सूतांजली
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वर्ष : 06 * अंक : 07
फरवरी * 2023
जो
काम साधारण आदमी को असंभव जान पड़ता है,
उसे
प्रतिभाशाली संभव मानता है।
प्रतिभाशाली
को भी जो असंभव जान पड़ता है,
उसे
जो कर
दिखाये,
वह
है विभूति
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अगर्चे आज गांधी होते
तो................?
मेरे विचार
जितना आसान है यह कहना :
अगर गांधी होते तो ........ अगर गांधी नहीं होते तो.........
उतना ही कठिन है इसका अर्थ समझना।
अगर कोई प्रश्न
/ उत्तर सबसे ज्यादा भ्रम पैदा
करता है तो वह यही है। इनके उत्तर सबसे ज्यादा अविश्वास, संदेह
और अनास्था पैदा करते हैं। यह कथन यह खोखला दावा करता है कि हम उनके
समकक्ष हैं, हमने उन परिस्थितियों को
जीया है। सच्चाई यही है कि न हम वैसे हैं, न हमने उन
परिस्थितियों का सामना किया है।
इतना ही नहीं, हम उन्हें हटा कर एक रिक्त स्थान
पैदा करते हैं, यह विचार नहीं करते कि उस रिक्त स्थान को भरने कोई और होता या कोई नहीं होता या कुछ
और होता, तब क्या होता, हम उसका आकलन नहीं कर
सकते। न हमारे पास उस व्यक्ति की सी समझ होती है, न दूरदर्शिता, न ऊंचाई। न हम उस परिस्थिति का
वैसा विश्लेषण करते हैं और न ही उस पर उतना विचार। हम केवल अपनी बातें, अपने विचार उस व्यक्ति के नाम से कहते
हैं। और ऐसे वक्तव्यों का एक ही लक्ष्य होता है - अपनी मनोवांछित बात, अपनी मनोकामना को थोपना। जो
नहीं है उसे दिखाना और जो है उसे छुपाना।
मैं तो यही समझता हूँ कि शायद गांधी आज होते तो अपने जीवन का सबसे
बड़ा दुख झेल रहे होते। शायद देश के बँटवारे से ज्यादा और सांप्रदायिक दंगो से
गहरा। इसके लिए यह समझना होगा कि सबसे बड़ा दुख किसे कहेंगे? सुख के बारे में यह किवंदन्ती है कि मनुष्य अपने सुख में उतना सुखी
नहीं होता जितना पड़ोसी के दुख में। लेकिन
फिलहाल मेरा ध्यान सुख पर नहीं दुख पर केन्द्रित है। व्यक्ति सबसे दुखी कब होता है?
अपने
प्रियजन के बिछ्ड़ने से? या
अपने
बनाए आशियाने को बिखरते देख कर? या
अपने
बनाए आशियाने को विरोधियों द्वारा तोड़े जाने पर? या
अपने
आशियाने को अपने समर्थकों द्वारा तोड़े जाने पर?
जूलियस सीज़र को सबसे ज्यादा दर्द तब होता है जब वह अपने जिगरी
दोस्त ब्रूटस को भी अपने
हत्यारों से मिला हुआ देखता है। यानि अपने समर्थक, अपने अनुयायी, अपने प्रियजन को ही जब अपना
आशियाना बिगाड़ते देखते हैं तब बड़ी पीड़ा होती है।
मुझे लगता है कि अगर्चे गांधी आज होते तो उन्हें यही दर्द सहना पड़ता। गांधी ने
तो दिन दहाड़े, सबके समक्ष, छाती पर
गोली खाई। जीते जी, सत्य और अहिंसा का संग्राम लड़ते रहे और कभी घुटने नहीं टेके। लेकिन जब गांधी देखते कि उन्हीं के नाम पर बनाई गई संस्थाएं, उनकी नीति के प्रवर्तक, उनके समर्थक, उनके उत्तराधिकारी ही उनकी पीठ पर गोली चला रहे हैं, लेकिन फिर भी सीना फुलाए घूमते हैं, मालाएँ
पहनते हैं, गांधीवादी कहलाते हैं, तो उन्हे कैसा लगता? क्या किया हमने गांधी के
साथ। अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं :
पहला
– विश्वास की हत्या
गांधी का राजनीतिक जीवन दक्षिण अफ्रीका में प्रारम्भ हुआ। उनका
विरोध था वहाँ की ब्रितानी सरकार की नीतियों से, वहाँ के प्रशासन से। बागडोर थी जनरल स्मट के हाथ में। गांधी की पहली
बड़ी मुठभेड़ उसीसे हुई। गांधी ने ‘दक्षिण
अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास’ में लिखा है कि लोगों ने
