सूतांजली
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वर्ष : 06 * अंक : 08
मार्च
* 2023
पशुता क्या है?
अपने
सुख से सुखी होना और अपने दुःख से दुःखी होना;
मनुष्यता क्या है?
दूसरे के
सुख़ से सुखी होना और दूसरे के दुःख से दुःखी होना ।
स्वामी श्री
रामसुखदासजी महाराज
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नैतिक दृष्टिकोण और आध्यात्मिक दृष्टि
मैंने पढ़ा
जीवन में घटने वाली
घटनाओं को लोग अपनी-अपनी दृष्टि से देखते हैं। यही नहीं हम स्वयं भी अलग-अलग समय,
स्थान पर घटनाओं को अलग-अलग दृष्टिकोण से देखते हैं। हमारा निर्णय
और हमारे ऊपर प्रभाव भी इन्हीं दृष्टिकोण के अनुरूप पड़ता है। हम घटनाओं को भावुक, नैतिक, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत, सामाजिक और अब राजनीतिक दृष्टिकोणों से भी देखते हैं। श्री एम.एस.श्रीनिवासन
ने महाभारत के एक प्रसंग से इसे समझने में बड़ा आसान कर दिया है। यहाँ एक संवाद
महाभारत के प्रसंग से है, जो नैतिक दिमाग के सीमित दृष्टिकोण
और आध्यात्मिक चेतना की गहरी-व्यापक दृष्टि के बीच के अंतर
को दर्शाता है।
महाभारत में
कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद का एक प्रसंग है। धर्मराज युद्ध के कारण हुए अपार विनाश
और जान-माल के नुकसान से निराश और पीड़ित थे।
उन्होंने महसूस किया कि वे किसी-न-किसी तरह से व्यक्तिगत रूप से युद्ध के लिए जिम्मेदार
हैं। इसलिए, व्यक्तिगत अपराध बोध और दुःख की भावना से आहत,
दुनिया को त्यागने और तपस्या करने के लिए वन जाने का फैसला किया।
श्रीकृष्ण उनसे मिलते हैं और यहाँ भगवान कृष्ण और धर्मराज के बीच संवाद है:
श्रीकृष्ण
: धर्मराज, जो मैं सुन रहा हूं क्या वह सच है? तुम्हारे भाइयों ने मुझसे कहा कि तुमने संसार छोड़कर वन जाने का निश्चय कर
लिया है?
धर्मराज
: हाँ, यह सही है, यह मेरा निर्णय
है।
श्रीकृष्ण
: आपको ऐसा कठोर निर्णय लेने की प्रेरणा क्यों हुई?
धर्मराज
: मुझे पछतावा हो रहा है, मैं प्रायश्चित करना चाहता हूँ।
श्रीकृष्ण
: किस बात का पछतावा?
धर्मराज
: युद्ध के कारण।
श्रीकृष्ण
: युद्ध के लिए? मुझे समझ नहीं आया।
धर्मराज
: श्री कृष्ण, मुझे लगता है कि इस युद्ध, विनाश
और रक्तपात के लिए मैं जिम्मेदार हूं। इसलिए मैंने वन में तपस्या करने का निर्णय
लिया है।
श्री
कृष्ण : मुझे नहीं लगता कि यह बहुत बुद्धिमानी भरा फैसला है। मैं चाहूंगा कि आप इस
पर पुनर्विचार करें।
धर्मराज : नहीं श्रीकृष्ण, यह
मेरी अंतरात्मा से प्रेरित निर्णय है। मैं इसे बदल नहीं सकता।
श्रीकृष्ण
: धर्मराज! आपका निर्णय नैतिकता पूर्ण और विवेक के सबसे गहरे और उच्चतम सत्य तथा
कर्तव्य-परायणता के अनुरूप नहीं है। यह निर्णय
आपके विवेक पूर्ण दिमाग और सामाजिक नैतिकता के अनुरूप है जो आपकी शिक्षा,
