मंगलवार, 1 सितंबर 2020

सूतांजली सितम्बर 2020

 सूतांजली

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वर्ष : ०४ * अंक : ०२                         👂🔊                                सितम्बर * २०२०

तर्क और ज्ञान

ईर्ष्या और अभिमान हमारे दिल में चुपके से ऐसे प्रवेश कर जाते हैं जिसका हमें अहसास तक नहीं होता और हम उसके शिकार हो जाते हैं, हम उसके वाहक हो जाते हैं। एक नगर में एक सेठ रहता था। उसके मन में हमेशा यह रहता था कि उसके नगर में कोई भी मजदूर बेरोजगार न रहे, हर मजदूर को रोजगार मिले। वह रोज सुबह ८ बजे नगर के चौराहे पर चला जाता था और वहाँ खड़े हर मजदूर से बात करता और कहता मेरे यहाँ काम हो रहा है। मुझे मजदूर चाहिए। ९ से ५ तक काम करना है और मैं १०० रुपए दूँगा। चूंकि यह समयानुकूल तय मजदूरी थी, सब मजदूर खुशी खुशी उसके साथ चले जाते थे। ९ बजे सेठ फिर आता था और वहाँ खड़े सब मजदूरों को वापस ५ बजे तक के काम के लिए १०० रूपए की मजदूरी पर ले आता था। इस प्रकार ४ बजे तक वह हर घंटे जाता और वहाँ खड़े हर मजदूर को ५ बजे तक के काम के लिए १०० रुपये की मजदूरी पर ले आता। ५ बजे सब मजदूर हाथ-पैर धो कर मजदूरी लेने जमा हो जाते। तब वे देखते कि ९ बजे से जो काम कर रहा था और ४ बजे से जो काम कर रहा था सब को समान १०० रुपए की ही मजदूरी मिल रही है। तब किसी को क्रोध आता, किसी को दु:ख होता, किसी को ग्लानि होती, कई चुपचाप शांत, स्थिर मन से अपनी मजदूरी लेकर चले जाते, कइयों को यह अन्याय लगता। कई तो सेठ से लड़ पड़ते, “यह तो आप हमारे साथ अन्याय कर रहे हैं”।

सेठ पूछता, तुम्हें ९ से ५ बजे तक काम करना था?’

“हाँ”

तुमने उतनी ही देर काम किया?’

“हाँ”

तुम्हें १०० रुपए ही मजदूरी मिलनी थी?’

“हाँ”

तुम अगर कहीं और काम करते तब भी तुम्हें इतनी ही मजदूरी मिलती?’

“हाँ”

तब तुम क्यों नाराज हो रहे हो? तुमको वह मिला जो तुम्हें मिलना चाहिए था। दूसरे के साथ क्या हुआ यह जानकर तुम क्यों दुखी हो रहे हो? तुम्हें उससे क्या मतलब?’

एक तार्किक इसमें तर्क ढूंढ रहा है, एक ज्ञानी ज्ञान दे रहा है। लेकिन एक इंसान तो बस इतना ही समझ रहा है कि दूसरे के सुख में दुख ढूँढने वाला कभी सुखी नहीं हो सकता। यही हमारा अभिमान है यही हमारी ईर्ष्या है। उन्हें दुख इस बात का था कि दूसरे को भी उतना ही क्यों मिला? हमारे दुख का कारण दूसरे का सुख था। किसी की तारीफ करने का अर्थ यह नहीं कि हम किसी दूसरे की निंदा कर रहे हैं। यह मनोवृत्ति हमें आगे बढ़ने से रोकती है। यह हमें हमारी अंतरात्मा से दूर करती है। यहाँ हमारा अंहकार अनेक प्रकार के तर्क देने लगता है। हम में ईर्ष्या और अभिमान भरने लगता है। यह आवश्यक है कि हम सख्ती से उसे कहें, मैं तुम्हारी नहीं सुनता, अपना मुँह बंद करो”। इसका किसी तर्क से कोई संबंध नहीं, किसी ज्ञान से कोई संबंध नहीं।

यह और ऐसी ही छोटी छोटी कहानियाँ तर्क से परे हैं, ज्ञान की सीमा के बाहर हैं। इनका उद्देश्य जीवन की जटिलताओं को सहज करना है। इन्हें वैसे ही ग्रहण करें, तर्क न करें।

(श्रीमती अपर्णा जी  द्वारा श्री औरोबिंदो आश्रम, वन निवास, नैनीताल में जून २०१९ को दिये गए व्याख्यान से संकलित)

