खुद को अच्छा बना लीजिये,
दुनिया से एक बुरा आदमी
कम हो जायेगा
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अर्चना और
याचना
आजकल
तो लोग मंदिर की पैड़ी (सीढ़ी) पर-आँगन में बैठकर अपने घर की, व्यापार की,
राजनीति की चर्चा करते हैं। परंतु यह प्राचीन परंपरा एक विशेष उद्देश्य के लिए
बनाई गई। वास्तव में मंदिर की सीढ़ी पर बैठ कर के हमें एक श्लोक बोलना चाहिए। यह
श्लोक है :
अनायासेन मरणम, बिना देन्थेन जीवनम् ।
देहान्त तब सानिध्यम्, देहि मे परमेश्वरम्।।
यानी, “बिना तकलीफ के हमारी मृत्यु हो और हम कभी भी बीमार होकर
बिस्तर पर पड़े-पड़े मृत्यु को प्राप्त न हों, चलते-फिरते ही
हमारे प्राण निकलें। जब भी मृत्यु हो तब भगवान के सम्मुख हो, उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले। हे परम, परमेश्वर ऐसा
वरदान हमें देना।”
परवशता का जीवन, यानी हमें कभी किसी के सहारे न रहना
पड़े। जैसे कि लकवा हो जाने पर व्यक्ति दूसरे पर आश्रित हो जाता है, वैसे परवश या बेबस ना हों, ठाकुर जी की कृपा से बिना
भीख के ही जीवन बसर हो सके, दूसरे की सहायता न लेनी पड़े।
जैसे भीष्म पितामह की मृत्यु के समय स्वयं ठाकुर जी उनके सम्मुख आकर खड़े हो गए, वैसे ही उनके दर्शन करते हुए प्राण निकले।
सबसे
बड़ा दुःख परवशता है, और इसकी कामना करनी
पड़ती है, ठाकुर से इसके लिए गुहार करनी पड़ती है। संपत्ति, संतान, जीवन साथी, धन, ऐश्वर्य आदि मांगने की जरूरत नहीं है। ये तो सांसारिक लोगों से भी
प्राप्त हो सकते हैं। लेकिन जन्म और
मृत्यु ही ऐसे हैं जिन पर हमारा कोई वश नहीं है। कब, कहाँ, कैसे हमारा जन्म होगा, कोई नहीं जानता। वैसे ही कब, कहाँ और कैसे हमारी
मृत्यु होगी कोई नहीं जानता। यह तो भगवान हमारी पात्रता के हिसाब से खुद हमको देते
हैं। इसलिये दर्शन करने के बाद बैठकर यही
प्रार्थना करनी चाहिए। यह प्रार्थना है, याचना नहीं है।
याचना सांसारिक पदार्थों के लिए होती है। घर, व्यापार,
नौकरी, पुत्र, पुत्री,
सांसारिक सुख, धन या अन्य बातों के लिए जो
मांग की जाती है, वह याचना होती है। इनकी याचना हम ईश्वर के
अलावा सांसारिक लोगों से भी करते हैं।
हम
प्रार्थना करते हैं, प्रार्थना का विशेष
अर्थ होता है, अर्थात विशिष्ट, श्रेष्ठ, उनके अलावा और कोई हमें यह प्रदान नहीं कर सकता। । अर्चना अर्थात निवेदन।
ठाकुर जी से प्रार्थना करें और प्रार्थना
क्या करना है, इस श्लोक का पाठ करना है।
जब
हम मंदिर में दर्शन करने जाते हैं तो खुली आंखों से भगवान को देखना चाहिए, निहारना चाहिए। उनके दर्शन करने चाहिये।
आंखें बंद क्यों करना? हम तो दर्शन करने आए हैं। भगवान के
स्वरूप का, श्री चरणों का, मुखारविंद
का, श्रृंगार का संपूर्णानंद लें। आंखों में भर ले स्वरूप को, दर्शन करें और दर्शन के बाद जब बाहर आकर बैठे तब नेत्र बंद करके जो दर्शन
किए हैं उस स्वरूप का ध्यान करें। और अगर ठाकुर जी का स्वरूप ध्यान में नहीं आए तो