संस्कृति, सामाजिक वातावरण और वंश परम्परा से
प्रभावित है। विवेक आपके व्यक्तिगत नैतिक स्वभाव की एक सहज और तत्क्षण प्रतिक्रिया
है। अकसर अंतरात्मा की प्रेरणा अत्यधिक व्यक्तिगत और नैतिक भावना का परिणाम होती
है।
धर्मराज
: लेकिन श्रीकृष्ण, मेरे पास अपनी अंतरात्मा से ऊंचा और बेहतर कुछ
नहीं है।
श्रीकृष्ण
: आपके पास है। आपको अपनी मानसिक और नैतिक प्रकृति से परे और गहराई में उतरना होगा
और अपने दिव्य ‘स्व’ के संपर्क में आना होगा।
धर्मराज : लेकिन श्रीकृष्ण
मैं इस समय बहुत दुःख और अवसाद से भरा हुआ हूँ कि मैं इतने गहन चिंतन के योग्य नहीं हूँ।
श्री कृष्ण : फिर एक
व्यापक दृष्टिकोण लें। आप एक राजा हैं। क्या आपके द्वारा अध्ययन किए गए सभी अर्थ शास्त्र आपको यह नहीं बताते हैं कि
एक राजा को सभी व्यक्तिगत विचारों से परे उठना चाहिए और उसे केवल धर्म और समुदाय
की भलाई के लिए काम करना चाहिए? क्या आपने कुछ सोचा
है कि वर्तमान में आपका धर्म क्या है? आप व्यक्तिगत अपराध बोध
की पीड़ा से तड़प रहे हैं। लेकिन क्या आप युद्ध से प्रभावित अपने लोगों का दर्द
महसूस करते हैं? क्या आप जानते हैं कि युद्ध से वे कितने
शारीरिक और मानसिक रूप से घायल हुए हैं? उनका जीवन युद्ध से
पूरी तरह से अस्त-व्यस्त हो गया है; उनमें से अधिकांश ने
युद्ध में अपने स्वजनों को खो दिया है; आप की प्रजा के दिल
में गहरा दुःख छा गया है। एक राजा के रूप में यह आपका धर्म है कि आप उनके दुःखों
को दूर करें और उन्हें अपने सामान्य जीवन में वापस लाने में मदद करें। यदि आप प्रायश्चित
करना चाहते हैं, तो इसे करने का यही सही तरीका है न कि भागकर
जंगल की ओर जाना।
यहाँ तो श्रीकृष्ण धर्मराज युधिष्ठिर को
दिशा दिखने हाजिर हो गए, लेकिन हमारा मार्ग दर्शन कौन करेगा? गांधी यहाँ हमारी सहायता करते हैं –
“मैं तुम्हें एक
जन्तर देता हूं। जब भी तुम्हें संदेह हो या तुम्हारा अहम् तुम पर हावी होने लगे,
तब यह कसौटी आजमाओ : जो
सबसे गरीब और कमजोर आदमी तुमने देखा हो, उसकी शकल याद करो और
अपने दिल से पूछो कि जो कदम उठाने का तुम विचार कर रहे हो, वह
उस आदमी के लिए कितना उपयोगी होगा। क्या उससे उसे कुछ लाभ पहुंचेगा? क्या उससे वह अपने ही जीवन और भाग्य पर कुछ काबू पा सकेगा? क्या उससे उन करोड़ों लोगों को स्वराज्य मिल
सकेगा जिनके पेट भूखे हैं और आत्मा अतृप्त है? यानी तब तुम
देखोगे कि तुम्हारा संदेह मिट रहा है और अहम् समाप्त होता जा रहा है।”
मैं नहीं, हम। स्व नहीं सर्व।
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सच्चिदानंद स्वरूप मेरे विचार
कहते हैं परमात्मा
सच्चिदानंद – सत, चित, आनंद स्वरूप हैं।
संत, महात्मा, कथा वाचक बार-बार
यही कहते हैं। लेकिन न तो ऐसा दिखता है और न ही ऐसा अनुभव होता है। तब क्या यह
केवल कहने की बात है या सत्य में ऐसा है?
