रविवार, 1 नवंबर 2020

सूतांजली, नवम्बर 2020

 सूतांजली

~~~~~~~~

                     

वर्ष : ०४ * अंक : ०४                         👂 🔊 (18.55)                                    नवम्बर * २०२०

       


तमसो मा ज्योतिर्गमय

दीपोत्सव के वंदन

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

माँ से प्रार्थना

(00.00 - 03.03)

माँ, मुझे मेरे क्रोध से, अकृतज्ञता और मूर्खता भरे दर्प से मुक्त कर। मुझे शान्त, विनम्र और कुलीन बना। वर दे कि मैं अपने कर्म और अपनी सभी गतिविधियों में तेरे ही दिव्य नियंत्रण का अनुभव करूँ।

 मैं प्रार्थना करता हूँ कि मैं सभी हठधर्मिता और स्वाग्रही-भाव से मुक्त हो जाऊँ ताकि मैं तुम्हारा  विनीत तथा आज्ञाकारी सेवक बन सकूँ, तुम्हारे कार्य के लिये उपयुक्त यंत्र बन सकूँ और मैं प्रार्थना करता हूँ कि माँ, मैं जो कुछ करूँ तुम्हारे प्रति समर्पित होकर करूँ और सदा तुम्हारा पथ-प्रदर्शन पाता रहूँ।

माँ, वर दे कि आज से मैं एक सुदृड़ निश्चय के साथ अपने अन्दर से सभी भूलों को निकाल बाहर फेंक दूँ और मुझे वर दे कि मैं इस कार्य में ऊर्जा तथा अध्यवसाय के साथ तब तक लगा रहूँ जब तक कि मैं इसमें पूरी तरह सफल न हो जाऊँ। वर दे कि मैं समस्त घमण्ड, झगड़ालू-प्रवृत्ति, आत्म-अहंकार और दर्प से पिण्ड छुड़ा लूँ; वर दे कि मैं तुम्हारा विरोध कभी न करूँ, हमेशा तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँ; वर दे कि मैं न कभी दूसरों से ईर्ष्या करूँ, न विद्वेष, अपशब्द, अभद्र व्यवहार, मिथ्यात्व, आत्म-ख्याति, माँग, असंतोष और शिकायत के चंगुल से निकल जाऊँ। वर दे कि मैं सबके साथ मैत्री का व्यवहार करूँ, किसी के भी प्रति कभी दुर्भावना न रखूँ।

माँ, वर दे कि मैं तुम्हारा सच्चा बालक बन सकूँ।

(श्री अरविंद सोसाइटी की पत्रिका अग्निशिखा में प्रकाशित प्रार्थना पर आधारित)

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

वंश या धर्म?

(03.03 - 5.39)

वंश के नष्ट होने से धर्म का नाश होता है या धर्म के नष्ट होने से वंश समाप्त होता है?

