बुधवार, 1 नवंबर 2023

सूतांजली नवम्बर 2023


 

कथनी नहीं – करनी

(श्री माँ, पांडिचेरी)

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हम खुद ही विश्व हैं                                                हम बदलेंगे युग बदलेगा

जी हाँ, हम ही संसार हैं और अगर युग को बदलना चाहते हैं तो हमें खुद को बदलना होगा। अगर खुद को बदलते हैं तब दुनिया अपने-आप बदल जायेगी।

          केशव, विचारशील दिमाग और सहानुभूति पूर्ण हृदय वाला पश्चिम में पढ़ा-लिखा  एक उत्साही युवा साधक है। वह मानव समाज में हर जगह फैली हिंसा और पीड़ा का असली अर्थ, उद्देश्य और उनके निराकरण का उपाय जानना चाहता है। वह भारत की आध्यात्मिक विद्या और ज्ञान तथा इस ज्ञान के आधुनिक प्रणेता श्री जनार्दन महाराज से बहुत प्रभावित है। श्री जनार्दन आधुनिक भारत के एक संत हैं जिन्होंने एक साधारण व्यापारी के रूप में अपना व्यवसाय करते हुए भी ज्ञान-मार्ग का उच्चतम स्तर हासिल किया है। हालाँकि संत जनार्दन बाह्य रूप से प्रेम करने वाले और दयालु हैं, वे अपने व्यवहार और बातचीत में कभी उदासीन और कभी कठोर भी हैं। उन्होंने मानव के शारीरिक कष्ट, पीड़ा या मृत्यु के लिए कभी किसी प्रकार की भावुकता, दया या सहानुभूति का प्रदर्शन नहीं किया।

          केशव जब भी भारत आते थे, संत जनार्दन के दर्शन करते थे और उनसे लंबी चर्चा करते थे। संत केशव के लिए गहरा और विशेष स्नेह महसूस करते थे। आज पड़ोसी देशों में हो रही साम्प्रदायिक हिंसा और उत्पात से केशव बहुत निराश था। जब वह संत जनार्दन से मिले, तो उन्होंने  पूछा, “महाराज, क्या आपने अखबारों में उन्मत्त, विचारहीन, नासमझ और बेवकूफी से किये गए नर-संहार  के संबंध में पढ़ा है? इस संबंध में आपके क्या विचार हैं?”  संत ने उदासीनता से कहा, “मैं समाचार पत्र नहीं पढ़ता और मेरी कोई राय भी नहीं है। वे टिमटिमाती छवियों की तरह हैं जो एक पर्दे पर दिखाई देती हैं और फिर गायब हो जाती हैं।”

          “महाराज, आप निर्दयी हैं”,  केशव ने कहा। “लोग हजारों की संख्या में मर रहे हैं और आप आराम से बैठे हैं और छवियों के बारे में बात कर रहे हैं! क्या आपको उनके प्रति सहानुभूति नहीं है?”

          जनार्दन ने शान्त स्वर में उत्तर दिया, “तुम्हारी जैसी सहानुभूति मुझमें नहीं है। तुम्हारी सहानुभूति क्या कर सकती है? क्या तुम्हारे ये तुक्ष अहं की अज्ञानतापूर्ण भावनाएँ इस संहार को रोक सकती हैं?”

          केशव ने आवेश से कहा “गुरुदेव मैं भावनाओं और कर्म का आदमी हूं। जब लोग मर रहे हों, मैं आपकी तरह यहां बैठकर दर्शनशास्त्र की बात नहीं कर सकता। मैं कुछ करना चाहता हूं”।  संत ने कुछ क्षण के लिए केशव की ओर एक उदार मुस्कान के साथ देखा और कहा, “तुम क्या कर सकते हो? अगर, तुम्हें पीड़ित लोगों की मदद करने का मन करता है तो जाओ और मदद करो। लेकिन जाने से पहले अपने उत्तेजित मन और हृदय को शांत करो। कुछ देर इस बात पर विचार करो कि उनकी मदद करने का सबसे अच्छा तरीका क्या है? और उस मार्ग के बारे में बहुत स्पष्ट रहो।” एक पल की चुप्पी के बाद संत ने आगे कहा, “मैंने तुम्हें यह कई बार समझाया है कि जब तक लोगों के दिलों-दिमाग में हिंसा है तब तक बाहर की दुनिया में हिंसा रहेगी। तुम इसे रोक नहीं सकते क्योंकि तुम ही दुनिया हो।”

          “एक नियम और सिद्धांत के रूप में, हाँ, मैं आपसे सहमत हूँ, लेकिन उपाय क्या है?” केशव ने प्रश्न किया।