दोबारा मंदिर में जाएं और भगवान का दर्शन करें और उनके स्वरूप को हृदयंगम कर लें। नेत्रों को बंद करने के पश्चात, उनका ध्यान करके उपरोक्त श्लोक का पाठ करें।
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गाँधी
और गीता गांधी
जयंती पर विशेष
गाँधी के 150वें जन्म वर्ष में मैंने अपने शहर के अनेक विद्यालयों
में “कौन जानता गाँधी को?” शीर्षक से प्रश्नोत्तरी (क्विज) का आयोजन किया था। इस दौरान गाँधी को जानने-समझने वाले कई विद्वानों तथा गाँधी
संस्थाओं से परिचय हुआ। गाँधी पर बहुत पढ़ना भी पड़ा, इस कारण गाँधी
को भी जानने-समझने का अवसर मिला। इसका एक प्रभाव यह भी हुआ कि बहुत से लोग यह
मनाने लगे कि मैं “गांधीवादी” हूँ। अब क्या कहूँ? “गाँधीवाद”
जैसा न कोई वाद है और न संप्रदाय। गाँधी ने खुद यह घोषणा की थी कि मेरे नाम से न कोई वाद
है और न होगा। मेरी अपनी कोई बात नहीं है, मैं जो कुछ भी
कहता हूँ, लिखता हूँ, वह दुनिया के हर
कोने के धर्मगुरु, धर्मग्रंथ, विद्वान, चिंतक, लेखक, नेता की ही बातें हैं, मेरी
अपनी नहीं। अब तब फिर कहाँ से यह “गाँधीवाद” पैदा हो गया? लेकिन
हाँ, यह सही है कि मैं गाँधी को मानता,
उनके प्रति मेरी श्रद्धा है।
इस
कारण जब भी, किसी को भी, गाँधी के विरोध में, उनके पास जितनी भी और जैसी भी जानकारी होती है, सोशल
मीडिया में मिलती है, मेसेज में आता है सब मुझे भेज देते हैं, मुझे बताते हैं और उसकी मुझसे चर्चा करते हैं। मैं उसका जवाब नहीं देता। मेरा
मौन उन्हें बेचैन कर देता है। वे पूछते हैं, “तुम कुछ कह
नहीं रहे हो, तो क्या तुम मानते हो यह सही है?”
“क्यों आपको क्या लगता है, मैं आपकी बात स्वीकार कर रहा
हूँ?,” मैं प्रतिप्रश्न करता हूँ।
वे कहते हैं, “नहीं मुझे तो ऐसा नहीं लगता।”
“मैं अगर कोई जवाब दूँ तो क्या आप मेरी बात मान
लेंगे?”, अब
मैं प्रश्न करता हूँ।
“....”। उनसे न हाँ कहते बनता है न ना।
मुझे पता है कि वे मुझसे न जानना चाहते हैं न समझना। वे
विचार विमर्श नहीं करना चाहते, न ही ज्ञान चर्चा, उनका उद्देश्य केवल
या तो मुझे क्षुब्द करना है या मेरे विचारों को बदलना और अपनी बात को मनवाना।
अतः मैं कहता हूँ, “अब अगर हम जानते हैं कि इस
मुद्दे पर हम एक दूसरे से सहमत नहीं होंगे तो क्यों इस पर बहस कर आपसी सम्बन्धों
में कटुता पैदा करें? लेकिन अब तुमने विषय छेड़ दिया है तो यह
जरूर कहूँगा कि अगर तुम्हारे लिए संभव हो तो व्हाट्सएप्प और सोशल मीडिया को छोड़ कर
भी गाँधी को पढ़ो, जानो, समझो फिर बात
करेंगे।” मेरे इस सुझाव से वे सहमत तो नहीं होते। उनके पास न पढ़ने का समय होता है
न ही धैर्य, वे तो बस चलते-फिरते व्हाट्स एप को ही वैश्विक
ज्ञान की खान मानते हैं। लेकिन बेबुनियाद बहस समाप्त हो जाती है।
दूसरों की कही बातों को सही न मानकर हमें खुद
ही इसका विश्लेषण करना होगा, समझना होगा, गहराई तक जाना होगा तब ही गांधी
को समझ पाएंगे। अभी कल की ही बात है, मैं अपने एक जीवन के ‘मार्गदर्शक’ के पास बैठा था। मैं उनका आदर भी करता
हूँ, और उनकी बातों को गंभीरता से भी लेता हूँ। मुझे यह भी
