सोमवार, 1 जुलाई 2024

सूतांजली जुलाई 2024


 जहां भी ईमानदारी और सद्भावना होती है,

                                                दैवीय शक्ति की सहायता मौजूद रहती है।

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मातृ-भाषा                                                                सुधा-मूर्ति

(“हमारा परिचय न हमारी भाषा है, न हमारा धन। हमारा परिचय है हमारी सोच, हमारी शालीनता। महत्व अपनी भाषा का है, न कि विदेशी भाषा का। यह हमारे देश का दुर्भाग्य है कि 1947 के बाद भी सरकार ने ऐसी नीतियाँ अपनाई कि युवा-वर्ग यही समझता-मानता है कि जीवन में तरक्की करने के लिए अँग्रेजी का ज्ञान आवश्यक है। 47 के बाद भी स्थानीय भाषा के बदले विदेशी भाषा का ही ज़ोर रहा, सरकार ने भी उसे ही तरजीह दी, अँग्रेजी फलती-फूलती रही हमारी भाषा मिटती रही और हम खड़े-खड़े देखते रहे।” – सुधा मूर्ति)  

          पिछले साल मैं लंदन के हीथ्रो इंटरनेशनल एयरपोर्ट पर अपनी फ्लाइट में चढ़ने का इंतजार कर रही थी। मैं एक बुजुर्ग महिला सी दिखती आम भारतीय परिधान में टर्मिनल के गेट पर खड़ी थी। यह फ्लाइट बैंगलोर जा रही थी इसलिए आसपास बहुत से लोग कन्नड़ में बात कर रहे थे।

          कुछ मिनटों के बाद बोर्डिंग की घोषणा हुई और मैं अपनी लाइन में खड़ी हो गई। मेरे सामने एक अत्याधुनिक महिला सिल्क के इंडो-वेस्टर्न पोशाक पहने खड़ी थी, हाथ में मंहगा बैग था और पैरों में ऊंची हील की चप्पल। उसके साथ उसकी एक मित्र भी खड़ी थी जिसने सिल्क की महंगी साड़ी पहनी थी, मोतियों का हार, उससे मिलते कान के झुमके और हाथों में हीरे जड़े कंगन थे। अचानक ही मेरे सामने वाली महिला ने कुछ किनारे होकर मुझे इस तरह से देखा जैसे उसे मुझपर तरस आ रहा हो। अपना हाथ आगे बढ़ाते हुए उसने मुझसे पूछा, ‘क्या मैं आपका बोर्डिंग पास देख सकती हूं?’ मैं अपना बोर्डिंग पास दिखाने ही वाली थी लेकिन तभी मैंने पूछा लिया, ‘क्यों?’

          ‘वेलयह लाइन सिर्फ बिजनेस क्लास यात्रियों के लिए है,’ उसने बहुत रौब से कहा और उंगली के इशारे से मुझे इकोनॉमी क्लास की लाइन में खड़े होने के लिये कहा।

          मैं उसे बताने वाली ही थी कि मेरे पास भी बिजनेस क्लास का टिकट है लेकिन कुछ सोचकर मैं रुक गई। मैंने उससे पूछा, ‘क्यों, क्या आपको मेरे भारतीय परिधान और भाषा के कारण ऐसा लग रहा है कि मुझे इस लाइन में नहीं लगना चाहिये?’

          मेरे प्रश्न का उत्तर देने के बजाय उसने गहरी साँस भरते हुए कहा, ‘वेल, देखिये ईकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास की टिकटों की कीमत में बहुत अंतर होता है। बिजनेस क्लास की टिकटें लगभग दो-तीन गुना महंगी होती हैं…, बिजनेस क्लास की टिकट के यात्रियों को कुछ खास सहूलियतें मिलती हैं।

          ‘अच्छा?’ मैंने पूछा, आप कैसी सहूलियतों की बात कर रही हैं?’