गांधी को बार बार समझाया, चेताया कि स्मट विश्वसनीय नहीं
है। स्मट चालक और धूर्त है। वह अपनी बात को पलटने में,
अपनी बात का दूसरा ही नहीं तीसरा अर्थ निकालने में माहिर है। अत: उस पर विश्वास
नहीं किया जा सकता। लेकिन गांधी ने उनकी बातें सिरे दर्जे से खारिज कर दी। गांधी
ने साफ-साफ कहा कि हमें
उस की बातों पर, उसके वादे पर विश्वास करना ही होगा। हमें उसे, अपने वादे पर काम करने के लिए समय देना ही होगा। इस पुस्तक में वे
लिखते हैं, “आप लोग जिसे मेरा भोलापन कहते हैं, वह तो मेरा अभिन्न अंग बन गया है। वह भोलापन नहीं किन्तु
विश्वास है। और मैं मानता हूँ कि अपने मानव-बंधुओं पर विश्वास रखना मेरा और आपका
भी कर्तव्य है”।
ध्यान देने वाली
बात यह है कि गांधी स्मट सरकार की नीतियों और कानून का विरोध कर रहे थे। उधर स्मट
भी गांधी का विरोध कर रहे थे। दोनों एक दूसरे के आमने-सामने खड़े थे। गांधी के सहयोगी गांधी को स्मट के वादों पर विश्वास करने
से मना कर रहे थे। लेकिन इन सब के बावजूद गांधी ने स्मट पर भरोसा और विश्वास किया।
लेकिन इन सब बातों को दर किनार करते हुए हमने अपने ही देश के, अपनी ही जनता द्वारा चुनी हुई सरकार की हर बात पर, हर वादे पर, हर कार्य पर हमने अविश्वास किया, भ्रम फैलते रहे, जनता
को बार बार सरकार पर भरोसा न करने की सलाह देते रहे, उसे झूठा और चोर कहते रहे। हम उनके साथ खड़े थे जिनका कार्य केवल
और केवल विरोध करना था, अपने खुद के हितों के लिए। हम उनके साथ खड़े थे
जो देश में हताशा, अविश्वास और संदेह का वातावरण पैदा कर
रहे थे।
जनता और देश ऐसे लोग खोज रहा था जिससे उनमें आशा और विश्वास का
संचार हो। सरकार द्वारा भ्रष्टाचार के विरुद्ध उठाए गए हर कदम का विरोध कर हम
त्रस्त जनता का विरोध और सम्पन्न लोगों का समर्थन कर रहे थे। आम जनता द्वारा
दर्शाये गए हर्ष पर हमने यही टिप्पणी की ‘दूसरे
का दुख उन्हे सुख पहुंचा रहा है’। हम चीख-चीख कर कह रहे थे कि ‘यह अब तक कि सबसे बड़ी
सरकारी लूट है’। लेकिन यह नहीं बता पाये कि यह ‘सरकार’ है कौन? और उस सरकार ने उस लूट के पैसे का क्या किया? गरीब-त्रस्त जनता के साथ न खड़े होकर हम अमीर-सम्पन्न
लोगों के साथ खड़े थे।
क्या दावे के साथ कहा जा सकता है कि अगर्चे आज गांधी होते तो...... क्या करते
दूसरा – पक्ष और विपक्ष
गांधी
दक्षिण अफ्रीका से भारत आते हैं। उद्देश्य
है भारत के लोगों और यहाँ की सरकार को दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों की
परिस्थिति से अवगत कराना। वहाँ की सरकार द्वारा भारतीयों पर लगाए जाने वाले अमानवीय
करों के प्रावधानों को रद्द करवाना /
रुकवाना भी उनकी यात्रा का एक प्रमुख अंग था। अपनी बात लोगों तक पहुँचाने के लिए
उन्होने ने एक पंफ्लेट भी छपवाया जो हरे रंग का था। उनका यह
पंफ्लेट “The Green Pamphlet” के नाम से विख्यात हुआ।
गांधी के साथ दक्षिण अफ्रीका की सरकार का कोई प्रतिनिधि नहीं था। अत: गांधी ने जब
भी अपना पक्ष रखा उसके साथ उस विषय पर वहाँ की
सरकार का पक्ष भी बड़ी
सिद्दत और सच्चाई के साथ रखा। सरकार के पक्ष को जस-का-तस, बिना किसी काट-छाँट के, बिना कुछ जोड़े-घटाये बताया। उद्देश्य
था पक्ष और विपक्ष दोनों के मतों को लोगों के सामने रखना, ताकि लोग
निष्पक्ष मत बना सकें, सरकार सही फैसला कर सके। क्या
हमारे पास विरोधियों की, सही हो या गलत, आलोचना के अतिरिक्त और कुछ है?