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सरकारी कर्मचारी

दक्षिण अफ्रीका से लौटने पर गांधी ने अपने राजनीतिक गुरु गोखले से मुलाक़ात की। श्री गोखले ने  गांधी को एक वर्ष तक भारत-भ्रमण की सलाह दी ताकि वे भारत को ठीक से समझ सकें। उनकी बात शिरोधार्य कर गांधी भारत-भ्रमण पर निकल पड़े। उनका उद्देश्य था भारत को समझना। उनके लिए इसका अर्थ था भारतवासियों को समझना और इस कारण उन्हों ने अपनी पूरी यात्रा रेल के तीसरे दर्जे में ही की और बड़े 

शहरों के बदले उनका ध्यान गांवों, कस्बों और छोटे शहरों पर ही  ज्यादा रहा।  इस यात्रा के दौरान उन्हें यह पता चला कि आम जनता रेल में सफर के दौरान  मानने वाले साधारण नियम और अनुशासन का ख्याल नहीं रखते, अत: उन्हें इसकी जानकारी देना आवश्यक है। इसके अलावा उन्होने यह भी साफ तौर पर देखा कि रेलवे कर्मचारियों का भी व्यवहार इन यात्रियों के प्रति सही नहीं है। 1916 में कोचरब आश्रम से उन्होने अपनी प्रतिक्रिया लिखी। यह तो विशेष रूप से रेलवे कर्मचारियों के लिये लिखी गई थी लेकिन आज आजादी के 7 दशकों बाद भी कमोबेश हर विभाग के सरकारी कर्मचारी पर लागू होती है। अत: उनके लिखे में रेल को मैंने सरकारी शब्द से अदल बदल कर दिया है। उन्होने लिखा –

ü  यदि आप सरकारी कर्मचारी हैं तो आप जनता के बहुत से दुख दूर कर सकते हैं। जनता के साथ नम्रता का व्यवहार कर, आप अपने मातहतों को वैसा ही करने के लिए प्रेरित कर सकते हैं।

ü  धनी और प्रभावशाली जनता को आप जितना समय और ध्यान देते हैं उतना ही गरीब जनता को भी दें।

ü  आपको रिश्वत नहीं लेनी चाहिए और गरीब जनता को मारना, गली देना, तू कह कर सम्बोधन करना न तो उचित है न ही आपका बड़प्पन है।

ü  जनता को बल पूर्वक दूसरे बलहीन और अनपढ़ का हक नहीं छीनना चाहिए। बल्कि अगर कोई ऐसा कर रहा है तो उसका शांतिपूर्वक प्रतिवाद करना चाहिए।

ü  ज्यादा सामान लेकर सफर नहीं करना चाहिए। सामान इतना ही होना चाहिए कि आपकी सीट के नीचे आ जाये तथा सह यात्रियों को भी अपना सामान रखने की जगह मिल जाये।

ü  सफर में जात-पाँत-वर्ण, शहर-प्रांत आदि का भेद भाव नहीं  रखना चाहिए। भ्रातृ भाव से सबों को माँ भारती का पुत्र ही समझ कर सफर करना चाहिए।

आम जनता में ही एक बहुत बड़ी संख्या सरकारी कर्मचारियों की है। आम जीवन में हर सरकारी कर्मचारी को एक दूसरे विभाग के कर्मचारी से काम पड़ता रहता है। जब उनके साथ भी दुर्व्यवहार होता है उन्हें बुरा लगता है। लेकिन मौका पड़ने पर वे भी वैसा ही दुर्व्यवहार करते हैं। उस समय जरा सा यह विचार करना चाहिए कि उन्हें कैसा लगा था।  बुरे, अच्छों को देख, बुराई छोड़ अच्छे नहीं बनते। लेकिन अगर अच्छे, बुरों को देख, अच्छाई न छोड़ें तो भी दुनिया बदल जाएगी।

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इत्तिफ़ाक इत्तिफ़ाकन नहीं होते

