परे होता है। शब्दों की गिनती और विश्लेषण संभव है, अर्थ को न गिना जा सकता है, न उसका विश्लेषण किया जा सकता है। वक्ता और लेखक के मुख या कलम से केवल शब्द ही बाहर आते हैं, उसके शब्दों का अर्थ हम नहीं निकाल सकते। इसलिए वक्ता और लेखक अपने शब्दों का किन अर्थों में प्रयोग कर रहे हैं यह जानने का कोई उपाय नहीं है, हम केवल अनुमान लगा सकते हैं जो अलग-अलग होते हैं। शब्दों के क्षेत्र में गलत समझने और धोखा खाने की प्रबल सम्भावना है। प्रसिद्ध भारतीय भाषा-दार्शनिक भर्तृहरि ने अपने ग्रन्थ वाक्यपदीय में कहा है- कुशल अनुमान करनेवाले विद्वान बहुत यत्न से शब्दों का अर्थ निश्चित करने का प्रयास करते हैं, पर उनसे चतुर विद्वान उन्हीं शब्दों का अर्थ किसी दूसरी ही तरह करते हैं

          केवल संख्यावाची शब्द इसके अपवाद हैं। संख्या वाची शब्दों का अर्थ सदा एक-सा रहता है। धर्म का क्षेत्र प्रारंभ से अन्त तक मत का क्षेत्र है, तथ्य का नहीं। धर्म में किसी भी शब्द का अर्थ निश्चित नहीं है। आत्मा, परमात्मा, पाप, पुण्य, स्वर्ग, नरक आदि शब्द हमारी चेतना में गहरा असर रखते हैं। हम इन शब्दों का सही अर्थ नहीं जानते, और इन शब्दों का कोई सही अर्थ है भी या नहीं यह जानने का कोई उपाय भी नहीं है। एक संत मोक्ष पाने के लिए संसार को त्याग कर पहाडों की  कन्दराओं में रहता है तो दूसरा जन्नत में जाने के लिए अपना और औरों का जीवन नष्ट कर देता है।  जबकि कोई नहीं जानता कि मोक्ष या जन्नत है भी या नहीं, और है तो कैसा है। जिस मोक्ष और जन्नत के बारे में हमें कुछ पता ही नहीं है उसे लेकर संसार का त्याग या आत्महत्या और हज़ारों निर्दोष लोगों की हत्याएँ! ऐसा इसलिए है कि धर्म से जुड़े शब्द हमारी चेतना में गहरे संवेग (इमोशन) जगाते हैं, हम इनके आधार पर कभी भी सही तार्किक दृष्टिकोण नहीं अपना पाते। ऐसे शब्दों से भावनाएँ आसानी से भड़काई जा सकती हैं।

          श्री अरविन्द ने कहा है कि विकास की प्रक्रिया में बढ़ते हुए मनुष्य मन की अवस्था पर पहुँचा है, पर उसे मन की अवस्था पर रुकना नहीं है। मनुष्य को मन के ऊपर उठकर अतिमानस की अवस्था की ओर प्रगति करनी है। जे. कृष्णमूर्ति भी यही बात कहते हैं - मनुष्य को मन और अहंकार दोनों के ऊपर उठना है।

          विश्व धर्म कोई सर्वथा नई अवधारणा नहीं है। प्राचीन भारतीय परम्परा को देखें तो यहाँ प्रारम्भ से विश्व धर्म पर दृष्टि रही है। उन्नीसवीं और बीसवीं शताब्दी में स्वामी विवेकानन्द और रोमाँ रोला ने विश्व धर्म के लिए आवाज़ उठाई थी। संसार के राजनैतिक वातावरण के कारण उस आवाज़ को बल नहीं मिला। पर आज फिर उस आवाज़ को उठाने की आवश्यकता है।

          जिस विश्व धर्म की संकल्पना की जा रही है वह किसी भी वर्तमान सिद्धान्तों, व्यक्ति, संस्थापक, पवित्र पुस्तक पर आधारित नहीं होगी। किसी भी अनुष्ठानों (रिचुअल) पर आग्रह नहीं रहेगा मनुष्यों को चरम सत्य को अपने ही अन्दर खोजने के लिए प्रोत्साहित करेगा।

