शुक्रवार, 1 सितंबर 2023

सूतांजली सितंबर 2023

इंद्रियों से प्राप्त होने वाले सुख क्षणिक होते हैं,

अत: प्रतीत तो सुख होते हैं,

लेकिन दुख का कारण होते हैं।

सुख उसे कहते हैं, जिसमें दुख समाप्त हो जाता है।

स्वामी तेजोमयानंद

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दु:ख...?  

(दुख क्या है? जब तक हम यह नहीं पूछते, उत्तर जानते हैं, लेकिन जब पूछते हैं तब उत्तर नहीं जानते हैं। यह, वीणा के तारों की तरह, इतना न कसो कि टूट जाए, इतना  ढीला न छोड़ दो कि बज ही न पाए, जैसा मार्ग है। दुख क्या है, यह पूछते ही हम दुख से मुक्ति के उपाय खोजने लगते हैं। विद्वानों ने अनंत काल से कालानुसार अपने-अपने ढंग से इसे प्रतिपादित किया, इसके अनेक उत्तर दिये और अनुत्तरित भी छोड़ दिये। डॉ. देव  ने इनके उत्तरों को अनंत के गर्भ में से निकालने का प्रयास किया, लेकिन क्या ढूंढ पाये? अहा! जिंदगी ने उनके प्रयास को  हम तक पहुंचाया। इसके अंश।)

...मैं दुख का अनुभव अवश्य करता हूँ, समय अधिकांश दुख में ही कटते हैं, लेकिन मैं इसकी कोई परिभाषा नहीं कर सकता। हर किसी की अपनी परिभाषा है। कुछ लोग जो चाहते हैं कि उन्हें परम-बुद्धिमान दार्शनिक या मानव-मन का अध्येता मान लिया जाये, तो वे अवश्य दूसरों के लिये  दुख की परिभाषा अपनी उलझी हुई शब्दावली में करते हैं और उसे श्रवण या प्रकाशित होते देखने के लिये तरह-तरह के ओछे प्रयास भी करते हैं।

...मठों में तो दुख दूर करने का ही कारोबार है। ... हम लोग कभी नहीं पूछते कि दुख क्या है? दुख के संदर्भ में हमेशा हमारा सवाल क्यों और कैसे की शैली में पूछा जाता है और कुछ लोग दुख दूर करने वाले बाजार सजा लेते हैं। कुछ लोग तो केवल दुख दूर करने का उपाय बताते हैं, कुछ तो उपाय कर भी देते हैं। कहने का मतलब कुछ गुरु, गुरु ही रहते हैं, कुछ गुरु ईश्वर के समकक्ष हो जाते हैं। गुरुओं के प्रारूप देश, काल और परिस्थिति के अनुसार बनते हैं। अगर मुझे पता चल जाये कि दुख क्या है तो मैं दुख से मुक्त हो जाऊंगा। हम जिसे जान लेते हैं, उससे मुक्त हो जाते हैं।

... दुख के बारे में उपनिषद कोई साफ बात नहीं कहते, लेकिन दुख क्या है, इसका उत्तर वे देते हैं। वे कहते हैं, अज्ञान ही पाप है। ... पाप से दुख उत्पन्न होता है। आंतरिक जगत में भी और समाज में भी। ऋग्वेद उनके पहले ही कह गया है, पापी नरक-स्थान को उत्पन्न करता है। ... कुल मिलकर अज्ञान ही दुख है। तो फिर, अज्ञान क्या है? अपने को न जानना ही अज्ञान है। अपने को जानते ही मनुष्य दुख से तो मुक्त हो ही जाता है। सुख-दुख से परे अनंत आनंद में भी निवास करने लगता है। दुख को जानना दुख के मूल कारण को जानना है। ...उपनिषदों की दुख की परिभाषा गढ़ने में कोई रुचि नहीं है। उपनिषद कभी हमें खुल कर नहीं बताते कि दुख क्या है? वे केवल आनंद को जानते हैं। वे मनुष्य को मूलतः अनंत आनंद के बारे में बताते हैं। कहा जाये कि वे जीवन मात्र को अनंत आनंद घोषित करते हैं। और श्रावण-मनन-निदिध्यासन की तकनीक से उस अक्षय, अमर, अनंत आनंद में निवास करने की कला सिखाते हैं।...