जी हाँ, सही पढ़ा है आपने। इत्तिफ़ाक इत्तिफ़ाकन नहीं होते, इन्हे साधना पड़ता है या यूं भी कह सकते हैं कई बार हम जाने अनजाने इत्तिफ़ाक को साध लेते हैं। कई बार ऐसा होता है कि सुशील भैया से फोन पर बात करने की इच्छा होती है और तभी उनकी घंटी बज उठती है। या फिर फोन की घंटी बजती है हमें लगता है कि विशाखा का ही फोन है और हैलो करने पर पता चला कि हाँ उसी का फोन है। मैं एक पुस्तक ढूंढ-ढूंढ कर परेशान। न किसी पुस्तकालय में, न किसी दुकान पर, न किसी ऑन लाइन स्टोर पर, कहीं नहीं मिलती और तभी रतन जी के टेबल पर मुझे वह पुस्तक इत्तिफ़ाकन पड़ी मिल जाती है। अभी समोसा खाने को जी चाह रहा है और तभी समधी का ड्राईवर समोसा लेकर हाजिर हो जाता है। द्वादश ज्योतिर्लिंगों के बारे में विचार कर रहा था तभी समधिन का फोन आता है और बताती हैं कि उनके गुरु शिवपुराण से द्वादश ज्योतिर्लिंगों की कथा फ़ेस बुक पर कर रहे हैं, मैंने उसका लिंक आपको भिजवाया है। ऐसा, कमोबेश हम सबों के साथ हुआ है, होता है। लेकिन हर समय नहीं होता। कभी होता है कभी नहीं। ऐसा क्यों?

एक और सच्चाई है – हमें जब किसी कार्यवश सुबह जल्दी उठना होता है, न हम कोई अलार्म लगाते हैं, न किसी को उठाने बोलते हैं लेकिन फिर भी एकदम सही वक्त पे हमारी नींद टूट जाती  है। क्यों होता है ऐसा? और अगर ऐसा होता है, तो ठीक है, होने दें, अच्छा है।

सोच रहे हैं कि यह हमारे जाने बिना होता है; बिना हमारे किसी मेहनत के होता है; तब इस पर दिमाग खपाने की क्या आवश्यकता है? सीधी सी बात है। प्रकृति के अनेक नियमों की जानकारी हमें धीरे धीरे हुई, जैसे गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त। ये सिद्धान्त तब भी थे जब हमें उनकी जानकारी नहीं थी और अपने नियमों का विधिवत पालन कर रही थीं। ऐसा नहीं हुआ कि पहले और बाद में उसके नियमों में कोई फर्क आया। लेकिन, जानकारी मिलने के बाद उसके आधार पर कई आविष्कार हुए, नई खोजें हुई। जानकारी मिलने पर हमारी निर्माण क्षमता का विकास हुआ। अगर हम उन्हें  जानते हैं तब हम उसके अनुरूप कार्य करते हैं, फलस्वरूप हमारा निर्माण कार्य द्रुत गति से होता है। लेकिन जानकारी न होने पर हो सकता है हम इसके विपरीत कार्य करते हों, जिससे निर्माण कार्य बाधित होता हो। कहने का मतलब यह कि अगर हम इस पर कार्य करें तो इसे साध सकते हैं।  मजे की बात यह है कि यह जानते हैं, मानते  हैं फिर भी समझते नहीं।

हम चाहते हैं प्रेम, लेकिन चिंतन द्वेष का करते हैं। चाहते हैं धन लेकिन डरते रहते हैं गरीबी से। हम चाहते हैं निरोगी काया, लेकिन विचारों में केवल रोग समाया रहता है। यानि जो चाहते हैं, चिंतन उसका उलटा करते हैं। हम कहते हैं, जो बोया वो काटा। इसे हम केवल कर्मणा मानते हैं। लेकिन प्रकृति का सिद्धान्त इसे मनसा, वाचा, कर्मणा मानती है। यानि जब ये तीनों एक साथ होते हैं तभी त्वरित और सटीक ढंग से कार्यान्वित होता है। हमने यह भी देखा और अनुभव किया है कि हम किसी अंजान व्यक्ति से मिलते हैं और देखते ही उससे द्वेष या प्रेम का भाव उत्पन्न होता है और ठीक वैसी ही धारणा उसके मन में हमारे बारे में होती है। कटु वचन के बदले कटु वचन और प्रेम के बदले प्रेम के बोल ही सुनने को मिलते हैं। हम जो कहते हैं, जो सोचते हैं, जो विश्वास करते हैं वही फलीभूत होता है। हम नफरत करते हैं तो नफरत के अनुरूप परिस्थितियों का निर्माण होता है, शिकायत करते हैं तो शिकायत करने लायक परिस्थितियों का निर्माण होता है और धन्यवाद देते हैं तो धन्यवाद देने लायक परिस्थिति पैदा हो जाती है। यही प्रकृति का नियम है। अगर मन, कर्म और वचन में विरोधाभास हो या संदेह हो या अनावश्यक विचार हो  तब हमारी इच्छपूर्ति में रुकावटें पैदा हो जाती हैं। देखें ऐसा होता है या नहीं’, एक बार आजमा कर देखें क्या होता है जैसे विचार रुकावट ही पैदा करते हैं। प्रकृति अति विशाल है, यहाँ बहुत कुछ निरंतर घटित होता रहता है, बहुत से कार्य हमारी सोच और समझ के बाहर होती हैं और अ-तार्किक लगती हैं। इसका केवल एक जवाब है – धैर्य और विश्वास।