          विश्व धर्म का तात्पर्य यह नहीं है कि लोग अपने-अपने धर्मों को छोड़ देंगे। धर्म का एक बाहरी पक्ष है और दूसरा आन्तरिक। पूजा-पाठ, व्रत-उपवास, पर्व-त्यौहार, तीर्थ-यात्रा आदि विभिन्न धार्मिक अनुष्ठान धर्म के बाह्य पक्ष हैं। ये अपनी-अपनी जगह चलते रहेंगे। अपने-अपने रीति-रिवाज का पालन अपनी-अपनी तरह से होते रहेंगे। पर धर्म के आन्तरिक पक्ष में सभी मनुष्य साधना की ओर उन्मुख होंगे। इसके लिए आवश्यक है कि हम सभी प्रकार की मान्यताओं से मुक्त हों जिनके कारण भ्रान्ति और टकराहट पैदा होती है।

          कृष्णमूर्ति बार-बार कहते हैं - चिन्तन कभी स्वतंत्र हो ही नहीं सकता। हमारा चिन्तन सदा किसी प्रतिक्रिया के रूप में उदित होता है। उसमें हमारे पहले के सभी संस्कार प्रतिबिम्बित होते हैं। हम उन संस्कारों की सीमा के अन्दर ही सोचते हैं। उन संस्कारों से मुक्त होने का विचार भी हमारे अन्दर नहीं उठता। स्वतंत्र चिन्तक होने के लिए हमें, कृष्णमूर्ति के अनुसार, ज्ञात से मुक्ति (फ्रीडम फ्रॉम द नोन) पानी होगी। यह धर्म के क्षेत्र में भी आवश्यक है और विज्ञान के भी। यही कारण है कि डेविड बॉम जैसे मूर्धन्य भौतिकीविद् भी कृष्णमूर्ति के विचारों से अत्यधिक प्रभावित हैं। जब तक हम अब तक जाने-सोचे हुए सभी कुछ से मुक्त नहीं होते तब तक हम मन के बन्धन में बने रहेंगे।



                    विश्व धर्म सभी लोगों को मन, भाषा और चिन्तन के स्तर से ऊपर उठने के लिए प्रोत्साहित करेगा। यदि हम इस दिशा में प्रयास करें तो हम धार्मिक झगड़ों और दंगा फसादों से ऊपर उठ अपने अन्दर चरम शान्ति, चरम सुख, चरम ज्ञान और अमरत्व का स्रोत भी पा सकेंगे। यह मार्ग सभी मनुष्यों को समान रूप से उपलब्ध है।

          आशा करनी चाहिए कि हम संसार में शान्ति, सद्भावना और सौहार्द के साथ अपना विकास कर सकेंगे।

(अनिल विद्यालंकार के लेखन पर आधारित)

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रविवार, 1 जून 2025

सूतांजली जून 2025

 


सत्य के जन्म के पहले भी

सत्य तो सत्य ही था।

खलील जीब्रान

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अनोखे निर्देश  

          वर्षों बाद देवदत्त अपने गुरु के घर वापस आ रहे थे। इस दौरान अपने गुरु के निर्देशानुसार, शास्त्रों का अध्ययन और मनन करने के बाद, देवदत्त को अपने अगले कार्यभार की उत्सुकता से प्रतीक्षा थी। गुरु ने अपनी ओर आ रहे शिष्य के आंतरिक अस्तित्व को अपनी भेदक आंतरिक दृष्टि से परख लिया। उन्होंने पाया कि उनके शिष्य का अहंकार तो बहुत बढ़ गया है लेकिन आत्मा बहुत कम विकसित हुई है। उनका शिष्य अध्ययन, ध्यान, महान विचारों, उपदेश और लोगों की प्रशंसा से पोषित एक विशाल बौद्धिकता और आध्यात्मिक गौरव से पीड़ित था।