क्या दावे के साथ कहा जा सकता है कि अगर्चे आज गांधी होते तो......
क्या करते
तीसरा – स्वच्छता का मखौल
सरकार
ने स्वच्छ भारत अभियान की नींव डाली। हमें यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि ‘स्वच्छता’ का पहला कदम गंदगी न करना है। हम अपना घर भी सिर्फ इस कारण साफ
रख पाते हैं क्योकि उसे गंदा नहीं करते।
विदेशों में भी गंदगी न करने का
अभ्यास ही स्वच्छता बनाए रखता है। यानि स्वच्छता रखने के लिए यह आवश्यक है
कि गंदगी न की जाये। इसके लिए आवश्यक है कि जनता का सहयोग मिले और वे गंदंगी न फैलाये। यह कोई कठिन कार्य भी नहीं है
केवल जागरूकता की अवश्यकता है। सरकार के आवाहन पर केवल विद्यार्थी और युवा ही नहीं, अच्छे घरों की महिलाएं
भी संगठन बना कर इस कार्य में जुटी हुई थीं। वे जुलूस नहीं निकाल रही थीं बल्कि लोगों में पास जा कर उन्हे
गंदगी न करने का संदेश दे रही थी। जनता भी उत्साहित और सहयोगी थी। जनता द्वारा सरकार को दिया जाने वाला सहयोग
विपक्ष को तो नहीं रुचा, यह बात तो समझ आती है। लेकिन
बुद्धिजीवियों और गांधी वादी संस्थाओं को भी इसमें ‘बू’ आई और इस अभियान का व्यापक
रूप से मखौल उड़ाया गया। जनता में फैल रही जागरूकता ठिठक गई। जनता ने सरकार का साथ
देना बंद कर दिया और वापस अपने दबड़े में घुस गई और ‘गंदगी फैलाओ’ अभियान में फिर से जुट गई। मैं आज तक समझ नहीं पाया कि हम इस अभियान से क्यों नहीं जुड़ पाये।
इस प्रकार जनता को बरगला कर हमने गांधी का कौन सा धर्म निभाया? क्या लाभ हुआ?
क्या दावे के साथ कहा जा सकता है कि अगर्चे आज गांधी होते तो......
क्या करते
चौथा – निष्पक्षता का लोप
यह झिड़की गांधी ने दी थी समाचार पत्रों के संपादकों को, “आप
अपना समय और शक्ति बाल की खाल निकालने में,
दोष-दर्शन में और छिद्रान्वेषण में बर्बाद करते हैं। आपको थोड़ी सी भी त्रुटि मिल
जाती है – फिर वह वास्तविक हो या काल्पनिक – आप अच्छी तरह जांच किए बिना ही
सत्तारूड़ सरकार के विरुद्ध प्रचार करने और अप्रीति फैलाने में उसका दुरुपयोग करते
हैं मालूम होता है कि यह आपका धंधा बन गया है। क्या वर्तमान सरकार की कोई
प्रवृत्ति ऐसी नहीं है, जो आपके सहयोग की पात्र हो?”
गांधी का ध्यान ‘सही’ और ‘गलत’ पर था
लेकिन हमारा ध्यान
व्यक्ति पर है। गांधी मानते थे कि गलत व्यक्ति भी सही हो सकता है और सही व्यक्ति
भी गलत। गलत और सही व्यक्ति नहीं उसका कार्य होता है। ‘पाप’ से घृणा, ‘पापी’ से नहीं। समीक्षा कार्य की होनी चाहिए। लेकिन हम यह मानते हैं कि सही
व्यक्ति हर समय सही है और गलत व्यक्ति हर समय गलत। इतना ही नहीं, यह आकलन करते समय हमारा अपना स्वार्थ भी इससे जुड़ जाता है। हम कभी भी
किसी भी ‘अंगुलीमाल’ को कभी भी ‘वाल्मीकि’ नहीं बनने देंगे। हम क्यों निष्पक्ष होकर निर्णय नहीं ले पाते?
