अहंकार से प्राप्त ज्ञान अहंकार पैदा करता है,
विनय
और नम्रता से प्राप्त ज्ञान नम्रता प्रदान करती है।
स्वामी तेजोमयानंदजी (गीता)
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छुटकारा – पाप से या दुःख से? मैंने पढ़ा
मनुष्य
बड़ा विचित्र प्राणी है!
अपराध
खुद करता है, लेकिन चाहता है दंड किसी और को मिले!
जीत
का सेहरा खुद के सिर पर, लेकिन हार का ठीकरा किसी और के सिर पर।
पुण्य
का फल खुद के लिए लेकिन पाप का दंड किसी और के लिए?
है न
विचित्रिता!
हम कोई
तरकीब चाहते हैं कि पाप तो कर लिये, लेकिन पाप
के फल से बच जाऊँ। कोई मंत्र, कोई चमत्कार, कोई पूजा-पाठ, कोई दर्शन, कोई स्नान, कोई दान हमें छुटकारा दिला दे। कौन
छुटकारा दिलायेगा? और ऐसा भी नहीं है कि समझदार पुरुषों ने हमें बार-बार, हजारों बार न कहा हो कि ठहरो, रुक जाओ। यही नहीं, ऐसा भी
नहीं है कि आज भी वे हम से कह रहे हैं तो, मैं रुक जाऊंगा, हम
करते ही रहेंगे। पिछले जन्मों में करते रहे
हैं, अभी भी कर रहे हैं और आगे के जन्मों में भी करते
रहेंगे। और फिर यह विचार करेंगे कि क्या अनंत जन्मों तक किये
हुए पाप का फल क्या अनंत जन्मों
तक भोगने पड़ेंगे? हम निरंतर करते चले जाते हैं और फिर असंभव की आकांक्षा करते
हैं। पाप तो हम करें और
फल हमें न मिले, फल किसको मिलेगा फिर? अगर दुःख
मैंने बोया है तो उसकी फसल कौन काटेगा?
और यह तो सरासर अन्याय होगा कि फसल किसी
और को काटनी पड़े। फसल तो मुझे ही काटनी पड़ेगी!
इस बात की चिंता
छोड़ो कि कितना समय बीत चुका। जब जागो तभी सवेरा।
ऐसा नहीं है कि जितने समय दुःख बोया है उतने ही समय दुःख भोगना पड़ेगा। लेकिन दुःख भोगने के लिए तैयार
तो होना पड़ेगा। इस सोच से तो निकलना पड़ेगा कि दुःख भोगना ही न
पड़े। इस तैयारी में ही छुटकारा है। कहना तो यही चाहिए कि ‘चाहे
कितना ही समय लगे, जो मैंने किया है उसे भोगने के लिए मैं राजी हूँ, चाहे अनंत काल लगे’। अपनी तरफ से तैयारी तो दिखानी ही होगी और यही हमारा सौमनस्य होगा, सद्भाव होगा, ईमानदारी होगी, प्रमाणिकता होगी। हमें यह कहना
ही चाहिए कि जब मैंने फसल बोई है, तो मैं कटूँगा,
और जितनी बोई है उतनी काटूंगा। इसमें किसी और पर मैं जिम्मेवारी नहीं देता। और न कोई ऐसा सूक्ष्म
रास्ता खोजना चाहता हूँ कि किसी तरह बचाव हो जाए। किसी रिश्वत से
नहीं, किसी दबाव से नहीं, किसी की
प्रार्थना से नहीं, मेरे किये का फल मुझे मिलना ही चाहिए।
हम तैयारी तो दिखाएँ। अगर हमारी तैयारी सच्ची है, निर्मल हृदय से है, तो एक बात समझ लेनी चाहिए, दुःख का संबंध विस्तार से नहीं, गहराई से है। दुःख
के दो आयाम हैं - लंबाई और गहराई। बात सरल और
सीधी सी है, अगर एक कटोरी जल को एक
छोटी-सी शीशी में डाल दें तो जल की गहराई बढ़ जाती है लेकिन अगर उसे फर्श पर फैला दें तो उसकी गहराई