पता है कि वे गाँधी के विरोधी नहीं हैं लेकिन उन्हें स्वीकार भी नहीं करते।
उन्होंने बताया कि वे गीता के बारे में जानते हैं लेकिन कभी उसे पढ़ा नहीं है। (दुर्भाग्य से ऐसे अनेक लोग मिलेंगे
जिन्होंने गीता न पढ़ी, न समझी, न सुनी
लेकिन पंडितों की तरह गीता पर बहस करेंगे।) लेकिन उनकी सुपुत्री, जो अमेरिका में डॉक्टर है, गीता पढ़ रही है और उससे
बहुत प्रभावित है। उसने अपने पति को गीता का भाष्य दिया है और वे उसे पढ़ रहे हैं। उन्हें
अच्छा लग रहा है। उससे प्रभावित हैं। मेरे लिए यह एक सुखद और आश्चर्यजनक खबर थी, क्योंकि वे अपने विचारों के बड़े कट्टर हैं। फिर उन्होंने कहा-
“गाँधी ने
कहा है कि साधन का भी उतना ही महत्व है जितना साध्य का। अगर साधन सही न हो तो
साध्य कहीं-न-कहीं जाकर दूषित हो जाता है। लेकिन गीता के दूसरे अध्याय में
श्रीकृष्ण अर्जुन से कहते हैं कि साध्य हासिल करने के लिए साधन की चिंता न कर, उठो खड़े हो जाओ, इन शत्रुओं का संहार करो। इस प्रकार वे साध्य को ही महत्व दे रहे हैं, साधन को नहीं।”
मेरे लिए
बड़ी विषम परिस्थिति हो गई। यह बात तो समझ
आ गई थी कि वे गीता अभी पढ़ना शुरू किए हैं और तो और दूसरे अध्याय तक ही पहुंचे हैं।
गीता और उसके संदर्भ में गांधी पर टिप्पणी कर रहे हैं जिन्होंने जीवन भर गीता पढ़ी, गुनी और साधी। बहस करना भी उचित नहीं लगा
और न ही मौन रहना। मैंने संक्षेप में इतना ही कहा कि गाँधी और गीता जिस ऊंचाई पर
हैं, गाँधी की जितनी साधना है, गाँधी का
जितना अनुभव है उसकी तुलना में मैं कहीं नहीं हूँ, गीता जितनी
सरल है उतनी ही कठिन भी, अपनी जिंदगी में मैं उसे पूरा समझ
ही नहीं पाऊँगा, अतः उस पर भी किसी प्रकार की टिप्पणी करने का दुःसाहस मैं नहीं कर सकता। सौभाग्य से
उन्होंने भी बात को घुमा दिया।
बात को
सुलझते हुए देख मैंने भी दो प्रसंग और जोड़ दिये। मशीन के बहिष्कार को लेकर विश्व
के अनेक लोग गाँधी से नाराज, मर्माहित और दुःखी थे। प्रसिद्ध फिल्म अभिनेता और निर्माता
चार्ली चैपलीन, जो गाँधी के बड़े हिमायती थे, वे भी बड़े दुःखी हुए। मौका मिलते ही वे गाँधी से मिले और मशीन के
बहिष्कार के मुद्दे पर उनसे चर्चा की। एक लम्बी चर्चा के बाद वे वहाँ से पूर्ण तरह
गांधी के विचारों से सहमत हो कर निकले और उसके बाद अपनी प्रसिद्ध फिल्म ‘द डिक्टेटर’ का निर्माण किया। अतः अब आज, जब गाँधी नहीं है तब उनके दृष्टिकोण की व्याख्या कौन करेगा? हम अगर उतनी ऊंचाई पर पहुंचे तथा उनकी जैसी दूरबीनी-दृष्टिकोण हो तभी समझ
सकते हैं। अन्यथा उस पर टिप्पणी न कर अपनी अज्ञानता कबूल करना ही उचित है।
गाँधी ने एक और बात कही थी। 100 में से 99
रास्ते अहिंसा के हैं एक आखिरी रास्ता हिंसा का है... लेकिन वो आखिरी है... और
दुनिया के 99
मसले पहले 99 रास्तों से हल हो सकते हैं... । कुरुक्षेत्र में युद्ध का शंख फूंकने के पहले
श्रीकृष्ण ने अहिंसा से सुलह कराने के अनेक प्रयत्न किए। लेकिन हर प्रयत्न के असफल