          “मैं इसे एक उदाहरण के साथ समझाता हूं”  संत ने कहा। “तुम एक थियेटर में हिंसा, पीड़ा, वध और कुरूपता से भरी फिल्म देख रहे हो। अगर तुम इसे किसी खूबसूरत चीज में बदलना चाहते हो तो तुम क्या करोगे? तुमको फिल्म के प्रोजेक्टर में सुंदरता और अच्छाई से भरी फिल्म से बदलना होगा। प्रोजेक्टर तुम्हारा अपना दिमाग है और फिल्म तुम्हारे विकास के दौरान जमा किए गए सभी विचारों, भावनाओं, आवेगों और कर्मों की छापों का संग्रह है। तुम जिस संसार को देखते और अनुभव करते हो, वह तुम्हारे अपने मन का प्रक्षेपण है, क्योंकि तुम ही संसार हो। अगर तुम दुनिया को बदलना चाहते हो तो तुम्हें प्रोजेक्टर में फिल्म बदलनी होगी। पर्दे पर मर रही और पीड़ित छवियों पर उत्तेजित होने का क्या फायदा? क्या यह छवियों की प्रकृति को बदल देगा?”

          प्रशंसात्मक मुस्कान के साथ, केशव ने कहा, “मुझे आपके रूपक पसंद हैं। वे मेरी समझ को परिपक्व बनाते हैं ... फिल्म को बदलना  ... जिसका अर्थ है ... परिवर्तन या चेतना का रूपांतर .. ... यह योग का यौगिक काल्पनिक आदर्श है। ठीक है, मैं सैद्धान्तिक रूप में सहमत हूं कि यह सभी मानवीय समस्याओं का अंतिम समाधान है। लेकिन यहां मुख्य समस्या यह है कि यह समाधान बहुत दूर का आदर्श है जो कई सहस्राब्दियों के बाद ही हो सकता है। तब तक, क्या हम बिना भावनाओं के पत्थरों की तरह बैठे रहें और मानव के कष्ट कम करने के लिए कुछ भी न करें?”

          “क्या मैंने ऐसा कहा?, संत ने पूछा, “यदि तुम भीतर से महसूस करते हो तो जाओ मदद करो। लेकिन इससे ज्यादा सहायता नहीं होगी, क्योंकि जब तक दुःख और पीड़ा के कारण अंदर रहेंगे वे बार-बार अलग-अलग अनेक रूपों में खुद को बाहरी रूप से व्यक्त करेंगे। लेकिन दूसरों की मदद करने में कुछ भी गलत नहीं है क्योंकि यह तुम्हें स्वयं के प्रति अपने आंतरिक विकास में मदद करता है। वास्तव में दूसरों की मदद करके तुम अपनी मदद कर रहे हो क्योंकि तुम ही दुनिया हो। महसूस करना और सहानुभूति प्रकट करना अच्छा है क्योंकि यह तुम्हारे दिल की पंखुड़ियों को प्यार करने के लिए खोलने में मदद करता है”।

          केशव ने कहा, “आप कह रहे हैं कि दूसरों की मदद करके मैं अपनी मदद कर रहा हूं! इस कथन में तो स्वार्थ की गंध है। आप तो बाहरी सहायता को इतने हल्के में ले रहे हैं और खारिज भी कर रहे हैं। अगर कुछ संस्थाएं बेरोजगारों के लिए कुछ स्थायी आजीविका खोजने में मदद करतीं, तो यह करुणा का एक बड़ा काम होता। आप इसे बेकार कहकर खारिज नहीं कर सकते क्योंकि यह इस समस्या का स्थायी समाधान नहीं है।”

          “मैंने कभी नहीं कहा कि बाहरी मदद बेकार है”, संत जनार्दन ने जोर देकर कहा, “हर गतिविधि जो दुःख को कम करने में मदद करती है और लोगों की रहने की स्थिति में सुधार करती है सराहनीय है। उदाहरण के लिए शरीर में एक बीमारी का इलाज करने में, सबसे प्रभावी उपाय बीमारी के मनोवैज्ञानिक कारणों का पता लगाना है और उन्हें समाप्त करना है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि आपको बाहरी दवाओं का उपयोग नहीं करना चाहिए, विशेष रूप से कम से कम दुष्प्रभाव वाले उपचारों से। वास्तव में, आंतरिक और बाहरी उपचार परस्पर विरोधी नहीं हैं, उनका एक साथ प्रयोग किया जा सकता है। लेकिन भारतीय आध्यात्मिक आदर्श आंतरिक उपचार में अधिक विश्वास रखता है जो एक सकारात्मक और स्थायी आंतरिक परिवर्तन की ओर ले जाता है।

          केशव ने विरोध किया, “नहीं, मैंने कहा कि मैं स्थायी दीर्घकालिक समाधान के रूप में आपके आदर्श से सहमत हूं। लेकिन, मैं भविष्य के आदर्श के बजाय वर्तमान के  कार्यों में अधिक विश्वास रखता हूं। क्या आप मुझे बता सकते हैं कि मैं आपके आध्यात्मिक आदर्श की ओर बढ़ने के लिए आंतरिक और बाह्य रूप से क्या कर सकता हूं?”