          देवदत्त अपने भीतर के इस अहंकार से परिचित था, लेकिन इसे त्यागने और इसे बाहर निकालने के बजाय, वह आधे-अधूरे मन से इसमें लिप्त रहा।  वास्तव में, देवदत्त अपनी महान बौद्धिक, नैतिक और आध्यात्मिक उपलब्धियों के बावजूद एक विनम्र इंसान थे। देवदत्त का अपने पैतृक स्थान पर बहुत सम्मान था। एक महान पंडित, ज्ञानी और शिक्षक के रूप में और उनके उच्च जन्म, कुलीनता, ज्ञान और चरित्र के लिए उनका सम्मान और प्रशंसा की जाती थी। उनके प्रशंसक अक्सर उनकी प्रशंसा करते थे कि उनके अपार ज्ञान के बावजूद वे अत्यंत विनम्र थे। देवदत्त ने बड़ी आंतरिक संतुष्टि के साथ प्रशंसा स्वीकार की, लेकिन बाहरी रूप से दिखावटी शर्मिंदगी और पवित्र विनम्रता के साथ प्रदर्शित करते रहे कि, "मेरे पास जो कुछ भी है गुरु की कृपा का उपहार है।" इस प्रकार देवदत्त दोहरे अभिमान से ग्रसित था - ज्ञान का अभिमान और विनम्रता का अहंकार।

          देवदत्त के गुरु ने इसे अपनी आंतरिक दृष्टि से देखा। परंतु वे अपने शिष्य से न क्रोधित हुए और न ही विचलित हुए। वे एक आध्यात्मिक अनुभवी व्यक्ति थे जिन्होंने कई साधकों का मार्गदर्शन किया था। वे जानते थे कि देवदत्त एक ऐसी बीमारी से पीड़ित है जो जीवन में किसी-न-किसी स्तर पर अधिकांश साधकों को पीड़ित करती है। वे इसका निराकरण करने के लिये तैयार थे।


          देवदत्त ने गुरु के चरणों में प्रणाम किया। उन्हें आशा थी कि उनके गुरु धर्मग्रंथों पर कई प्रश्न पूछकर उनके ज्ञान का परीक्षण करेंगे और उन्हें धर्मग्रंथों के गूढ़ रहस्यों से परिचित कराया जायेगा। लेकिन देवदत्त थोड़े निराश हुए जब उनके गुरु ने बहुत ही औपचारिक प्रश्न पूछे और उनकी पढ़ाई के बारे में कुछ नहीं पूछा। इन प्रारंभिक औपचारिकताओं के बाद, गुरु ने  देवदत्त से कहा, "अब अपने आप को अगले कार्य के लिए तैयार करो। तुम जानते हो कि मेरी गौशाला में सैकड़ों गाय और भैंसें हैं। कल से तुम उनकी देखभाल करोगे। हर दिन तुम्हें उनको चरागाह में ले जाना होगा, जो यहां से कुछ मील की दूरी पर है, सुबह गायों को और शाम को भैंसों को। तुम्हें इस बात का ध्यान रखना है कि प्रत्येक गाय और भैंस को पूरा खाना मिला रहा है और उनका दूध दूहा जा रहा है। यह तुम्हारा अगला कार्य है, जिसे तुम्हें कुछ समय के लिए करना है। पूरी लगन से, ईमानदारी से, भगवान को याद करते हुए और अपना काम ईश्वरार्पण करते हुए। इस दौरान कोई अध्ययन, ध्यान या शास्त्र नहीं। अपनी सभी पुस्तकें और धर्मग्रंथ अपने भंडार कक्ष में रख दो और कल से यह काम प्रारम्भ करो।"

          गुरु के शब्द देवदत्त के सात्विक अहंकार के लिये एक करारा झटका था। लेकिन देवदत्त में एक महान गुण था जो अधिकांश प्राचीन साधकों में था और जिसे अधिकांश आधुनिक साधकों के लिए बनाए रखना कठिन है। यह है, गुरु में निर्विवाद पूर्ण विश्वास और आस्था। इसलिए देवदत्त ने अपने अंदर उठी सारी निराशा और विद्रोह को नियंत्रित किया और अपने गुरु में अंध-विश्वास के साथ कार्यभार स्वीकार कर लिया।