समाप्त हो जाती है। लेकिन वह पूरे फर्श पर फैल जाती है और उसकी
लंबाई बढ़ जाती है। हमने जो पाप लंबे समय तक किए हैं, कई जन्मों तक किये हैं। लेकिन अगर हम तैयार हैं झेलने को, तब
उसका दर्द हम लंबे समय तक न भोग कर गहरा भोग कर, झेल कर समाप्त कर सकते हैं। साल भर का सिरदर्द एक क्षण में भी झेला जा सकता है। पीड़ा सघन हो सकती है, प्राणांतक हो सकती है।
यह एक बड़े आश्चर्य
की बात देखने-सुनने में आती है कि रामकृष्ण कैंसर से मरे,
रमण भी कैंसर से मरे, महावीर बड़ी गहन उदर
की बीमारी से मरे, बुद्ध शरीर के विषाक्त होने से मरे, ऐसे महापुरुष, ऐसे पूर्णज्ञान
को उपलब्ध लोग ऐसी संघातक बीमारियों से मरे? जँचता नहीं। और यहां
करोड़ों है, महापापी, जो बिना कैंसर के मरेंगे। तो उनके भाग्य
में ऐसा क्या लिखा है? अक्सर ऐसा हुआ है कि जिस व्यक्ति का आखिरी
क्षण आ गया, इसके बाद जिसका जन्म नहीं होगा, यह
उनका शरीर से आखिरी संबंध है। तब उनकी पीड़ा सघन हो जाती
है, ताकि एकत्रित सारे पाप का दुःख गहरा हो जाये और फिर जनम न लेना
पड़े, अन्यथा सिर्फ उन दुःखों को भोगने के लिए फिर से जनम
लेना पड़ेगा। हम वर्षों-वर्षों और जन्मों-जन्मों तक भोगते हैं, वे क्षण में भोग लेते हैं। क्योंकि तीव्र पीड़ा को झेल लेना मुक्त हो जाना है। यह जरूरी
नहीं कि हमें उतने ही जन्म लेने पड़ेंगे जितने जन्म तक हमने पाप किए
हैं। और अगर हम तटस्थ भाव से इसे भोग
सकें तो एक क्षण में जन्मों-जन्मों की कथा समाप्त हो जाती है।
प्रार्थना मत कीजिये।
अगर करनी ही है तो दुःख हरने या कम करने के लिए नहीं बल्कि ‘पाप’ न करने की कीजिये। दुःख परिणाम है और पाप कारण। अगर कारण मिट गया तो
परिणाम स्वतः मिट जायेगा। प्रार्थना में क्षमा मत
मांगिये, दंड मांगिए। अगर पाप करते समय उसे नहीं बुलाया तो
अब भोगते वक्त किस मुंह से उसे बुलाओगे? पाप करने से रोकने नहीं बुलाया तो अब दंड भोगते समय उसे क्यों बुला रहे
हो। उचित यही है कि उसे अब दंड देने बुलाओ।
एक बात और कहूँगा, दंड का विरोध मत करो, उसके आगे समर्पण करो। विरोध में शक्ति लगेगी; अवसाद, क्रोध, अशांति घेर लेंगी। समर्पण में सहजता आ जाएगी; निश्चिंतता, क्षमा, शांति का निवास होगा। हम सोचते हैं कि एक तो पुनर्जन्म अपने आप में एक कारा-गृह का दंड है और फिर ये दुःख? ये क्या सजा के साथ-साथ जुर्माना है? लेकिन सत्य तो यही है कि किसी ने हमें कारा-गृह में नहीं डाला है। हम खुद बेहोश हैं। मोक्ष कहीं आकाश में, क्षीर सागर में, सात-समुंदर पार नहीं है, हमारे भीतर ही है। बस बेहोश मत होइये, जागृत रहिये। अपने कर्मों को भोगने के लिए तैयार रहिए। ‘मोक्ष’ पाने की नहीं, ‘मोक्ष’ धरा पर अवतरित करने की आकांक्षा रखिये।
(ओशो पर आधारित)