...उपनिषदों के ऋषि गृहस्थ हैं। वे ब्रह्मचर्य आश्रम में शिक्षा ग्रहण करने, गृहस्थ आश्रम में परिवार के प्रति कर्तव्य पूरा करने, वानप्रस्थ में समाज सेवा करने और संन्यास में प्रकृति सहित समूचे संसार को समर्पित होने के क्रम को अनिवार्य मानते हैं।... वे संसार का त्याग करना नहीं सिखाते। संसार से जुड़ते हुए वे काल से मुक्त होने की कला में माहिर थे और यही कला सिखाने को कटिबद्ध भी हैं। वे संसार को माया या तृष्णा नहीं मानते। वे नहीं मानते कि हम मायाजाल में फंसे हैं या तृष्णा में पड़कर अनंत बार जन्म-मरण को बाध्य होते हैं। वे अविद्या की बात अवश्य करते हैं। अविद्या के चलते ही हम दुख में होते हैं। विद्या हमें मुक्त करती है। वे जीवन को दुख नहीं मानते, जीवन को आदि-मध्य और अनंत में केवल आनंद ही मानते हैं। वे अनुभववादी हैं।...

          आधुनिक मनुष्य और उपनिषदों के बीच सदियों की पथरीली दीवार खड़ी है। ... उपनिषदों की भाषा हमारी समझ के बाहर हो गई है। तब पलखत पाकर अर्थात पलक झपकने भर का मौका पाकर  बुद्ध लगातार दिमाग के भीतर दस्तक देने लगते हैं। ... जब उन्होंने दुख को पहचाना, तो पाया कि जीवन दुख का ही पर्यायवाची है। ... जो है वह दुख ही है, दुख के अलावा और कुछ है ही नहीं। अस्तित्वमात्र ही दुख है। जीवन और दुख एक ही सत्ता के दो नाम हैं। भौतिक शरीर ग्रहण  करने के साथ अजन्मा, अजर-अमर-अमर्त्य आत्मा भौतिक शरीर में निवास करने लगेगी तो हम दुख से कैसे मुक्त हो पायेंगे। ये उपनिषद वाले तो अनंत जीवन की बात कर रहे हैं। अनंत जीवन केवल दुख के अलावा और कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि जीवन मात्र दुख के और कुछ हो ही नहीं सकता, क्योंकि जीवन मात्र दुख ही है। जन्म लेना दुख है, रोग दुख है, जरा दुख है, मरण दुख है, प्रिय से विछोह दुख है, अप्रिय से मिलन दुख है, जीवन का हर क्षण दुख है, दुख ही है और कुछ भी नहीं है। वाकई दुख के बारे में बुद्ध से बड़ी अथॉरिटी और कोई नहीं है।...

          ... अर्जुन हमारी ही तरह विषादग्रस्त है, दुख की पराकाष्ठा का अनुभाव कर रहा है। मृत्यु उसे आकर्षक लगने लगी है। वह संन्यास लेने को तत्पर है। इससे निवृत्ति का एकमात्र मार्ग संन्यास ही है। ... अपने धर्म का पालन करो, अपने लिए नियत कर्म करो, लड़ो, उन्हें मारो, ये अधर्म के पक्ष में खड़े हैं’, कृष्ण डांटते हैं। गीता के प्रारम्भ में अर्जुन गाँडीव रख देता है, गीता के अंत में वह धनुष उठा लेता है। अतः गीता का एक ही उपदेश है - अपनी प्रकृति और नियति के अनुसार कर्म करो, कर्म में ही सारा ध्यान झोंक दो, फल के बारे में एक पल के लिए भी विचार मत करो, वह तो शुद्धतः तुम्हारे कर्म का परिणाम होगा। शत-प्रतिशत कर्म, शत-प्रतिशत फल। श्रम का रंच मात्र भी फल-विचार में गया कि फल में उतनी ही कमी रह जाएगी। लेकिन, कर्म हमेशा फल को लक्ष्य में रखकर ही किया जा सकता है। लक्ष्य में फल को रखे बिना हम  अपना स्वधर्म यानि स्वकर्म नियत कर ही नहीं सकते, कर्म क्या करेंगे? कर्म के लिए कृष्ण दो लक्ष्य सामने रखते हैं। आधुनिक मनुष्य को पहला लक्ष्य ईश्वर को सभी कर्मों का समर्पण समझ में नहीं आयेगा। वह अपनी ओर से ईश्वर को समर्पित करेगा, लेकिन उसके कर्म समाज का संचालन करने वाले स्वार्थी सत्ता-केन्द्रों को समर्पित हो जाएंगे। समाज में चारों तरफ बिखरे घड़ियाल उसके फल को गटक जाएंगे। आत्मशुद्धि वाला लक्ष्य भी तब तक समझ में नहीं आएग जब तक वह स्वयं को प्रेम करो जैसे सत्तापक्षीय सिद्धांतों की चपेट में है। 

