गुरुवार, 2 मई 2019

सूतांजली मई, २०१९


सूतांजली          ०२/०१०                                                  मई २०१९
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सरदारजी  की चाय और संस्कार

क्या आप कभी कोलकाता आए हैं? यहाँ सुबह सरदारजी की चाय पीने का आनंद लिया है? गर्मी हो या सर्दी, बरसात हो या सूखा। कोलकाता के सरदार की चाय की अपनी अलग शान है। अगर इससे वंचित रहे हैं तो अगली बार किसी कोलकातावासी को पकड़ कर इसका आनंद लें और ठाठ देखें। अपनी इच्छानुसार गाड़ी में बैठे बैठे मजे लीजिये या फुटपाथ पर टूल लगा कर बैठ जाइए। ना... ना... ना..., आपको टूल नहीं ले जाना है, चाय वाला ही इसकी व्यवस्था रखता है। वैसे यह अलग बात है कि कई बड़े बड़े ग्रुप अपना टूल भी गाड़ी में डाल कर साथ ले आते हैं। इसी प्रकार अगर गाड़ी में पीना है तब भी न लेने उतरना है, न पेमेंट करने, न पत्तल-प्लेट-कुल्ल्हड़ फेंकने या वापस करने उतरना है। सब चायवाले की ही जिम्मेदारी है। चाय वाला पूरी व्यवस्था रखता है। कुल्ल्हड़ में चाय पीजिए, निमकी, गाठिया, समोसा, सब्जी कचोरी, टोस्ट, जलेबी जो इच्छा हो लीजिये। कोलकाता में ऐसे नुक्कड़ एक नहीं, कई हैं। कई कोलकातावासियों का तो दिन यहाँ बैठे बिना शुरू ही नहीं होता। यहाँ बैठे बैठे हम अपने शहर, राज्य और देश की ही नहीं बल्कि विश्व की राजनीति, अर्थ व्यवस्था, सामाजिक व्यवस्था, खेल-कूद, धर्म आदि सब की दिशा और दशा निर्धारित कर देते हैं।

चायवाले का लड़का चाय देता है, जूठे पत्तल, दोने, कुल्ल्हड़ फेंकता है और पेमेंट भी लेता है। ऐसे ही एक चाय वाले के यहाँ एक दिन एक नया लड़का दिखा। उसने हमें चाय दी, निमकी दी। पीने के बाद कुल्ल्हड़ और दोना फेंकने वापस लिया। फेंक कर उसने हाथ धोया और फिर दुकान पर पहुंचा। मैं देखता रहा गया। कहाँ से मिले होंगे उसे यह संस्कार, हाथ धोने के? परिवार में ही मिला होगा। क्या हम इस और ऐसे संस्कारों की रक्षा कर पाएंगे? इन लड़कों में हाथ धोने की प्रथा है ही नहीं। उसी हाथ से दूसरे, तीसरे .... ग्राहकों को चाय आदि पकड़ाते रहते हैं। और हम भी इस बात की जरा भी अपेक्षा नहीं रखते की वह बार बार पानी से हाथ धोये। 

याद आ गए  बचपन के वे दिन जब चौके या खुली छत पर जमीन पर बैठ कर खाना खाते थे। कोई दूसरा परोसता (डालता) था। खाते समय हाथ लगाना सख्त मना था। पका भोजन ठाकुर (इष्ट देव) को प्रसाद लगाया जाता था। बुजुर्ग, गणमान्य या ब्राह्मण-पंडित भी भोजन करते थे। अत: जूठ-कूठ का बहुत ध्यान रखा जाता था और बार बार हाथ धोते रहते थे। धीरे धीरे यह प्रथा उठ गई और अंग्रेजों की तरह टेबल कुर्सी पर बैठ कर खाने लगे। भगवान को भोग लगाना कहीं उठ गया, कहीं सीमित हो गया और कहीं जंजाल लगने लगा। यह काम घर के बुजुर्ग तक सीमित रह गया। खाना टेबले पर ही रख दिया जाता है। खाना-खिलाना बिना किसी भेदभाव के चलते रहता है, बिना किसी सोच विचार के। जूठ का विचार ही उठ गया।