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रचना-कार
आड़े-तिरछे, टेढ़े-मेढ़े, गोल-लंबे आकृतियों को जब एक विशेष क्रम में सजाते हैं तो उससे उत्पन्न होता है
‘अक्षर’।
अलग-अलग अक्षरों को किसी विशेष क्रम में सजाते हैं तब जो आकृति उभर
कर आती है वह कहलाती है ‘शब्द’।
इन शब्दों को एक अनुशासन में बांधने से बनता है ‘वाक्य’।
और जब इन वाक्यों को पिरोते हैं खूबसूरती से तब निर्माण होता है एक
‘रचना’ का।
लेकिन बात यहाँ समाप्त नहीं होती,
आगे चलती है।
जब यह रचना लोगों तक पहुँचाने की व्यवस्था करते हैं तब रचना का
वितरण होता है,
और सही ढंग से वितरित होने से यह रचना पहुँचती है सही पाठकों के हाथों
में।
तब वह रचना सार्थक होती है।
मैंने
अपने एक फ्रांसीसी परिचित को एक हिन्दी रचना भिजवाई। मिलने पर उसने भी मुझे एक
फ्रांसीसी रचना भिजवाई साथ में बताया कि ‘आड़ी-तिरछी महीन रेखाओं से बनाई हुई कलाकृतियों की पुस्तक उसे मिली और पसंद
आई लेकिन उसे ऐसा प्रतीत हुआ कि उसमें कला कृतियों की बार-बार आवृति की गई है यह समझ नहीं पाया कि
ऐसा क्यों है?’
यह पूरा कार्य जब उत्तम एवं सही तरीके से, मेहनत और पूरी लगन के साथ की जाती है तब वह बनती है कालजयी रचना। इनमें
से एक में भी गड़बड़ हुई, आलस हुआ, छूट
गया, समुचित ढंग से नहीं हुआ तो वह सार्थकता उपलब्ध नहीं
होती जो उस रचना के उपयुक्त है।
यह कोई पुस्तक हो, संगीत हो, कला हो, वार्ता हो, खेल हो, फल हो, पुष्प हो, वस्तु हो, निर्माण हो,
प्रकृति कृत हो या मानव कृत सब पर कमोबेश लागू होती है। अंदाज़ लगायें किसी की भी
सफलता के लिए कितना कुछ करना पड़ता है, यही नहीं यह सब आदि से
अंत तक हमारे हाथ में नहीं है, यह एक संयोग से होता है। यह
संयोग क्या होता है, कैसे होता है,
क्यों होता है? इसका कोई एक निश्चित उत्तर नहीं है। विज्ञान
और अध्यात्म दोनों इसके उत्तर खोज रहे हैं, अपने-अपने ढंग से, कोई विश्लेषण से कोई संश्लेषण से, कोई जोड़ कर कोई
तोड़ कर। अनेक उत्तर हैं, सब के अपने-अपने। किस को सही मानें
किसको गलत यह आपकी प्रवृत्ति है।
कोई जोड़ किसी तोड़ की तैयारी थी या कोई
तोड़ किसी जोड़ की, इसका तो पता चलता है पूर्णाहुति पर ही है। आज अपनी
पत्रिका को अंतिम रूप देकर समाप्त करना था। प्रायः इसे सम्पन्न करने में रात 8-9
बज जाते हैं। लेकिन आज कार्य समय के पूर्व ही सम्पन्न हो गया, 6 बजे। इत्तिफ़ाक से! पत्रिका में एक पुस्तक, ‘द ग्रेट अडवेंचर’
से एक पन्ना दिया करता हूँ, आज भी दिया लेकिन बंद
करते-करते उस पुस्तक के अंतिम पन्ने पर, जिसे नहीं भेजना था, अचानक ध्यान चला गया जिसमें एक छोटा सा एक पन्ने का उद्धरण पढ़ने लगा और
मुझे वह बहुत अच्छा लगा। इसके बावजूद भी समय काफी था, अतः
सोचा की चलूँ शाम की सैर कर लूँ, थोड़ी लंबी सैर करके वापस