कई बार मन में यह दुविधा उत्पन्न हो जाती है। पहले क्या नष्ट हुआ कौरव वंश या धर्म? धर्म के नष्ट होने से अधर्म आ कर उस स्थान को भर देता है। फिर यह अधर्म ही उस कुल को नष्ट कर देता है। जैसे वायुमंडल में ऐसी कोई जगह नहीं जहां वायु न हो, वैसे ही धर्म या अधर्म किसी एक का वास रहता है। जिस प्रकार गरम हवा के ऊपर उठ जाने से शीतल हवा उस रिक्त स्थान को भर देती है उसी प्रकार अधर्म के नष्ट होने पर धर्म और धर्म के हट जाने से अधर्म आ उपस्थित होता है। कितने ही काले-अँधियारे बादल हों रात नहीं होती। रात होती है सूर्य के अस्त होने से। अत: हमें धर्म कृत्य नित्य करते रहना चाहिए। धर्म का अभाव, अधर्म उत्पन्न कर देता है।

ब्राह्मण का कार्य है धर्म की स्थापना करना और राजा का कार्य है अधर्म का नाश करना।  इस प्रकार दोनों ही धर्म राज्य की स्थापना करते हैं। धर्मात्मा राजा वही है जो अधर्म के नाश के साथ साथ ब्राह्मण को संरक्षण दे, धर्म की स्थापना में भी सहयोग दे। संन्यासी भी कर्म विहीन नहीं होते। उनका कार्य केवल भिक्षाटन पर जाना और अपनी कुटी में आराम करना नहीं है। उनके लिए भी करने योग्य कर्म करने का विधान है। धार्मिक कार्य में प्रवृत्त न रहने से संन्यासी का संन्यास अधूरा ही कहा जाएगा।

अत: धर्म का समर्थन करें, अधर्म का विरोध भी

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

कैसे थमाएं परम्परा अगली पीढ़ी को

(5.39-11.55)

हमारी मान्यता, हमारी परम्परा, हमारी संस्कृति, हमारे संस्कार। ये वे तत्व हैं जिसे हमने अपने बुजुर्गों से पाया है और हमारा यह दायित्व बनता है कि हम इन्हें और समृद्ध कर भावी पीढ़ी को थमायें। यह हमारे जीवन का रिले रेस है। जाने-अनजाने हम सब इस दौड़ में शामिल हैं। हमारी जीत इसी बात पर निर्भर करती है कि कितनी सावधानी से हमने इस दौड़ की छड़ी को पकड़ा, निभाया और फिर आगे पकड़ाया। इन तीन प्रक्रियाओं में हमें इन्हे जस-का-तस आगे नहीं बढ़ाना है। जब ये हमारे हाथ में होती है तब हमें इसे और परिष्कृत करना है, सजाना है, सँवारना है। जिसने अपना अर्थ खो दिया है उसे छोड़कर नये मूल्यों और अर्थों को जोड़ना है। इसलिए यह जरूरी है कि लेते समय और देते समय इसका अर्थ भी समझें और समझाएँ। अगर समझने - समझाने का कार्य साथ साथ न चला तो यह निश्चित है कि ये खुद अपनी मौत मर जाएंगे। इसका अस्तित्व बनाये  रखने के लिए जितना छोड़ रहे हैं उतना ही जोड़ना भी होता रहे। इस जोड़-घटाव में हमें सावधान रहना होगा। हम अपने सांस्कृतिक मूल्यों तथा मान्यताओं को अंधविश्वास मान कर छोड़ रहे हैं और पश्चिम को बिना समझे सुविधा के नाम पर अपना रहे हैं। हमें अपनी धरती से जुड़े प्रगतिशील जीवन-मूल्यों को, स्वाभिमान को साथ लिए नये कीर्तिमान गढ़ने हैं? हिमालय सा उत्तरदायित्व है हम पर और इस युवा पीढ़ी पर।