          दिन, महीने और साल बीत गये। देवदत्त ने अपने गुरु और भगवान के प्रति मेहनत, ईमानदारी और कर्तव्यनिष्ठ समर्पण के साथ अपना नया कार्यभार संभाला। शुरुआत में उसे अपने अहंकार से बार-बार हिंसक विद्रोह का सामना करना पड़ा। वह अपने स्वभाव में ऐसी हिंसा देख कर आश्चर्यचकित था क्योंकि यह एक सज्जन, विनम्र और सात्विक व्यक्ति की अपनी छवि के विपरीत था। उसने इस विद्रोह और हिंसा का सामना अपने गुरु और भगवान के प्रति दृढ़ विश्वास और समर्पण के साथ किया। लेकिन अपने नए गैर-मानवीय साथियों के साथ कई महीने और साल बिताने के बाद, उनका सात्विक अहंकार, जो अध्ययन, ध्यान, ऊंचे विचारों और लोगों की प्रशंसा से प्राप्त पोषण से वंचित हो गया था, कमजोर हो गया और धीरे-धीरे उनके दिमाग से इन विकारों ने अपनी पकड़ खो दी, क्योंकि उनके चार-पैर वाले साथियों को इस बात की जरा भी परवाह नहीं थी कि जो उनके साथ है, वह उनकी प्रजाति का नहीं है, वह एक महान विद्वान है। उनमें से अधिकांश को उसकी उपस्थिति का आभास तक नहीं हुआ।

          देवदत्त को अपनी सच्ची आस्था और गुरु की बुद्धि का परिणाम मिलना शुरू हो गया। उसके मन से सारा विद्रोह और अभिमान दूर हो गया। उसका मन और हृदय शांत और प्रसन्न था। उसे अपने चार पैरों वाले साथियों के प्रति गहरा प्यार महसूस होने लगा था और वे उनसे प्यार करने लगे। इस प्रकार, अपने जीवन में पहली बार, देवदत्त को स्वयं की एकता, आत्मा की जीवंत और ठोस अनुभूति हुई, जो अब तक उनके दिमाग में केवल एक बहुत सोची-समझी और मनन की गई अवधारणा थी। उसके पास ऐसे कई आध्यात्मिक अनुभव थे जो अनायास ही उनके सामने आ रहे थे और वेदांतिक अवधारणाओं की गहरी सच्चाई को उसके सामने प्रकट कर रहे थे, जो अब तक उसके विचार का विषय थे।

          जैसे ही देवदत्त ने अपने गैर-मानवीय साथियों की प्यार से देखभाल की और अपने पशु भाइयों की कुछ प्राकृतिक मासूमियत और सादगी उनके सहज और भावनात्मक स्वभाव में प्रवाहित हुई, उनका हृदय बालक के समान सरल एवं निश्छल हो गया।

          देवदत्त अपने गुरु के घर लौट रहे थे। आज देवदत्त को अपने गुरु के प्रति असामान्य रूप से गहन प्रेम, भक्ति, कृतज्ञता और आत्म-समर्पण की अनुभूति हुई। उसे अपने गुरु के चरणों में गिर जाने और समा जाने की तीव्र इच्छा महसूस हुई।

          गुरु, अपने शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति से बहुत संतुष्टि और खुश थे। आज जब वह गायें चरा कर लौटा तो देवदत्त को देखने की उन्हें तीव्र लालसा हुई। उन्होंने दूर से देवदत्त को आते देखा। लेकिन आज, अपने मन में इस अतीत की छवि के साथ, गुरु ने अपनी आंतरिक दृष्टि देवदत्त की ओर भेजी, जो निकट आ रहा था। अब शरीर के भीतर बंद देवदत्त नामक छोटा, संकीर्ण और सीमित व्यक्ति नहीं था। अपने गुरु के प्रति प्रेम और आत्म-समर्पण की तीव्र अग्नि से युक्त एक विशाल, शुद्ध, व्यापक और प्रकाशमय प्राणी चारों ओर फैला हुआ था।