आऊँगा। निकलने के पहले एक आवश्यक फोन करना था, सोचा उनसे बात
करके ही निकलूँ। लेकिन शायद वे उस समय व्यस्त थे अतः उन्होंने कहा कि वे दस मिनट
बाद फोन करेंगे। इत्तिफ़ाक से! मैं 10 मिनट कमरे में नहीं रहना चाहता था अतः
छोटा हलका वाला (बेसिक) फोन के बदले बड़ा भारी वाला (स्मार्ट) फोन लेकर निकल पड़ा
क्योंकि फोन इसी से किया था तो फोन इसी पर आता। सैर के दौरान बात हो गई। सैर
समाप्त होने के बाद साधारणतया मैं कमरे में जाकर थोड़ा आराम कर, पानी वगैरह पीकर आता हूँ। लेकिन आज वैसा कुछ महसूस नहीं हुआ और ध्यान-केंद्र
में जाने की इच्छा हुई तो सीधे उसी तरफ
आगे बढ़ गया। मैं रोज वहाँ नहीं जाता और फोन भी लेकर नहीं आता लेकिन आज सीधे आया था
अतः फोन जेब में ही था। इत्तिफ़ाक से! सोचा कि प्रवेश करने के पहले फोन बंद
कर दूँगा। कक्ष में प्रवेश करने के पहले फोन बंद करने ही वाला था कि फोन कि घंटी
बज उठी। कुछ क्षणों का हेर-फेर होने पर फोन बंद होकर जेब में आ चुका होता। आज की
भजन गायिका का फोन था, बता रही थी कि वह ट्राफिक में फंसी है
अतः आने में देर होगी। आज यह फोन साथ में था और बंद भी नहीं था। साधारणतया मैं यह भरी फोन साथ में नहीं रखता
लेकिन आज संयोग ही कुछ ऐसा बैठा कि यही फोन साथ था। अगर वैसा संयोग नहीं होता तो
फोन मेरे पास नहीं होता, बात नहीं हो पाती। खैर कक्ष में
प्रवेश करते-करते विचार किया कि आज भजन और वार्ता का क्रम उल्टा कर दूँगा। आज की
वार्ताकार से अनुरोध करूंगा कि गायिका को आने में कुछ विलंब होगा अतः वार्ता
प्रारम्भ करें तब तक गायिका आ जाएगी।
लेकिन कक्ष में प्रवेश
किया तो पाया कि आज की वार्ताकार अनुपस्थित है। मतलब कि आज का पूरा मोर्चा मुझे ही
संभालना पड़ेगा। सोचने लगा कि क्या बोलूँ? तभी याद आया कि आज ही शाम को जो एक पन्ना पढ़ा
हूँ उस पर बोला जा सकता है। और मैंने माईक संभाल लिया। मेरी वार्ता समाप्ति के
नजदीक ही थी कि मैंने देखा कि आज की गायिका कक्ष में प्रवेश कर रही है। आज के इस
दिन भर की परिचर्या में कई जोड़-तोड़ हुए लेकिन मुझे छोड़ और किसी को पता नहीं चला और
सब कार्यक्रम सुचरू रूप से सम्पन्न हो गया।
कितने तोड़ हुए और कितने जोड़? हर तोड़ पर उद्विग्न हुआ और हर जोड़ पर संतोष। सब जोड़-तोड़ ऐसे हुए कि किसी भी न तोड़ का भान हुआ न जोड़ की प्रतीति। कार्यक्रम
बिना व्यवधान के सम्पन्न हो गया।
कौन जोड़ता है – कौन
तोड़ता है हम समझ नहीं पाते। ‘जोड़’ पर
प्रसन्न और ‘तोड़’ पर हताश मत होइये। हम
नहीं जानते कि रचनाकार क्या कर रहा है। जो भी है उसे स्वीकार कीजिये और उस रचयिता
के अहसानमन्द बने रहिए, वह तोड़ को ठीक से जोड़ सकता है, कुछ जोड़ने के लिए ही तोड़ रहा है।
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