          उन्हें कुछ चिढ़ सी होने लगी। लेकिन उन्होंने बिज़नेस क्लास की सहूलियतों का संक्षेप में ब्योरा दिया और अंत में जोड़ा, अब आपको ईकोनॉमी क्लास और बिजनेस क्लास का अंतर पता चल गया है तो आप वहाँ जाकर अपनी लाइन में लगिये।उसने मुझे सुझाव दिया। लेकिन मैं वहाँ से हिलने को तैयार नहीं थी। वह महिला अपनी मित्र की ओर मुड़ी, ‘इन कैटल-क्लास (cattle class, मवेशी-वर्ग) के साथ बात करना ही बेकार है।

          मैं नाराज़ नहीं थी। कैटल-क्लास शब्द से जुड़ी अतीत की एक घटना मुझे याद आ गई। एक दिन मैं बैंगलोर में एक हाइ-सोसायटीडिनर पार्टी में अपने भारतीय परिधान में गई थी। बहुत से स्थानीय गणमान्य और सामाजिक लोग वहां मौजूद थे। मैं किसी मेहमान से कन्नड़ में बातें कर रही थी तभी एक आदमी हमारे पास आया और बहुत धीरे-धीरे अंग्रेजी में बोला, ‘May I introduce myself ? I am… ’ उसे यह लग रहा था कि मुझे धाराप्रवाह अंग्रेजी समझने में दिक्कत होगी।

मैंने मुस्कुराते हुए अंग्रेजी में कहा, ‘आप मुझसे अंग्रेजी में बात कर सकते हैं।

ओह,’ उसने थोड़ी हैरत से कहा, ‘माफ़ कीजिए। मुझे लगा कि आपको अंग्रेजी में बात करने में असुविधा होगी क्योंकि मैंने आपको कन्नड़ में बातें करते सुना।

अपनी मातृ भाषा में बात करने में शर्म कैसी? यह तो मेरा विशेषाधिकार है। अपनी मातृ भाषा का उपयोग करना शर्मिंदगी का सबब नहीं है। मैं अंग्रेजी में तभी बात करती हूं जब किसी को मेरी भाषा नहीं आती’, मैंने कहा।  

          खैर, इधर एयरपोर्ट पर मेरी लाइन आगे बढ़ने लगी। जब मेरा बोर्डिंग पास दिखाने का वक्त आया तो मैंने देखा कि वे दोनों महिलाएँ पीछे मुड़ कर यह देख रही थीं कि मेरे साथ क्या होगा? अटेंडेंट ने मेरा बोर्डिंग पास लिया और प्रफुल्लित होते हुए कहा, ‘आपका स्वागत है, मैडम! हम पिछले हफ्ते भी मिले थे न?’

जी हाँ,’ मैंने कहा। अटेंडेंट ने मुस्कुराकर हाथ जोड़े।

          उन दोनों महिलाओं के करीब से गुजरते हुए मैंने पूछ लिया, कृपया मुझे बताइएआपको यह क्यों लगा कि मेरे पास बिजनेस क्लास का टिकट नहीं हो सकता? क्या इसलिए कि मैं आम भारतीय वेश-भूषा में थी और अँग्रेजी में बात न कर अपनी मातृ-भाषा में बात कर रही थी?’ वे दोनों स्तब्ध होकर मुझे देखती रहीं, उनकी जुबान से कोई शब्द नहीं निकला।

          ‘आपने मुझे कैटल-क्लास का व्यक्ति कहा, लेकिन क्लास इससे नहीं बनती कि आपके पास कितनी संपत्ति है।  इस दुनिया में पैसा बहुत से गलत तरीकों से कमाया जा सकता है। आपका पैसा आपको यह हक नहीं देता कि आप दूसरों की हैसियत का निर्णय करती फिरें। मदर टेरेसा बहुत क्लासी महिला थीं। भारतीय मूल की गणितज्ञ मंजुल भार्गव भी बहुत क्लासी महिला हैं। यह विचार बहुत ही बेबुनियाद है कि बहुत सा पैसा आपको किसी क्लास तक पहुँचा सकता है। बहुत सारे धन का होना आपकी क्लास का परिचायक नहीं है मैं उनके उत्तर का इंतज़ार किये बिना आगे बढ़ गई।

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भक्ति में भी अ-कर्ता भाव?  