पढ़ाई में एकाग्र विद्यार्थी को, साधना-पूजा-पाठ में
डूबे भक्त को, पुस्तक पढ़ने में
तल्लीन पाठक को बाहर की आवाज सुनाई नहीं देती। गली से बैंड-बाजे के साथ गुजरती
बारात का उसे भान नहीं होता। इसका यह तात्पर्य नहीं है कि बारात वहाँ से गुजरी ही
नहीं, या वह बहरा है। किसी
को सुनी, किसी को नहीं। आवाज हमारे कानों तक भी पहुंची, दिमाग तक प्रेषित भी
हुई, लेकिन फिर भी सुनाई
नहीं पड़ी। मस्तिष्क कहीं और व्यस्त था। भीड़ भरे इलाके में भी हम अभ्यास द्वारा
अपने आप को ऐसा एकाग्र कर सकते हैं कि वे अनचाही आवाजें हमारे दिमाग तक न पहुंचे।
चिन्मय विभूती, कोलवान के पास के गांवों में कभी-कभी ‘रात्री जागरण’ अन्य सामाजिक, आध्यात्मिक या फिर
मनोरंजन का कार्यक्रम होता है। तब रात भर संगीत-भजन-कीर्तन-गाने-संगीत चलता है। इसके अलावा भी कभी लोक गीत, तो कभी फिल्मी
गीतों का भी कार्यक्रम होता है। इन सभी आयोजनों में लाउड स्पीकर तेज आवाज पर ज़ोरों
से चलता है। इनसे आश्रम में रहने वालों को
व्यवधान होता है, प्रवचनों में, चर्चा में, साधना में और
निद्रा में भी। एक बार कुछ आश्रमवासी स्वामीजी के पास पहुंचे और इसका कोई उपाय
करने का अनुरोध किया। स्वामीजी ने समझाया
कि उन ग्राम वासियों को भी तो दिन भर, सप्ताह भर मेहनत करने के बाद कुछ मनोरंजन चाहिए, पूजा-पाठ-भजन-कीर्तन
चाहिए। अपनी सुविधा के लिए हम उन्हें कैसे मना कर सकते हैं। हमें खुद को साधना
होगा। कान तो हमारा है, हम जिसे चाहें उसे अंदर जाने दें जिसे न चाहें न जाने दें।
राम कथा चल रही थी। हनुमान भी बैठे सुन
रहे थे। कथा वाचक ने कहा कि जब हनुमान
लंका में सीता मैया के पास बगीचे में
पहुंचे चारों तरफ श्वेत पुष्प खिले हुए
थे। तुरंत हनुमानजी उठ खड़े हुए और कहा नहीं वहाँ श्वेत नहीं रक्तिम पुष्प थे। कथा
वाचक ने मानने से इंकार कर दिया, कहा ‘नहीं पुष्प श्वेत ही
थे तुम्हें रक्तिम प्रतीत हुए’। बात बढ़ गई। हनुमान मानने को तैयार नहीं, ‘वहाँ तो मैं था, मैंने देखा, तुम कैसे सही हो
सकते हो’। आखिर फैसले के
लिए दोनों सीता मैया के पास जा पहुंचे।
सीता ही उस समय उस वन में थीं। सीता ने कहा, प्रिय हनुमान पुष्प श्वेत ही थे।
उस समय क्रोध के कारण तुम्हारी आँखों में रक्त उतर आया था अतः तुम्हें रक्तिम
प्रतीत हुए। हमें वही और वैसा ही दिखता है जैसी हमारी प्रवृत्ति होती है। दिख कर
भी नहीं दिखता या कुछ और ही दिखता है। कई बार तो हमें वही दिखता है जो हम देखना
चाहते हैं वह नहीं दिखता जो होता है।
कहा जाता है ‘दिखे तो विश्वास हो’ लेकिन कई बार इसका
उलट भी होता है, यानी ‘विश्वास हो तो दिखे’। हमें दिखता
तो है, अनुभव भी होता है लेकिन हम अन्य अनेक सांसारिक उलझनों में ऐसे उलझे रहते हैं
कि हमें सच्चिदानंद स्वरूप दिख कर भी नहीं दिखता, सुन कर भी नहीं
सुनता।
एक दिन राज्य के सेनापति, संत से मिलने आये। जनरल, एक बड़ा आदमी, उसकी कमर से एक लंबी तलवार लटकी
हुई थी। उस ने संत से गर्व पूर्वक पूछा, "नरक और स्वर्ग कहाँ है?"
संत ने अध-मुँदी आँखों से जनरल की ओर देखा और एक शरारती मुस्कान के
साथ कहा, "पहले मुझे बताओ बड़े आदमी कि तुम कौन
हो"। उसने गर्व से कहा, "मैं इस राज्य का सेनापति
हूं"। संत जोर से हँसे और कहा, "भगवान हमारे राज्य
को बचाओ! तुम एक मोटे से गैंडे की तरह दिखते हो, तुम्हें
किसने सेनापति बनाया।"
क्रोध से लाल हुए सेनापति ने अपनी तलवार
खींच ली और संत पर चिल्लाया, "तुमने मेरा
अपमान करने की हिम्मत कैसे की।" संत फिर हँसे, "ओह,
तुम्हारे पास तलवार भी है!