श्री सुदर्शन बिड़ला ने कहा कि हम अगली पीढ़ी को क्या दे कर जाएंगे? कितना भी धन दें, उसका कोई भरोसा नहीं, वह रहेगा या नहीं। हम सबसे महत्वपूर्ण वस्तु जिसे अपने बच्चों को दे कर जा सकते हैं वह है संस्कार। जीवन पर्यंत ये उसके साथ रहेंगे। बाकी सब नष्ट हो सकते हैं, खो सकते हैं। खो कर वापस पा सकते हैं। लेकिन मिले हुए संस्कार जीवन पर्यंत हमारे साथ रहते हैं। इसे हम खो नहीं सकते और अगर छोड़ दिया तो फिर पाना आसान नहीं। जीवन के संगीत की इस छड़ी को बहुत संभाल कर लेना, चलना और आगे बढ़ाना है। हम इस रेस में हैं या इससे बाहर हो गए यह इसी बात पर निर्भर करता है कि हमने अपने उत्तरदायित्व का निर्वाह कितनी ज़िम्मेदारी से किया है। सही ढंग से निर्वाह न कर पाने के कारण विश्व की अनेक महान सभ्यताओं का नामों निशान मिट गया, लेकिन  कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी। जब तक इस कुछ बात को समझते और समझाते रहेंगे हम बने रहेंगे नहीं तो हम भी इतिहास के पन्नों तक सीमित रह जाएंगे। 

ऑस्ट्रेलिया, सिडनी एवं अन्य कई शहरों से एक पत्रिका निकलती है – इंडियन लिंक, अँग्रेजी में। बिना किसी मूल्य के प्राय: हर भारतीय स्टोर में मिल जाती है, ऑस्ट्रेलिया में। इसकी संपादिका हैं श्रीमती रजनी आनंद लूथरा। वे लिखती हैं कि उनकी सास नियम से, हर दिवाली पर पूजा की थाली से एक रुपये का एक सिक्का 

निकाल कर अलग से, इसी प्रकार दिवाली पर निकाले गए सिक्कों के साथ रख देती थीं। पीढ़ियों से चली आ रही इस परंपरा ने अजीबो गरीब सिक्कों का एक खजाना तैयार कर दिया जिसमें अनमोल और अनेक तरह के सिक्के थे। हर वर्ष एक सिक्का जुड़ता रहा। कालांतर में रजनी के साथ रहने वे भारत से ऑस्ट्रेलिया आ गईं। उन्होंने अपना वह खजाना हम दो बहुओं में बाँट दिया। उन्होने कुछ कहा नहीं लेकिन हम दोनों हर वर्ष दिवाली पर एक डॉलर उसमें जमा करने लगे। दिवाली हमारा एक पारम्परिक त्यौहार है। देश-काल के अनुसार इसमें अनेक रंग भरते जा रहे हैं। दीयों के बदले अब छोटे बच्चे अनेक रंग और आकार की मोमबत्ती प्रयोग करना चाहते हैं। कई वही मिट्टी के दिये ही प्रयोग करते हैं, तो कोई दान-उपकार-पुण्य कार्यों से जुड़ी संस्थाओं द्वारा बनाये गए विशेष दीपक प्रयोग करना पसंद करते हैं। लोग दिवाली की मिठाई के बदले मेवे और पौधे बांटने लगे हैं। गांधीजी ने दिवाली पर पटाखे पर समय और पैसे के साथ वातावरण को दूषित करने के बजाय उस धन और समय का उपयोग बच्चों के लिए खेल या चित्रकारी प्रतियोगिता आयोजित करने या फिर
श्रीमती रजनी लूथरा 


पारिवारिक पिकनिक जिसमें घर के बने भोजन और मिठाइयों का सेवन हो
, का सुझाव दिया। रजनी लूथरा लिखती हैं दिवाली जितना पारम्परिक है उतना ही क्रमानुसार उन्नति का प्रतीक भी है। परम्परा का निर्वाह आवश्यक है लेकिन साथ ही मूल्यों, ज्ञान और बुद्धिमत्ता को सँभाल कर रखना भी जरूरी है। समय, स्थान और वातावरण के अनुसार उनमें नये और सार्थक बदलाव और जुड़ाव भी आवश्यक है। परम्परा के नाम पर हम अपने बच्चों को एक नई और स्वस्थ्य संस्कार की छड़ी पकड़ा सकते हैं जिससे नये  संगीत का संचालन हो सके, रिले रेस में आगे रहने का अंदाज़  मिले।

अपनी हस्ती को बचाए रखने के लिए हमें परम्परा को निरन्तर क्रमिक विकासोन्मुख बनाये रखना है। कौन जनता है कई पीढ़ियों बाद दिवाली पर सँजोये गए सिक्कों में अनेक देश-काल के विविध प्रकार के सिक्के जमा हों।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