          देवदत्त आगे बढ़ा और अपने गुरु के चरणों में गिर पड़ा। उसने महसूस किया कि उसका पूरा अस्तित्व एक तरल लावा की तरह पिघल रहा है और उसके गुरु के चरणों की ओर बह रहा है और उनमें विलीन हो रहा है। उन्हें लगा कि उन्होंने अपने गुरु के अस्तित्व और चेतना में प्रवेश कर लिया है। उसकी आत्मा अनंत के सागर में तैर रही थी। गुरु ने देवदत्त को उठाया और कहा, “आपका काम पूरा हो गया है, गायों को चराने का नहीं, बल्कि पृथ्वी पर। अब आप स्वर्ग के पुत्र हैं।"

          इस प्रसंग में गुरु के निर्देश कुछ अनोखे हैं और विषयों की विकासवादी आवश्यकताओं के अनुरूप हैं। इसे पढ़ कर यदि कोई अन्य साधक या शिष्य नकल करता है तो हो सकता है कि वह कार्य न करे। यह मानसिक तर्क से लिया गया मानसिक निर्णय नहीं होना चाहिये। जब आध्यात्मिक चेतना में रहने वाला गुरु शिष्य को अनुशासन देता है तो वह उसमें दो परिवर्तनकारी कारक डालता है। पहला, यह शिष्य की सटीक आंतरिक स्थिति और उस शिष्य को अपने आगे की आध्यात्मिक प्रगति के लिए क्या चाहिये पर  आधारित होता है। दूसरे वह निर्देश, अनुशासन और शिष्य में अपनी आध्यात्मिक शक्ति डालता है।



          उदाहरण के लिए एक शिष्य अपने गुरु से कहता है कि उसे मिठाई खाने की तीव्र इच्छा हो रही है। गुरु कहते हैं: जाओ और अपनी संतुष्टि के लिए खाओ। शिष्य वही करता है जो गुरु कहते हैं और वह पूरी तरह इच्छा से मुक्त हो जाता है, क्योंकि गुरु के शब्द अपनी आध्यात्मिक शक्ति के साथ शिष्य में प्रवेश करते हैं और अपना कार्य करते हैं। लेकिन अगर कोई विधि की नकल करता है, तो हो सकता है यह काम न करे।

          यह कोई अनुशासन नहीं है बल्कि आध्यात्मिक शक्ति है जो गुरु अनुशासन में डालता है और शिष्य उसे प्रभावी बनाता है।

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यही सृष्टि है

उपनिषद् में कथा आती है-

          गुरु के पास जाकर शिष्य कहता है- 'कुछ ऐसा बताइए, जो किसी ने अब तक न बताया है। ऐसा जो सत्य है।' गुरु, फलों से लदे पेड़ के नीचे बैठे थे। उन्होंने कहा- 'फल तोड़ो। और इसके टुकड़े-टुकड़े कर दो।'

          शिष्य फल के टुकड़े-टुकड़े कर देता है। बीज निकल आते हैं। गुरु कहते हैं - 'बीजों के टुकड़े करो।' शिष्य बीज के टुकड़े करता है। बहुत बीज छोटी-छोटी राइयों की तरह बिखर जाते हैं। गुरु कहते हैं- 'और तोड़ो और देखो कि क्या दिखता है?' शिष्य और तोड़ता है और कहता है- 'कुछ नहीं दिखा।'

          गुरु बोले- 'यह जो 'कुछ नहीं' है, उसी में सारी सम्भावना समाई हुई है। प्रत्येक बीज अपने अंदर भविष्य की अनंत सम्भावनाएं समाए हुए है। यही सृष्टि है।'

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यू ट्यूब पर सुनें :

https://youtu.be/CIR2iaZ2MHg


गुरुवार, 1 मई 2025

सूतांजली मई 2025

 