          संत ने कहा, “यह एक अच्छा प्रश्न है। बाह्य क्रिया के संबंध में, तुम जो कुछ भी गहराई से महसूस करते हो और अपनी प्रकृति, स्वभाव, मान्यता,  क्षमता के अनुसार कर सकते हो करो। तुमको लगातार याद रखना चाहिए कि तुम, बल्कि हम ही विश्व हैं। तुम और मैं और इस दुनिया में हर कोई, व्यक्तिगत रूप से और सामूहिक रूप से जो भी अंधकार, बुराई या पीड़ा देखते हैं उसके लिए जिम्मेदार हैं। यदि तुम दुनिया में हिंसा का अंधकार देखते हो, तो उस हिंसा का थोड़ा सा हिस्सा तुम्हारे स्वयं के भीतर है,  हो सकता है कि वह बाहरी क्रिया में न दिखता हो, लेकिन तुम्हारे अपने विचार, भावना, आवेगों, उद्देश्यों में हो। यदि तुम अपने भीतर के उस अंधेरे को खत्म कर सकते हो और इसे प्रकाश में बदल सकते हो, तो इसका समान प्रभाव बाहरी जीवन के अंधेरे पर पड़ता है।”

          “एक मिनट रुकिए”, केशव ने टोका, “क्या इसका मतलब यह है कि दुनिया के सभी चार अरब लोगों को वह करना होगा जो आप कह रहे हैं, यह एक बेतुका असंभव समाधान है?”

          “क्या यह एक बेतुका असंभव प्रश्न नहीं है?”, जनार्दन ने प्रतिप्रश्न किया, “मैं तुमसे बात कर रहा हूँ अरबों से नहीं। हर बड़ा परिवर्तन कुछ लोगों से शुरू होता है और धीरे-धीरे जनता में फैल जाता है। यहाँ भी तुम्हारे और मेरे जैसे कुछ लोगों को जीवन की गहरी सच्चाइयों के प्रति जागृत होना और उसका निरंतर अभ्यास करना पड़ता है।”

          कुछ लोग लाखों को कैसे प्रभावित कर सकते हैं?”, केशव सवाल किया।

          “कोई भी इंसान एक द्वीप की तरह अकेला नहीं है”, संत जनार्दन ने समझाया “हम सभी एक छिपी हुई एकता से जुड़े हुए हैं। हमारा जीवन परस्पर एक दूसरे पर आश्रित है और एक दूसरे से जुड़ी हुई एकता का हिस्सा है। एक व्यक्ति की आंतरिक उपलब्धि और परिवर्तन का अन्य व्यक्तिगत केंद्रों पर प्रभाव पड़ता है। इससे अन्य व्यक्तियों एवं केंद्रों में भी आंतरिक उपलब्धि और परिवर्तन की क्षमता उत्पन्न होने या बढ़ाने में सहायक होता है।”

          “लेकिन महाराज, यह कई सहस्राब्दियों से चल रहा है”,  केशव ने अपने प्रश्न के साथ आगे कहा, “मानव सभ्यता की शुरुआत के बाद से आप जैसे कई संत और साधक आप जो कह रहे हैं उसका अभ्यास कर रहे हैं, लेकिन फिर भी दुनिया अंधेरा में डूबी हुई है।”

          संत ने धैर्य के साथ उत्तर दिया, “क्योंकि, इन गहन सत्यों का अभ्यास करने वालों की संख्या अभी भी कम है और अभी तक एक क्रिटिकल मास* (महत्वपूर्ण संख्या) तक नहीं पहुंची है।

(*क्रिटिकल मास – इसे समझने के लिये कह सकते हैं कि यह वह महत्वपूर्ण या न्यूनतम संख्या है जिसके बाद परिवर्तन की गति स्वतः तेज हो जाती है।)

इस महत्वपूर्ण संख्या (क्रिटिकल मास) तक पहुंचने के लिए, तीन शर्तों को पूरा करना होगा।

१ला - गहरे और उच्च आदर्शों को शिक्षा का एक अभिन्न अंग बनाना,

२रा - एक सामूहिक वातावरण, मानसिक और सामाजिक, जो इन उच्च आदर्शों को ग्रहण करने के लिए तैयार हो, और  

३रा - विचार और कर्म में एक ऐसा आदर्श नेता जो जीवन का एक जीता-जागता उदाहरण बने और और सचेत रूप से जीवन के हर क्षेत्र में इन आदर्शों को बढ़ावा दे और क्रियान्वित करे।

अब तक इन तीनों स्थितियों को पूरी तरह प्राप्त नहीं किया गया है।

“आपको क्या लगता है कि ऐसा कब तक हो सकता है?”