निष्काम कर्म और कर्म-संन्यास

(11.55-17.09)

(रामायण और महाभारत पर अनेक कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए हैं और अभी भी लिखे जा रहे हैं।  फिल्म और टीवी सिरियल भी बने हैं और अभी भी बन रहे हैं। नाटकों का भी मंचन होता रहा है। गीता पर भी अनेक व्याख्याएँ हैं, टीकाएँ हैं, प्रवचन हैं। कृष्ण और भागवत की तो अनगिनत कहानियाँ और उपन्यास हैं। लेकिन गीता पर; मेरी जानकारी में, नरेंद्र कोहली की शरणम गीता पर रचा गया पहला उपन्यास है। प्रस्तुत है इसी उपन्यास से लिया गया है यह उद्धरण।)

          “अर्जुन, तुम्हें स्मरण है कि जब तुम लोग इंद्रप्रस्थ में थे तो एक रात तुम्हारे पास एक ब्राह्मण आया था। उसकी गाय कोई चुरा कर ले गया था। वह ब्राह्मण चोर को पकड़ने और गाय को लौटा लाने में तुम्हारी सहायता चाहता था। और तुम उसकी सहायता के लिए गए थे”। श्रीकृष्ण ने पूछा।

          हाँ, स्मरण है मुझे, मैं अपना गाँडीव लेने के लिए शस्त्रागार में गया था और संयोग से धर्मराज और पांचाली भी वहाँ उपस्थित थे”। अर्जुन ने उत्तर दिया, “परिणामत: चोर को पकड़ने और ब्राह्मण की गाय लौटा लाने के पश्चात, मैं अपने ही बनाए हुए नियमों के अनुसार बारह वर्षों के वनवास के लिए चला गया था”।

          “चोर को पकड़ने से तुम्हें क्या लाभ हुआ”?

          “वह काम मैंने अपने लाभ के लिए नहीं, शासन के दायित्व के रूप में किया था”।

          “यदि तुम चाहते तो क्या ब्राह्मण तुम्हें कोई पारिश्रमिक नहीं देता”?

          “किन्तु वह काम तो मैंने अपने कर्त्तव्य के रूप में किया था। उसमें पारिश्रमिक का प्रश्न ही कहाँ था। और ब्राह्मण के पास था ही क्या कि वह एक राजकुमार को पारिश्रमिक देता”।

          “अर्थात तुम जानते थे कि उस सारे परिश्रम के बदले में तुम्हें कुछ नहीं मिलने वाला”?

          मैंने कहा न, वह मेरा कर्तव्य था, मेरा शासकीय दायित्व था, मेरा धर्म था। वह कुछ अर्जित करने के लिए नहीं था”।

          “यदि तुम चाहते तो वह चोर भी गाय चुरा ले जाने की सुविधा पाने के लिए तुम्हें उत्कोच दे सकता था”, श्रीकृष्ण बोले।

          “मैंने आपसे कहा न कि मैंने अपने धर्म का निर्वाह किया था”।

          इसी को निष्काम कर्म कहते हैं और यही कर्म-योग है। .........।” कृष्ण बोले, “उस घटना के पश्चात उस ब्राह्मण से न सही, किन्तु धर्मराज से कोई पुरस्कार मांग सकते थे; किन्तु तुम तो पांचों भाइयों में हुए एक संधि के निर्वाह के लिए वनवास के लिए चले गए”।

          “....... किन्तु कर्म-संन्यास मेरे मन में, अब भी बहुत स्पष्ट नहीं है। इस विषय में अनेक विद्वान अनेक प्रकार के मत प्रस्तुत करते हैं”, अर्जुन ने कहा।

          “हाँ, विद्वानों का तो काम ही है, विभिन्न प्रकार के मत प्रस्तुत करना। कृष्ण बोले, “वह उनके अपने स्वभाव, अपने अनुभव और अपने गुरुओं की विभन्नता के कारण है”।

          “कई विद्वान कामनाओं से पूर्ण कर्मों के त्याग को संन्यास मानते हैं”। अर्जुन ने कहा, “क्या, इसका अर्थ है कि जिस कर्म के साथ कामना जुड़ी हो, उस कामना को त्यागने के स्थान पर कर्म को ही त्याग दिया जाए”?