हम जो चाहते हैं, वह हमें मिलेगा। हम जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा लेकिन उस पर हमें यकीन करना होगा। दिखना ही विश्वास करना है (सीइंग इज बिलीविंग) के विपरीत डॉ वेन डायर ने कहा आप तब देखेंगे जब आप विश्वास करेंगे (यू विल सी इट व्हेन यू बिलीव इट)। विश्व विख्यात मनोविशेषज्ञ कार्ल हयुंग से पूछा गया, क्या आप मानते हैं कि ईश्वर है’?  उन्होने छूटते ही जवाब दिया,नहीं मैं नहीं मानता कि ईश्वर है, मैं यह जानता हूँ कि ईश्वर है”। हम जितने मनोयोग से किसी विचार को व्यक्त करते हैं उसका परिणाम भी उतना ही तीव्र और सटीक होता है।

इसलिए कहा जाता है हर समय अच्छा सोचें, सकारात्मक सोचें, निर्माण का सोचें। हमारी यह सोच फलीभूत होकर विश्व को बदल देगी।   

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                                                लघु कहानी - सराहना  और क्षमता

एक नट था। उसकी कलाबाजियाँ देख लोग दाँतो तले अंगुलियाँ दबा लेते थे। वह दो रस्सियों और एक झंडे की मदद से दो बीस मंज़िला इमारतों के बीच की दूरी आसानी से तय कर लेता था। एक ओर की दूरी तय कर लेने के बाद वह अपने सहायक को कंधे पर बैठाकर दूसरे छोर तक वापस आता था। एक दिन जब उसके करतब पर लोग तालियाँ बजा रहे थे तो उसने पूछा कि क्या उन्हें विश्वास है कि वह ऐसा दुबारा कर पायेगा? सभी ने पूरे जोश के साथ हामी भरी । एक पल के  लिए ठहर कर उसने भीड़ से दूसरा सवाल किया। उसने पूछा कि वे लोग आगे आयें जो उसके करतब में सहायक बनने को तैयार हों। अचानक चारों तरफ सन्नाटा छा गया। भीड़ में से  एक भी व्यक्ति आगे नहीं आया। 

प्रतिभा पर सराहना और क्षमता पर विश्वास दो अलग अलग बातें हैं।

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ज़ूम पर सूतांजली के आँगन में

हमने ज़ूम पर सूतांजली के आँगन में प्रारम्भ किया है। अगस्त माह में इसके तीन प्रसारण हुए, रविवार 2, 16 एवं 30 अगस्त को। 2 अगस्त के प्रसारण में हनुमान चालीसा की व्याख्या की थी श्री संदीप लोधा, सिंगापूर ने। 16 को दार्शनिक कविताओं का गायन एवं पाठ किया गया और 30 अगस्त को श्री प्रमोद शाह ने संगठन की सकारात्मक यात्रा के बुनियादी तत्व पर सारगर्भित चिंतन प्रस्तुत किया जिसे श्रोताओं ने बहुत पसंद किया।

सितम्बर माह में इसके दो  प्रसारण निर्धारित हैं, रविवार 13 एवं 27 सितम्बर को। यथा समय इसकी सूचना व्हाट्सएप्प एवं मेल पर दी जायेगी। अगर आपको सूचना नहीं मिल रही है तो कृपया अपना नाम एवं फोन नम्बर या ई-मेल हमें भेजें, sootanjali@gmail.com पर। आपकी उपस्थिती और सहयोग के लिए हम आपके आभारी हैं।

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2 टिप्‍पणियां:

Rashmi Haralalka ने कहा…

Mahesh bhaiya your articles are very good.They have meaning behind.I feel like reading again.Thank you.

Rashmi Haralalka ने कहा…

Mahesh bhaiya your articles are very good.They have meaning behind.I feel like reading again.Thank you.

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