जो अदृश्य है, अगम्य है, अप्राप्य है, तथा

जिसके न तो आंख है, न कान है, न हाथ है, न पैर है –

वह सनातन है, सर्वव्यापक है, सूक्ष्म से भी सूक्ष्म है, वह अविनाशी है,

जिसे बुद्धिमान लोग समस्त सृष्टि का मूल मानते हैं।

मुण्डकोपनिषद

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अज्ञान, विकास और अवतार

(हमारे धार्मिक ग्रन्थों वेद, उपनिषद, शास्त्र, पुराण आदि में कहानी और दृष्टांत का अक्षय भंडार है। इनके अलावा कथा वाचक  भी समयानुसार नयी-नयी कहानियों और दृष्टांत की रचना करते रहते हैं। इनका उद्देश्य दुरूह और जटिल बातों को सहज और ग्राह्य बनाना है।)

            किसी समय, दूषित काले पानी की नाली के गहरे अंधकार में अनेक कीड़े रहते थे जो वहाँ उस अंधेरे में चुपचाप रेंगते रहते थे।  नहर के ऊपर चमक रहे सूर्य की उन्हें कोई जानकारी नहीं थी। एक दिन कुछ कीड़ों को घने अँधेरे में सूर्य की एक किरण दिखी और उस चमक में सूर्य के प्रकाश की एक किरण उन पर भी पड़ी। ये कीड़े अपने ऊपर पड़ने वाली इन चमकदार रोशनी से बड़े आनंदित हो खेल में मग्न हो गए। ये कीड़े, जिन पर सूर्य की किरणें पड़ रही थीं, अन्य कीड़ों से अपने आप को श्रेष्ठ और गौरवान्वित महसूस किया और इसे अपनी जीत समझ खुशी से संतुष्ट हुए।


          इनमें से अधिकांश कीड़ों ने अपना शेष जीवन इसी तरह बिताया जैसे कि वे कीड़ों की दुनिया में विशिष्ट स्थान रखते हों। लेकिन इनमें से कुछ संभ्रांत कीड़ों में इसे लेकर असन्तोष था। उनमें से कुछ समझदार कीड़े खोज में लग गए – यह प्रकाश की किरण कहाँ से आई! वे विचार करने लगे कि इस अंधेरे में प्रकाश के इस कण का क्या स्रोत है? वे प्रकाश के स्रोत को खोजने में लगे रहे और इसके लिए सख्त मेहनत कर रहे थे। वे कीड़े जो प्रकाश को खोजने का प्रयास कर रहे थे, अपने प्रयास की तीव्रता से, नाली के पानी की सतह से ऊपर उठे और सूर्य के प्रकाश को अनुभव किया जो उन पर चमक रही थी।

          यहाँ फिर से इनमें से अधिकांश प्रबुद्ध कीड़ों ने महसूस किया कि वे, कीड़ों की प्रजाति से अलग कोई और ही प्रजाति के हैं, उन्होंने सर्वोच्च सत्य को पाया है और जीवन के लक्ष्य को प्राप्त कर लिया है।  वे  कीड़ों की दुनिया में शिक्षक और मार्गदर्शक बन गए। लेकिन उनमें से कुछ ने महसूस किया कि जब तक वे उस गंदे पानी में पड़े रेंगते रहेंगे तब तक, चाहे ऊपर सूर्य की रोशनी  कितनी  ही चमकदार क्यों न हो, उन्हें कीड़ेपन से मुक्ति नहीं मिलेगी। उन्हें सिर्फ सूरज की रोशनी का ही अनुभव नहीं हुआ बल्कि बड़ी सहजता से उस गंदे पानी की नाली के बाहर एक उन्मुक्त, स्वतंत्र और विशाल आकाश और अन्तरिक्ष की अनुभूति भी  हुई। वे ऊपर और बाहर फैली हुई दुनिया में, नाली की दमघोंटू दुनिया से पूरी तरह मुक्ति के लिए तीव्रता से तरसने लगे। जैसे-जैसे उनकी छटपटाहट बढ़ती गई और आकांक्षा तीव्र होती गई, अचानक उनके पंख उग आए और वे नहर से दूर उड़ गए। अब वे कीड़े नहीं रहे।