          “अनेक मनीषी कहते हैं कि कर्म को उसके दोष के कारण नहीं, कर्म मात्र को दोष मान कर उसका त्याग कर देना चाहिए

          “किंतु यह तो संभव ही नहीं है”। अर्जुन ने आतुरता से कहा, “आप तो यह नहीं मानते न”?

          “बात तो विद्वानों की है। पहले उसकी चर्चा कर लें”। श्री कृष्ण बोले, “क्योंकि कुछ विद्वान तो यह भी कहते हैं कि यज्ञ, दान और तप रूपी कर्त्तव्य-कर्मों का त्याग नहीं करना चाहिए”। श्री कृष्ण बोले, “क्या विचार है तुम्हारा”?

          “मैं आपका विचार पूछ रहा हूँ”।

          “तो पहले हम त्याग को जान लें। श्री कृष्ण बोले,यज्ञ, दान और तप मनीषियों को पवित्र करने वाले हैं। उनके त्याग से सृष्टि का कोई लाभ नहीं होगा। आसक्ति और फलाकांक्षा कर्म को दूषित करते हैं। उनका त्याग कर्म को पवित्र करता है। इसलिए नियत कर्म का त्याग उचित नहीं है। यह मोहपूर्ण त्याग है, अत: वह तमस त्याग है”

          “कर्म दुखरूप है। परिश्रम के भय से मैं कर्म का त्याग कर दूँ तो”?

        “वह राजस त्याग है”। श्री कृष्ण बोले, “कर्तव्य मान कर कर्म को करना और उसके फल का त्याग, सात्विक त्याग है

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

त्यौहारों पर अभिनंदन

(17.09-17.51)

जाते जाते दिवाली के वार्षिक पर्व पर अभिनंदन / बधाई संदेश के लिए फिर से एक सुझाव। दूसरों के बनाये गए संदेशों को अंगुली के झटके से मत भेजिये। अपना पारिवारिक संदेश खुद बनाएँ या बनवाएँ और उसे ही औरों के पास भेजें। नये युग में, नयी तकनीक अपनाएं लेकिन समझदारी से; संस्कार और संस्कृति से ओत-प्रोत। अपनी पहचान बनाएँ। अनुकरण मत करिये, अनुकरणीय बनिये।

 ~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

ज़ूम पर सूतांजली के आँगन में

(17.51-18.55)

अक्तूबर    

अक्तूबर माह में एक  प्रसारण हुआ। रविवार 11 अक्तूबर को श्री आशीष करनानी ने गुड वेजिटेरियन फूड ऑफ कोलकाता के बारे में बताया। वक्तृता में आशीष ने कोलकाता में उपलब्ध लजीज़ स्ट्रीट फूड्स की जानकारी दी। साथ ही दुर्लभ शाकाहारी भोजन के सम्बंध में भी बताया। इस कार्यक्रम को यू ट्यूब के निम्नलिखित लिंक पर देखा जा सकता है  ->  

https://youtu.be/HsB2o5TKNaw

 नवम्बर

नवंबर माह  के प्रसारण की जानकारी यथा समय व्हाट्सएप्प एवं मेल पर दी जायेगी।

~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~~

अपने सुझाव (suggestions) दें, आपको सूतांजली कैसी लगी और क्यों, नीचे दिये गये एक टिप्पणी भेजें पर क्लिक करके। आप अँग्रेजी में भी लिख सकते हैं।

 

2 टिप्‍पणियां:

Rashmi Haralalka ने कहा…

I enjoy reading sootanjali's stories They are very informative and knwledgable.Please keep sending Mahesh bhaiya.Thank you

Rashmi Haralalka ने कहा…

Sootanjali's stories are very informative.I enjoy reading them.Thank you.

सूतांजली मई 2024

  गलत गलत है , भले ही उसे सब कर रहे हों।                     सही सही है , भले ही उसे कोई न कर रहा हो।                                 ...