हो जाने के बाद ही युद्ध का निर्णय लिया गया। और जब यह निर्णय ले लिया गया, शंख फूँक दिये गए, उसके बाद पीछे हटना कायरता ही है। राम ने भी, युद्ध का डंका फूंकने के पहले बिना युद्ध के
मार्ग खोजने का प्रयत्न किया। लेकिन मार्ग न मिलने पर ही हिंसा का मार्ग अपनाया। गाँधी
ने भी बार-बार यही कहा है कि अहिंसा कायरों का नहीं बहादुरों का हथियार है।
गीता भी, जैसे-जैसे हम एक-के-बाद-एक
अध्याय के पन्ने पलटते हैं, कई बार भ्रम पैदा करती है कि
श्रीकृष्ण तो विरोधी बात कह रहे हैं। लेकिन विश्लेषण करने पर समझ आती है कि नहीं
वे विरोधी बातें नहीं कर रहे हैं बल्कि दोनों मार्ग बता कर उनके दोष-गुण की चर्चा
कर रहे हैं, सुगम और दुर्गम मार्ग की चर्चा कर रहे हैं। हर
इंसान, दूसरे इंसान से अलग है। हर किसी को अपनी प्रकृति और
प्रवृत्ति के अनुसार मार्ग का चयन करना चाहिए।
वह खुद अपना मित्र भी है और खुद ही अपना दुश्मन भी। गुरु मार्ग दिखा सकता
है लेकिन चलना तो उसे खुद ही पड़ेगा।
कैसी भी
टिप्पणी करने के पहले खुद अपना विश्लेषण करना चाहिए। बिना समुचित अध्ययन और
स्वाध्याय के टिप्पणी करना शोभा नहीं देता है।
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भाव और दृढ़ विश्वास संस्मरण
जो सिखाती है जीना
रामदासजी जब प्रार्थना करते थे तो कभी उनके होठ नहीं हिलते थे।
शिष्यों ने पूछा- ‘हम प्रार्थना
करते हैं तो होंठ हिलते हैं, आपके होंठ नहीं हिलते! आप पत्थर की मूर्ति की तरह खड़े हो जाते हैं। आप कहते क्या हैं अन्दर से? क्योंकि
अगर आप अन्दर से भी कुछ कहेंगे तो होठों पर थोड़ा कंपन आ ही जाता है। चेहरे पर
बोलने का भाव आ जाता है। लेकिन आपके चेहरे पर वह
भाव भी नहीं आता।’
यह सुनकर सन्त रामदास जी ने कहा –
मैं एक बार राजधानी से गुजरा। राजमहल
के सामने द्वार पर मैंने सम्राट को खड़े देखा और वहाँ एक भिखारी को भी देखा। वह भिखारी
बस खड़ा था। फटे कपड़े थे उसके शरीर पर। जीर्ण-जर्जर देह थी, जैसे बहुत दिनों से भोजन न मिला हो, शरीर सूख कर कांटा हो गया। बस आँखें ही दीयों की तरह जगमगा रही थीं।
बाकी जीवन जैसे सब तरफ से विलीन हो गया हो। वह कैसे खड़ा था यह भी आश्चर्य था?
लगता था अब गिरा-तब गिरा ! सम्राट उससे बोले – बोलो क्या चाहते
हो?
उस भिखारी ने कहा – “अगर
आपके द्वार पर खड़े होने से मेरी मांग का पता नहीं चलता, तो कहने की कोई जरूरत नहीं। क्या कहना है?
और मैं द्वार पर खड़ा हूँ, मुझे
देख लो, मेरा होना ही मेरी प्रार्थना है।"
सन्त रामदास जी ने कहा - उसी दिन से मैंने प्रार्थना बंद कर दी।
मैं परमात्मा के द्वार पर खड़ा हूँ। वह
देख लेंगे। मैं क्या कहूँ?
अगर मेरी स्थिति कुछ नहीं कह सकती,
तो मेरे शब्द क्या कह सकेंगे अगर वह मेरी स्थिति नहीं समझ सकते
तो मेरे शब्दों को क्या समझेंगे?
अतः भाव व दृड विश्वास ही सच्ची परमात्मा की याद के लक्षण है। यहाँ
कुछ मांगना शेष नहीं रहता। आपका प्रार्थना में होना ही पर्याप्त है।
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