          कीड़ों की इस नाली की दुनिया से ऊपर और परे, सूर्य से आलोकित सौर मण्डल में, एक सुंदर हंस इस नाली में रेंगते कीड़ों की दयनीय दुनिया को देख रहा था। हंस को इन रेंगने वाले प्राणियों पर दया आ गई। इन कीड़ों को दयनीय अवस्था से स्वतंत्र कर उन्हें मुक्ति प्रदान करने हेतु वह हंस अपने दिव्यालोकित स्थान से उतरकर उन्हीं कीड़ों का रूप बना, उस नाली में प्रवेश कर गया। इस मुक्ति के पथ पर चल कर ज्यादा-से-ज्यादा कीड़े इस गंदे पानी की नाली से निकल सके। हंस, कीड़े के रूप में उन्हीं कीड़ों के साथ रहने लगा। इस गंदे पानी की नाली में रेंगने वाले कुछ प्रबुद्ध और अत्यधिक विकसित कीड़े हंस को पहचानने, समझने में सक्षम थे। वे उस हंस रूपी कीड़े के शिष्य बन गए। लेकिन अन्य कीड़े इस सूर्यालोकित ब्रह्मांड से पूरी तरह अनभिज्ञ थे। वे उनके साथ विचरने वाले हंस रूपी कीड़े को पहचानने में असफल रहे। सूर्यलोक से आए इस हंस और उनकी क्रीड़ाओं से उन प्रबुद्ध कीड़ों ने अपनी सभी कठिनाइयों को समझा, स्वीकार किया और उन पर विजय प्राप्त की। और इस प्रकार उन्होंने कीड़ों की प्रजाति में चेतना की ज्योति प्रज्वलित की। अपने कार्य से संतुष्ट होने के बाद हंस ने अपना कृमि-शरीर त्याग दिया और वापस अपने मूल सूर्य-लोक में उड़ गया।

          यह दृष्टांत सांसारिक अज्ञानता की दुनिया में फंसे मानव स्वभाव के विकास, अज्ञानता से मुक्ति की संभावना और  मानवता की मुक्ति के लिए दिव्य अवतार को दर्शाता है।

          गंदे पानी की नाली मानव अज्ञान की दुनिया है और कीड़े इसमें फंसी मानवता का समूह है। कीड़ों का पहला समूह अज्ञानता में विकास के पहले चरण का प्रतिनिधित्व करता है। ये वे मनुष्य हैं जो विकास के भौतिक और महत्वपूर्ण चरण को पार कर चुके हैं और उच्च मानसिक, बौद्धिक, नैतिक और सौंदर्य संबंधी मन की चेतना तक पहुंच गए हैं और इस जीवन से संतुष्ट हैं। कीड़ों का दूसरा समूह अगले चरण का प्रतिनिधित्व करता है जिसमें चेतना या मन अपने आप को एक उच्च प्रकाश की ओर खोलता है, जो तर्कसंगत मन से परे अंतर्ज्ञान और प्रेरणा प्राप्त करता है, लेकिन फिर भी अज्ञान की दुनिया के भीतर एक प्रबुद्ध अज्ञान में ही रहता है। ये वे महान मानव प्रतिभाएँ हैं जो औसत मानव मन से परे के क्षेत्रों से प्रेरणा प्राप्त करते हैं और उन्नत आध्यात्मिक साधक हैं। उनमें से बहुत से लोग यहीं ठहर जाते हैं, कुछ लोग शुद्ध और शांत मन में अतिमानसिक सूर्य का प्रतिबिम्ब देखते हैं और भूल-वश उसे ही सूर्य मान लेते हैं तथा धार्मिक और आध्यात्मिक शिक्षक बन जाते हैं।

