सूतांजली ०२/०९ अप्रैल
२०१९
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प्रश्न पूछने का हक और
फर्ज
अभी कुछ दिन पहले एक कहानी पढ़ी। बड़ा सदमा लगा। अभी तक उस सदमे से
उबर नहीं पाया हूँ। सोचा आप से साझा करूँ शायद थोड़ी राहत मिले। यूं तो कहानी लम्बी
है लेकिन मैं इसे आपके लिए संक्षिप्त में लिख रहा हूँ –
“पति, पत्नी और ननद देर
रात मूवी देख कर निकले तो 1 से ज्यादा का समय हो रहा था। गाड़ी के पास पहुंचे
तो पाया कि टायर पंक्चर है। पति जब तक
टायर बदली करता तब तक जगह वीरान हो गई। तीन बाईक पर कुछ लोग पहुँचे, छुरा दिखा ननद को बाईक पर बैठने
कहा। पुरुष ने मुंह मांगे रुपये देने की पेश कश की। लेकिन उन्होने पैसे लेने से
इंकार कर दिया ‘पैसे हमारे पास हैं लेकिन हमें अच्छी छोकरी
नहीं मिलती, उसी के लिए ये सब करते हैं’। पुरुष हतप्रभ, परेशान, सोचने
लगा क्या करूँ! तभी युवती के मुंह से हठात निकल पड़ा ‘तुम्हें
औरत ही तो चाहिए, मेरी बहन बच्ची है उसे छोड़ दो मैं तुम्हारे साथ चलती हूँ’। युवकों ने युवती को घूरा और यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। दूसरी रात पत्नी वापस घर पहुँचा दी गई।
पूरा परिवार शोकाकुल और सदमे में। पति लगातार पत्नी के साथ रहा और उसे हिम्मत
बंधाता रहा। पूरा परिवार पत्नी के साथ खड़ा था और उसे सदमे से निकालने की कोशिश कर
रहा था। तभी कहीं से किसी ने एक प्रश्न किया ‘पत्नी ने
कहीं अपनी अतृप्त वासना को शांत करने के लिए तो यह नाटक नहीं किया’? पति को, परिवार को बुरा भी लगा, क्रोध भी आया लेकिन शांत रहे। इन
पर कोई असर न होता देख दूसरा प्रश्न आया ‘कहीं पति में
कोई कमी तो नहीं’? और फिर एक के बाद एक नए नए प्रश्नों
और शंकाओं का शोर उठने लगा। धीरे धीरे मुहल्ले और समाज से इतने प्रश्न उठने लगे कि
सब चकरा गए। इन प्रश्नों के शोर गुल में घर वालों का विश्वास डगमगा ने लगा। परिवार
और युवती के साथ जो खड़े थे वे भी कन्नी काटने लगे। सहानुभूति घृणा या विरक्ति में
बदलने लगी। और तो और ननद ने भी मुंह मोड़ लिया। पत्नी ने आत्महत्या कर ली और पति
ने दूसरा विवाह। सब सामान्य हो गया।
पत्नी का बलात्कार किसने किया?” गुंडों ने, परिवार ने, समाज
ने ........
इस कहानी से मुझे लगे सदमे को क्या आप दूर कर सकते हैं? इसे दूर करने के दो ही उपाय हैं – १ला, कोई ऐसा
न्यायालय बताएं जो असली बलात्कारी को सजा दे सके या २रा, ऐसा
वकील बताएं है जो किसी भी न्यायालय में बलात्कारी को सजा दिला सके?
हमारे ग्रन्थों में,
शास्त्रों में, वेदों में, प्राचीन काल
से प्रश्न पूछने का हक ही नहीं दिया गया है बल्कि उसे प्रोत्साहित भी किया है।
लेकिन प्रश्नकर्ता के लिये उत्तरदायित्व भी निर्धारित है। प्रश्न पूछने का
उद्देश्य क्या है? यह प्रमुख है। प्रश्न सृजनात्मक हो।
प्रश्न का उद्देश्य अज्ञान के अंधकार को दूर कर ज्ञान के प्रकाश को फैलाना, भ्रम मिटा कर विश्वास पैदा करना, संदेह हटा कर
आस्था के बीज बोना होना चाहिए। लेकिन अगर उद्देश्य इसके विपरीत हो, विध्वंसात्मक हो, अज्ञान फैलाना हो, भ्रम पैदा करना हो, संदेह बोना हो, तब? ऐसे व्यक्ति को ‘कुपात्र’ कहा गया और उसके लिए प्रश्न पूछने का हक ही नहीं बल्कि ज्ञान प्राप्ति भी
वर्जित है। उसे प्रश्न पूछने के अधिकार से वंचित किया गया है। सुपात्र को ही उच्च
ज्ञान का अधिकारी बताया गया है। हम जानते हैं, अणु विस्फोट
का ज्ञान सबों को नहीं दिया जा सकता।
बेतुके प्रश्न और कुतर्क से बचें। सृजनात्मक दृष्टिकोण अपनाएं।