क्या दावे के साथ कहा जा सकता है कि अगर्चे आज गांधी होते तो......
क्या करते?
अगर विश्लेषण करें तो पन्ने के पन्ने रंगे जा सकते हैं। प्रश्न है
खुले मन बातों को समझना। सही और गलत का सही आकलन करना। गलत का विरोध जितना जरूरी
है, सही का समर्थन भी उतना ही आवश्यक है। विरोध
करने के जिद में हम आकलन करने की शक्ति खो देते हैं और गलत राह पर चल पड़ते हैं। गलत के बजाय सही का विरोध ज्यादा जोश से करने
लगते हैं। सही का समर्थन करना हमारे अहम को ठेस पहुंचाने लगता है। यह नितांत
आवश्यक है कि हम निरंतर अपने को कसौटी पर कसते रहें।
अपनी भूल को स्वीकार करने में अहम न
रखें। अगर कदम गलत राह पर निकल पड़े हों तो उसे वापस खींच कर सही दिशा में मोड़ने
में संकोच अनुभव न करें। इस
बात की परवाह न करें कि दूसरा क्या कर रहा है। दूसरे के बुराई हम तुरंत अपना लेते
हैं लेकिन उसकी अच्छाई की तरफ नज़र उठा कर भी नहीं देखते। अपनी अच्छाई बरकरार रखें
और दूसरों की अच्छाई को अपनायें। ऐसा करें तो शायद
हम गांधी के रास्ते पर कुछ कदम तो चल ही पड़ेंगे!
गांधी
के नाम पर अपनी बात कह कर, भ्रामक बातें फैला कर, बे-बुनियाद और अनर्गल प्रश्न कर गांधी को बदनाम न करें, उनको समझने का प्रयत्न करें, कठिन है लेकिन हो सके
तो उनकी तरह सत्य और अहिंसा का मार्ग अपनाएं।
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उपकार मानो, एहसान नहीं संस्मरण - जो सिखाती है जीना
भूदेव बाबू, कोलकाता के जाने–माने समाजसेवी थे। वे भगवान
शंकर के परम भक्त थे। गरीबों-असहायों की भरपूर सहायता किया करते थे। साथ ही
विद्वानों तथा ब्राह्मणों का सम्मान करना वे अपना सर्वोपरि धर्म मानते थे। उनकी
सेवा का कोई मौका वे हाथ से नहीं जाने देते थे। वे अक्सर कहा करते – ‘सरस्वती पुत्र, शिक्षक तथा ब्राह्मण प्राय:
अधिक संकट में रहते हैं। उनकी सेवा-सहायता करके उन्हें शिक्षा एवं सदविचारों के
प्रचार में लगे रहने की दिशा में प्रोत्साहन दिया जाना चाहिये।
उन्होंने विद्वानों की सहायता के लिये अलग से ‘बाबा
विश्वनाथ सहायता कोश’ की स्थापना की। वे प्रतिभाशाली
विद्वानों एवं विरक्त ब्राह्मणों की उस कोश से सहायता किया करते थे।
उनके मुनीम ने वर्ष के अंत में एक सूची उनके सामने प्रस्तुत की, जिसमें लिखा था, ‘इस वर्ष जिन-जिन अध्यापकों
एवं विद्वानों को विश्वनाथ-वृत्ति प्रदान की गयी है, उनकी
नामावली’। सूची देखते ही भूदेव बाबू ने नाराजगी प्रकट
करते हुए कहा, ‘मुनीमजी! उस सूची के ऊपर लिखो कि इस वर्ष
जिन माननीय अध्यापकों और विद्वानों ने विश्वनाथ-वृत्ति स्वीकार करने की कृपा की, उनकी नामावली’।
वे कहा करते थे कि जो विद्वान हमारी सहायता स्वीकार करते हैं, हमें उनका उपकार मानना चाहिये, न कि उनपर
एहसान जताना चाहिये।
(‘कल्याण’, गीतप्रेस
गोरखपुर से)
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