मुझे ऐसा लगता है कि तुम्हारी तलवार चूहे को भी नहीं मार सकती, यह इस राज्य को कैसे बचा सकती है"। जनरल ने क्रोध से क्रोधित होकर,
स्वामी के गले पर तलवार रख
दी और चिल्लाया "यदि आप आगे मेरा अपमान करते हैं, तो
मैं आपको टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा"। संत ने शांति से सामान्य नजरों से देखा और
धीरे-धीरे और जानबूझकर प्रत्येक शब्द पर जोर देते हुए कहा: "समझो, मेरे प्यारे बड़े आदमी, तुम
अब नर्क में हो।"
गुरु के शब्द अचानक प्रकाश के साथ सेनापति
के मन और हृदय में प्रवेश कर गए। सेनापति ने अपनी तलवार जमीन पर गिरा दी। गुरु के
सामने अपना सिर झुकाते हुए, जनरल ने कहा, "मैं
पवित्र व्यक्ति को समझता हूं। कृपया मुझे मेरे मूर्खतापूर्ण व्यवहार के लिए क्षमा
करें"। मास्टर ने मुस्कुराते हुए कहा, "समझो, मेरे प्यारे बड़े आदमी, तुम
अब स्वर्ग में हो।"
हमारे पास इंद्रियाँ तो हैं, लेकिन उनसे हमें उसका स्वरूप दिखता नहीं। साधना द्वारा, भक्ति द्वारा, श्रद्धा द्वारा गुरु कृपा से हमें उस
सत-चित-आनंद स्वरूप के दर्शन हो जाते हैं।
मेरे एक मित्र बल्कि कहूँ तो सहपाठी है।
ईश्वर के प्रति विशेष आस्था नहीं हैं। एक दिन आपबीती बता रहा था। कोलकाता में कॉलेज
स्ट्रीट के पास हेदुया तालाब के नजदीक अपने किसी मित्र के साथ जा रहा था। अचानक
वहाँ के स्थानीय लड़कों के साथ किसी बात पर उस मित्र की तू-तू मैं-मैं हो गई। बात
बढ़ गई। मेरे मित्र ने बताया की उसे बचाने वह भी बीच में कूद पड़ा। हाथापाई की नौबत
आ गई। ये दोनों बाहर के थे और वे स्थानीय, उनके अनेक
साथी जमा हो गए। बिगड़ती परिस्थिति को देखते उसका मित्र तो भाग खड़ा हुआ। मेरा मित्र
फंस गया। उसे जमीन पर पटक कर सब मारने लगे। मेरे मित्र ने बताया कि उसे लगा की आज
तो हाथ-पाँव टूटेंगे। तभी अचानक कहीं से एक औरत आई, बीच में
कूदी सब को भगाया, मेरे दोस्त को छुड़ाया और चली गई। उसका
कहना है कि उसने न इसके पहले और न इसके बाद कभी उसे देखा।
उसे किसी के दर्शन नहीं हुए, क्या आपको सच्चिदानन्द के दर्शन हुए!
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छोटों से भी सलाह लें संस्मरण, जो सिखाती है जीना
हमारे जीवन में
अनेक समस्याएँ आती हैं। उनका समाधान हम स्वयं
के विचारों से कर लेते हैं। कठिन समस्याओं को अपने समाज के विभिन्न
व्यक्तियों की सलाह-सीख से हल करते हैं। समाज के विभिन्न व्यक्तियों में अपने तथा
दूसरों के परिवार के सभी छोटे-बड़े सदस्य सम्मिलित हैं। कभी-कभी बड़ों से प्राप्त
सलाह से अधिक उपयोगी सीख अपने से छोटों से मिल जाती है। श्री लालबहादुर शास्त्री
हमारे देश के चिरस्मरणीय एवं माननीय प्रधानमन्त्री रहे हैं। उन्हें अपने से छोटों से
तथा घर के सेवकों - (माली, रसोइया
आदि) से भी अपनी समस्याओं पर विचार-विमर्श करने की आदत थी। सलाह लेने वाले व्यक्ति
के सम्मुख ही वे अपने सेवकों से सलाह लेने लग जाते—'क्यों
भाई! तुम्हारी इसपर क्या राय है, क्या ख्याल है?"
और पहले अपनी सलाह नहीं देते। एक बार ऐसी स्थिति पर सलाह लेने वाले
उनके एक मित्र ने कह दिया— 'शास्त्रीजी! मुझे आपका यह व्यवहार
आज तक समझ में नहीं आया। मैं आपसे इस विषय पर चर्चा कर रहा हूँ और आप अपने सेवक से
सलाह माँग रहे हैं।'
शास्त्रीजी ने अपने मित्र को बताया कि
कभी-कभी अच्छी सलाह छोटे व्यक्ति से भी मिल जाती है। नि:सन्देह कभी-कभी छोटे
आदमी भी बड़े काम की बात सुझा देते हैं।
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