... जीवन दुख नहीं है। जीवन माया नहीं है। जीवन मृत्यु की ओर बढ़ती नदी नहीं है। जीवन जीने के लायक नहीं है, हम ऐसा इसलिए सोचते हैं क्योंकि हम अविद्या से ग्रस्त हैं। जब हमें विद्या मिलती  है तो हम ब्रह्मांड से एकत्व का अनुभव करने लगते हैं और पाते हैं कि दुख सम्पूर्ण से कटे होने का प्रतिफल है। जीवन तो वस्तुतः आनंद है, अनंत आनंद...सत-चित-आनंद।

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इष्ट देवता – क्या , क्यों और क्या है महत्व

सबसे पहला प्रश्न तो यह है कि यह इष्ट देवता क्या है?

          मोटे तौर पर इष्ट देवता का अर्थ है एक भक्त द्वारा अपनी व्यक्तिगत दृष्टिकोण या भावनात्मक लगाव के अनुसार भक्ति, पूजा और आराधना के लिए चुने गए देवता का नाम और स्वरूप।

अब, इसके तुरंत बाद दूसरा प्रश्न जो हमारे दिमाग में आता है वह है कि इस इष्ट देवता की क्या उपयोगिता है?

          सही तौर पर विचार करें तो इसके भी पहले यह समझना ज्यादा आवश्यक है कि जब और किसी धर्म में किसी देवता की कल्पना नहीं है हमारे धर्म में देवता की कल्पना ही क्यों की गई है?

          इसका सीधा सा कारण है कि जहाँ मनुष्य के लिए अपने भीतर की किसी अनदेखी चीज़ पर विश्वास करना कठिन होता है, वहीं उसके लिए किसी ऐसी अनदेखी चीज़ पर विश्वास करना आसान होता है जिसे वह अपने से बाहर मानता है। अतः अपनी आध्यात्मिक प्रगति के लिए अधिकांश मनुष्य अपने से बाहर अपने विश्वास की किसी वस्तु की मांग करता है। उसे ईश्वर की एक बाहरी छवि या एक मानव प्रतिनिधि की आवश्यकता होती है  - वह अवतार या पैगंबर या गुरु  या दोनों की मांग करता है और उन्हें खोजता है। मानव आत्मा की आवश्यकता के अनुसार भगवान स्वयं को देवता, दिव्य मानव या सरल मानव के रूप में प्रकट करते हैं - इस स्थूल वेश में वे सफलता पूर्वक अपने ईश्वरत्व को छुपा कर ईश्वरत्व के मार्गदर्शन का हस्तांतरण करते हैं।

          हिन्दू का आध्यात्मिक शास्त्र, इष्ट देवता, अवतार और गुरु की धारणाओं द्वारा आत्मा की इस आवश्यकता को पूरा करता है। इष्ट देवता से, एक चुने हुए देवता का अर्थ कोई हीन शक्ति नहीं, बल्कि पारलौकिक और सार्वभौमिक देवत्व का एक नाम और रूप है। ईश्वर सर्व है और सर्व से बढ़कर है। लेकिन वह जो सबसे बढ़कर है, मनुष्य कैसे उसकी कल्पना करेगा, विचार करेगा, सोचेगा? सर्व में ऐसी चीजें हैं जो उसकी समझ के लिए बहुत कठिन है। सीधे तौर पर, वह ईश्वर के रूप में कल्पना नहीं कर सकता है, उस तक नहीं पहुंच सकता है या किसी ऐसी चीज को नहीं पहचान सकता है जो उसकी अज्ञानी या आंशिक धारणाओं के दायरे से बहुत बाहर है। उसके लिए यह आवश्यक है कि वह ईश्वर को अपनी छवि में या किसी ऐसे रूप में देखे जो स्वयं से परे हो लेकिन उसकी उच्चतम प्रवृत्तियों के अनुरूप हो और अपनी भावनाओं या अपनी बुद्धि द्वारा समझ सके और उसे मान सके। अन्यथा उसके लिए परमात्मा के संपर्क और साम्य में आना मुश्किल है।