          कीड़ों का अंतिम समूह जो पंख विकसित करते हैं और नाली से दूर उड़ जाते हैं, ये वे मानव आत्माएं हैं जो आगे बढ़ती हैं और मानव के मानसिक अज्ञान की सीमा रेखा से परे आत्मा की सर्वोच्च स्वतंत्रता तक पहुंचती हैं। ये वे योगी और संत हैं जिन्होंने प्राकृतिक विकास की प्रक्रिया के माध्यम से, शारीरिक और मानसिक विकास के महत्वपूर्ण चरणों से गुजरते हुए, मन को आत्मा की रोशनी में खोलते हुए, अंत में मन से आगे बढ़कर अपने आध्यात्मिक स्वरूप का एहसास करते हैं।

          सूर्य से उतरने वाला हंस अवतार है, दिव्य अवतार, जो अज्ञानता या अज्ञानता के मानवीय कीड़े की दुनिया से जिनका कोई संबंध नहीं है, जो पृथ्वी से परे एक चमकदार दिव्य दुनिया से हमेशा मुक्त रहता है। वे पृथ्वी पर आते हैं, मानव शरीर धारण करते हैं गंदी, पीड़ित और संघर्षरत मानवता के लिए स्वतंत्रता और पूर्णता का एक नया मार्ग खोलने के लिए। अपने बाहरी अस्तित्व में, वह एक मानव रूप धारण करता है और मानव प्रजाति की सभी सीमाओं और अपूर्णताओं में बंधा रहता है, लेकिन अपने आंतरिक अस्तित्व में, वह एक चमकदार दिव्य प्राणी है, एक देवता है, जो मानवीय और सांसारिक अज्ञान की सीमाओं और अपूर्णताओं से मुक्त है। वह अपने बाहरी मानव स्वभाव की सभी सीमाओं और अपूर्णताओं पर विजय प्राप्त करता है, और अन्य सभी मनुष्यों में समान विजय की संभावना व  क्षमता स्थापित करता है।

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जीवन का उद्देश्य

          एक बच्चे ने स्वामी से पूछा, "मेरे जीवन का उद्देश्य क्या है, मुझे कौन सा कार्य करना है?"

स्वामी चिदानन्द ने फूलों के एक गुच्छे की ओर इशारा करते हुए उत्तर दिया, "क्या तुम इन फूलों को देखते हो? कुछ शाखाओं पर तुम्हें छोटी-छोटी कलियाँ दिखती हैं, तो कुछ पर तुम्हें पूरी तरह से खिले हुए फूल दिखते हैं। पूरी तरह से खिले हुए फूलों में सुंदर पंखुड़ियाँ, अच्छा रंग, खुशबू और सुंदर रूप होता है। कलियों में तुम अभी यह सारी सुंदरता नहीं देख सकते। कली का उद्देश्य अपने अंदर छिपी हुई सुंदरता को बाहर लाना और एक संपूर्ण फूल बनना है। धीरे-धीरे यह बड़ा होगा और अपने भीतर से सारी सुंदरता को बाहर लाएगा।



आपके जीवन का उद्देश्य आपके अंदर सोई हुई सुंदरता को बाहर लाना है। आपका कार्य एक परिपूर्ण, आदर्श मानव के रूप में विकसित होना है। आप में सभी महान मानवीय गुण सोए हुए हैं जैसे दया, करुणा, निःस्वार्थता, सेवा करने की भावना, सद्गुणों पर टिके रहने का साहस, इच्छा शक्ति और आकांक्षा की आंतरिक शक्ति, उच्च आदर्शों के लिए जीना आदि।

आपके अंदर पूरी क्षमता है, इसे बाहर लाना ही वह कार्य है जो आपको इस जीवन में करना है। तब आप इस खूबसूरत फूल की तरह खिलेंगे..."

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सूतांजली अगस्त 2025

  ... यह वह सैलाब था जो अब देश के हर इंसान के दिल में हिलोरें ले रहा था। लाखों भारतीय जेल और मौत से बिना डरे , लड़ने को तैयार थे। तो आजा...