“मैं सटीक समय नहीं बता सकता। लेकिन मुझे लगता है कि समय आ गया है और अब यह ज्यादा दूर नहीं है।”

लगभग कितनी दूर?”

शायद कुछ शताब्दियाँ।”

कुछ शताब्दियाँ! यह कोई छोटी अवधि नहीं है”!

“यह तुम्हारे छोटे से दिमाग को लंबा समय लग सकता है। लेकिन प्रकृति के अरबों चक्रों में कुछ क्षणिक शताब्दियां कितना लंबा समय है?

तब, हमें अभी कुछ और सदियों तक भुगतना होगा!”

जिस दिन से हम वानर से मनुष्य के रूप में उभरे हैं, हम कई सहस्राब्दियों से पीड़ित हैं। तब कुछ और शताब्दियों के लिए क्यों नहीं...? यदि हम इस अवधि के दौरान, सिखाई गई सच्चाइयों के प्रति अधिक से अधिक ग्रहणशील हो सकते हैं, तो हम पीड़ा से मुक्त और शाश्वत शांति और आनंद से बनी जिंदगी जी सकते हैं।”

“अगर हम ऐसा कर सकते हैं... लेकिन अगर हम ऐसा नहीं कर सके ...”

जनार्दन ने टोकते हुए सख्ती से तेज आवाज में कहा, “रुक जाओ, हम इसके बारे में बात नहीं करते हैं, नकारात्मक सोच मानव प्रगति के लिए सहायक नहीं हैं। मेरे अकेले के करने से क्या होगा जैसी नकारात्मक सोच का त्याग करना होगा। यह सोचना और कल्पना करना बेहतर है कि अगर मानव जाति इसके लिए सहमत है तो हमारा भविष्य शानदार और भव्य होगा।”

“लेकिन, मुझे सपने देखने में कोई दिलचस्पी नहीं है।”

“क्या हमारे सर्वोत्तम सपने की प्रगतिशील प्राप्ति मानव की प्रगति नहीं है?”, संत जनार्दन ने पूछा। इस तरह का एक आशावादी सपना उन चमकदार भविष्य की संभावनाओं को प्रकट करने के लिए एक आह्वान और प्रार्थना की तरह काम करता है। एक महान रहस्यवादी और कवि के शब्दों में :  

“हमारे स्वप्न,

पंख वाले सत्य के घोड़े हैं,

सत्य के उन घोड़ों में

स्वर्ग को पृथ्वी पर लाने

की शक्ति है।”

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सिद्धि का लक्ष्य                                         छोटी कहानियाँ जो सिखाती हैं जीना

१९वीं शताब्दी के भारतीय सन्तों, सुधारकों और चिन्तकों में 'बादशाह राम' के नाम से प्रतिष्ठित संत थे। देशाटन करते हुए एक बार वे ऋषिकेश पहुँचे। उन दिनों मुनि की रेती से स्वर्गाश्रम आने-जाने के लिए नौकाओं की व्यवस्था थी। उन नौकाओं के मल्लाह उन दिनों गंगा पार करने का एक ओर की उतरायी का एक पैसा वसूल करते थे।  मुनि की रेती पर गंगा के किनारे स्वामी बादशाह राम नौका की प्रतीक्षा कर रहे थे कि एक तथाकथित पहुँचे हुए साधु उनके पास आये और बोले-“बादशाह राम! हमने तो सुना था कि तुम बड़े सिद्ध हो गये हो। तुम क्या अपनी सिद्धि के बल पर गंगा भी पार नहीं कर सकते? मुझे तो कोई जानता तक नहीं। परन्तु मुझे तो इतनी सिद्धि मिल गयी है कि में गंगा लाँघ सकता हूँ।"

          बादशाह राम मुस्कुरा उठे! बोले- "महाराज, यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई। क्या आप बतायेंगे कि इतनी सिद्धि प्राप्त करने के लिए आपने कितने वर्षों तक निरन्तर साधना की है?" उन सिद्ध साधु ने तुरन्त उत्तर दिया- "लगातार तीस वर्षों की साधना के बाद मुझे यह सिद्धि मिली है। कहो तो गंगा को लाँघ कर दिखा दूँ।" स्वामी बादशाह राम पुनः मुस्कुराये; बोले- "तुम्हारी तीस वर्षों की साधना का इतना छोटा-सा फल मिला? तुमने गंगा पार करने का एक पैसा जाने का और एक पैसा लौटने का, कुल दो पैसे बचाये। यही साधना तुम किसी ऊंचे लक्ष्य की प्राप्ति के लिए करते तो कहीं कम समय में तुम्हें कहीं बड़ी उपलब्धि हो जाती।"

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