चाय की दुकान का वह नया लड़का भी कितने दिन हाथ धोयेगा? कितने दिन यह संस्कार ढो पाएगा। सबों को देख कर उसका यह संस्कार अपने आप मिट जाएगा। हम संस्कार न तो दे पा रहे हैं, न उसका संरक्षण कर पा रहे हैं । संस्कार को धकेलकर सुविधा को अपना रहे हैं

यह ठीक वैसे ही है जैसे सदियों से चली आ रही जैविक खेती (ओरगनिक फ़ार्मिंग) हटा कर रसायनिक खेती की गई, कागज-पत्तल-कपड़े के दोने और झोलों को हटा कर प्लास्टिक थैले प्रारम्भ हुए। अब पर्यावरण की दुहाई देते हैं। क्या इस पर विचार करने का समय हमारे पास है?
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सम्मान के पीछे क्या है?
लाओत्से का नाम आपने सुना होगा। चीन के जानेमाने दार्शनिक थे। उनके दर्शन को बहुत कम लोगों ने समझा। एक बार चीन के सम्राट ने लाओत्से को अपने देश का प्रधान मंत्री बनाने का निश्चय किया। लाओत्से को जैसे ही यह पता चला वह भाग खड़ा हुआ। वह भागता फिरता था एक गाँव से दूसरे गाँव। जैसे ही सम्राट के लोग दूसरे गाँव पहुँचते उन्हे पता चलता लाओत्से तीसरे गाँव भाग गया। सम्राट हैरान। वह उसे देश का प्रधान मंत्री बनाने के लिए बहुत उत्सुक था। तब फिर लाओत्से भाग क्यों रहा है? आखिर सम्राट ने एक दूत लाओत्से के पास भेजा और कहलाया तुम भागो मत। तुम नाहक परेशान मत होओ। सम्राट ने कहलाया कि वह तो लाओत्से को एक महान सम्मान देना चाहता है। वह लाओत्से को राष्ट्र का सर्वोच्च पद प्रधान मंत्री बनाना चाहता है। फिर वह भाग क्यों रहा है? लाओत्से ने खबर भिजवाई कि मैं सम्मान से नहीं भाग रहा हूँ। मैं उस अपमान से भाग रहा हूँ जो उस सम्मान के पीछे छिपा है  वह दूसरा हमें दिखाई नहीं पड़ता। उस दूसरे को देख लेना ही बुद्धिमानी है।

लाओत्से नहीं कहता कि सुख वासना छोड़ दो वह तो बस इतना कहता है कि वासना के पीछे जो उसका विपरीत है उसे भी देख लो। सुख के पीछे का दुख समझ लो, फूल के पीछे का कांटा भी देख लो।

बड़ा रुपया और बड़ी नौकरी के पीछे छूटता अपना परिवार, समाज, भाषा, वेश-भूषा, साहित्य-संस्कृति,  संस्कार को भी देख लो। कहीं ऐसा तो नहीं कि अपने साध्य के लिए हम जिस साधन का इस्तेमाल कर रहे हैं  उस साधन के लिए साध्य को ही भूल गए। साधन ही प्रमुख हो गया साध्य पीछे छूट गया?
ताओ उपनिषद 2/146 ओशो
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कौन जानता गांधी को
अप्रैल 2019 में गांधी क्विज कौन जानता गांधी को का सफर शानदार रहा। दक्षिण कोलकाता के विद्यालयों का ही बोलबाला रहा। गरियाहाट स्थित   बीएसएस विद्यालय (बालीगंज शिक्षा सदन), भारतीय विद्या मंदिर की भवन्स गंगाबक्स कानोरिया विद्यामन्दिर साल्ट लेक, बिड़ला हाइ स्कूल (हिन्दी हाई स्कूल) मोयरा स्ट्रीट और लक्ष्मीपत सिंघानिया अकादमी, अलीपुर में हमने अपना परचम लहराया। छात्र-छात्राओं का जोश और उत्साह देखते ही बनाता था। शिक्षकों का सहयोग अभूतपूर्वक था। विद्यालय के प्राध्यापक, निर्देशक भी उपस्थित रहे और हमारे प्रयास की सराहना की।  
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हमें आपकी प्रतिक्रिया का इंतजार रहता है। - महेश

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