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चलो तो सही
कई लोग घूमने के बहुत शौकीन होते हैं। वायु मार्ग, रेल मार्ग, सड़क मार्ग या पैदल जैसे भी हो कहीं न
कहीं घूमते रहते हैं। लेकिन कई लोग, ज़्यादातर, कहीं नहीं जाते, अपने घर या शहर में ही रहते हैं।
वहीं कुछ लोग बस बैठे बैठे हर जगह की कल्पना करते हैं, कार्यक्रम
बनाते हैं, ज्ञान अर्जित करते हैं और मानसिक यात्रा करते
रहते हैं। किसी से सुन लिया, कहीं पढ़ लिया, कहीं देख लिए और पंडित हो गए। उन्हे शहर से बाहर निकलना जोखिम भरा लगता
है।
दो घुमक्कड़ मित्र एक यात्रा पर साथ साथ निकले। एक मोड़ पर आकर रुक
गए। किधर जाएँ? पूछने पर किसी ने बाएँ जाने कहा तो किसी ने
दाहिने। दोनों ने विचार किया गंतव्य तो एक ही है दोनों अलग अलग रास्ते से चलते हैं
और गंतव्य पर मिलते हैं। वहाँ पहुँच कर अपने संस्मरण साझा करेंगे। एक बाएँ मुड़ा और
दूसरा दाहिने।
पहले को रास्ते में बीहड़ जंगल भी मिले, खूबसूरत बगीचे भी। दुर्गम नदियां भी मिलीं शीतल सरोवर भी। शराब घर भी
मिले और शांत आश्रम भी। इन सबको पर करता हुआ वह चलता रहा और आखिर अपने गंतव्य स्थान
पर पहुंचा। गंतव्य पर पहुँचने का आनंद, सुख और शांति उसे
मिली। वहाँ पहुँचने पर उसे समझ आया कि हाँ सब रास्ते एक जैसे ही हैं।
दूसरा लोगों को पूछता पूछता आगे बढ़ने लगा। एक गाँव मिला, गाँव वालों ने उसे अलग अलग रास्ते बताए। वह वहीं ठहर गया। और सब रास्तों
का विश्लेषण करने लगा। जिस रास्ते से कोई आता दिखाई पड़ता उससे उस रास्ते के बारे
में पूछता और समझता। विचार कर उस पर चलना शुरू करता। कुछ दूर चलने पर उसे लगता
दूसरा रास्ता ही ठीक था और वापस मुड़ जाता। रास्ते में कहीं कोई बाधा या असुविधा
दिखती उसे लगता यह रास्ता सही नहीं है और वापस लौट कर दूसरे रास्ते पर चलना शुरू
करता। उस पर भी थोड़ी दूर चलने के बाद वापस लौट पड़ता। वह उसी गाँव में बस गया। औरों
की तरह वह भी आने वालों को रास्ते के बारे में ज्ञान देना शुरू कर दिया। अब वह
पथ-प्रदर्शक बन लोगों को रास्तों के बारे में ज्ञान देना शुरू कर दिया।
आज ऐसे विद्वानों की संख्या बहुत हो गई है। वे कहीं नहीं चलते।
बैठे बैठे ज्ञान जरूर देते हैं। ये कहते हैं ईसाइयत ठीक है, हिन्दू ठीक है, मुसलमान ठीक है, सिक्ख ठीक है या कोई ठीक नहीं है। ये मानते हैं कि कुरान, बाइबिल, गीता ठीक है, या सब
बेकार हैं। ये वे लोग हैं जो चल ही नहीं पाते। क्योंकि सब रास्ते ठीक हैं या खराब
हैं, तब पैर उठते ही नहीं। ये एक रास्ते पर चलते हैं तो
उन्हे दूसरा रास्ता ठीक लगने लगता है, दूसरे पर चलते हैं तो
तीसरा रास्ता ठीक लगता है। चलने
वाले के लिए एक ही रास्ता ठीक है, सोचने वाले
के लिए सब रास्ते ठीक हो सकते हैं। जो
पहुँच जाता है वह ही समझ पाता है कि सब
रास्ते ठीक हैं, अगर चलो तो।
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कौन जानता गांधी को
दुर्गा
पूजा, नवरात्रि, दिवाली, वार्षिक उत्सव, वार्षिक खेल कूद, बड़ा दिन, क्रिसमस और नव वर्ष,
इन सब के पश्चात परीक्षा के दौर के में विद्यालयों की व्यस्तता के कारण कम्प्युटर
के हार्ड डिस्क में बंद पड़ा गांधी
प्रश्नोत्तरी ‘कौन जानता गांधी को’
मार्च के उत्तरार्ध में फिर से बाहर निकल विद्यालयों के दौरे पर चल पड़ा और इसका
प्रारम्भ हुआ जे.डी.बिड़ला इंस्टीट्यूट, मैनेजमेंट विभाग से।
डाइरेक्टर डॉ.मुखोपाध्याय की उपस्थिती में
छात्र-छात्राओं के मध्य गांधी प्रश्नोत्तरी के
खेल का आयोजन सफलतापूर्वक किया गया।
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