          एक भारतीय ग्रंथ है, राम भक्त विजयम, जो तुलसीदास की एक पौराणिक जीवनी जैसी प्रतीत होती है। इस ग्रन्थ में तुलसीदास हनुमान से राम के दर्शन कराने का अनुरोध करते हैं। हनुमान कहते हैं, आप राम के दर्शन कैसे कर सकते हैं वे तो निराकार, सार्वभौमिक, सर्वव्यापी हैं, जो हर जगह और हर चीज़ में हैं और सबसे ऊपर हैं, अंतरिक्ष और समय से परे शाश्वत हैं।” तुलसीदास उत्तर देते हैं, “मैं उस परम पुरुष के दर्शन राम के रूप में करना चाहता हूं।” हिंदू धर्म में इष्ट देवता का यही अर्थ है, एक सीमित व्यक्तिगत देवता नहीं, बल्कि पारलौकिक और सार्वभौमिक दिव्यता का एक नाम और रूप।

          गुरु या अवतार भी इष्ट देवता हो सकते हैं। ऐसी स्थिति में भक्त या शिष्य को अपने गुरु या अवतार को केवल मनुष्य के रूप में नहीं बल्कि स्वयं परमात्मा को मानव रूप में देखना होता है। एक प्रसिद्ध श्लोक है –

गुरुर्ब्रह्मा ग्रुरुर्विष्णुः गुरुर्देवो महेश्वरः।

गुरुः साक्षात् परं ब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः॥

गुरु ब्रह्मा है, गुरु विष्णु है, गुरु ही शंकर है; गुरु ही साक्षात् परब्रह्म (परमगुरु) है;

उन सद्गुरु को प्रणाम।

          ईश्वर को तीन अवस्थाओं में मानते हैं: पारलौकिक, सार्वभौमिक और वैयक्तिक। राम, कृष्ण, क्राइस्ट और बुद्ध जैसे दिव्य अवतार पारलौकिक और सार्वभौमिक दिव्य के अवतार हैं। प्रत्येक मनुष्य उस वैयक्तिक को परमात्मा के अवतार के रूप में देख सकता है, जो एक दिव्य उद्देश्य के लिए पृथ्वी पर अवतरित हुआ है। हममें से अधिकांश लोग इसके बारे में या अचेतन अवतार से अवगत नहीं हैं। जो लोग अपने भीतर परमात्मा के बारे में पूरी तरह से जागरूक हो गए हैं और उनके साथ एकजुट हो गए हैं, वे पृथ्वी पर रहने वाले देवता हैं।

          लेकिन यह सिद्धांत पूरी तरह से केवल आत्म-साक्षात्कार या ईश्वर-प्राप्त आत्माओं जैसे श्रीअरविंद, श्री रामकृष्ण या श्री रमण महर्षि आदि पर लागू होता है। लेकिन, ऐसे सैकड़ों गुरु हैं जिन्होंने ईश्वर को महसूस नहीं किया होगा, लेकिन चेतना के कुछ उच्च स्तरों या सामान्य मानव चेतना से परे एक उच्च शक्ति के साथ उनका कुछ आंतरिक संपर्क है, जो शिष्यों को आकर्षित करता है। ऐसे मामलों में भी, यदि शिष्य अपना ध्यान गुरु की ईश्वरीयता पर केंद्रित करता है, गुरु में मानव के दोषों को अनदेखा करता है, तब गुरु में अवस्थित ईश्वर उसे सही रास्ते का मार्गदर्शन करेगा भले ही गुरु में मानवीय खामियां हों। उदाहरण के लिए, एक प्राचीन भारतीय ग्रंथ शिष्य से कहता है, अपने गुरु की खामियों को मत देखो। उनमें से सत्य को लो, और बाकी को छोड़ दो।”

          यदि हमारे एक इष्ट देवता हैं, तो हमारी आंतरिक आकांक्षा को परम ईश्वर के संपर्क में आना होगा और बाहरी रूप के पीछे उनकी उपस्थिति को अनुभव करना होगा।

(दुर्भाग्य से पिछले कुछ समय में कुछ ऐसे गुरुओं की खामियां अपराध के दायरे तक पहुँच गई। जिसका परिणाम उन्हें तो भोगना हो पड़ा हमें भी उसकी तपन महसूस हुई।)

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