          चौरासी लाख योनियों में केवल मानव योनि ही कर्म योनि है, बाकी सब भोग योनियां हैं। मानव जीवन में आकर अच्छे कर्म करते रहें, किसी का बुरा न करें, यही मानव जीवन का उद्देश्य है। "जैसा होगा कर्म वैसा होगा फल, यही है गीता का ज्ञान। कर्म करते रहो, फल के प्रति आसक्ति न रखो।" यानी हर कर्म के साथ उस कर्म का फल निश्चित है। जिस प्रकार हजारों गायों में बछड़ा अपनी मां को ढूंढ़ लेता है, उसी प्रकार कर्मफल, कर्ता को ढूंढ़ लेता है। लेकिन यदि बिना कर्म के जीव एक क्षण नहीं रह सकता और कर्म का फल भोगने के लिए बार-बार जन्म लेना पड़ता है तो फिर कर्म बंधन से मुक्ति कैसे हो? क्या शुभ कर्म करना ही काफी है? शुभ कर्म करने पर भी क्या जीव बंधन में है? समझने का प्रयत्न करते हैं।

          जिस प्रकार परमात्मा अटल है, इसी प्रकार इसकी रचना और विधान भी अटल, अद्भुत और विलक्षण है। इसी विधान के अंतर्गत जीव को कर्म करने की स्वतंत्रता भी है और कर्म फल भोगने का सिद्धांत भी है। बंधन का कारण कर्म नहीं बल्कि कर्मों में आसक्ति और हमारा कर्तापन है। हर गुरु, पीर, पैगम्बर ने मनुष्य को कर्म करने का उपदेश दिया है। श्रीमद्भगवद्गीता में लिखा है - आसक्ति को त्याग कर योग में स्थित होकर कर्म करो। ईशावास्योपनिषद के पहले ही मंत्र में- 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा कहकर ऋषि त्याग भाव से भोग करने का उपदेश दे रहे हैं। त्याग भी हो और भोग भी यह कैसे संभव है? युद्ध क्षेत्र में गये सैनिक का उदाहरण देकर संत समझाते हैं कि लड़ाई के दौरान एक वीर सैनिक द्वारा दुश्मन के सैकड़ों सैनिकों को मार डालने पर उसे वीरता का पुरस्कार मिलता है। लेकिन वही सैनिक घर आकर किसी निजी रंजिश के चलते पड़ोसी को मार डाले तो उसे उम्रकैद या फांसी हो सकती है। तो क्या जीव भी सैनिक की भांति किसी परम शक्ति के अधीन होकर कर्म करे? क्या इससे  कर्तापन समाप्त हो सकता है? जब जीव कर्ता ही नहीं रहेगा, तो कर्म का फल कैसा और फल का भोग किसको? आखिर कौन है कर्ता? क्या केवल ईश्वर ही समस्त जगत का कारण भी है और कर्ता भी और सब कर्म इसी के निमित्त करने हैं? बड़ी उलझन है।

          एक और उदाहरण देखें। अगर कोई हमें पांच लाख रुपये किसी व्यक्ति विशेष को देने के लिये दे, तब जब तक हम उस व्यक्ति को उसकी अमानत सौंप नहीं देते, तब तक हम उस बोझ से मुक्त नहीं हो सकते। अगर हम उसके मालिक तक नहीं पहुंचते और पहले ही पकड़ लिये जाते हैं  तब हम चाहे लाख दलीलें दें और कहें कि ये पैसे मेरे नहीं हैं, हमें ही उसका मालिक माना जायेगा। अर्थात, जब तक कर्ता का पता नहीं चलता जीव चाहे लाख रटन लगा ले, समर्पण नहीं हो सकता। अच्छे कर्म सोने की जंजीर है और बुरे कर्म लोहे की। लेकिन दोनों ही जंजीर है, दोनों ही बंधन का कारण है। लोहे की हथकड़ी तो फिर भी छूट जाती है लेकिन सोने की हथकड़ी, शुभ कर्मों का यह सूक्ष्म अहंकार, तो छूटता ही नहीं। समर्पण के लिए कर्ता का ज्ञान, बोध, जानकारी और समझ होना जरूरी है ताकि तेरा तुझको अर्पण, क्या लागे है मेरा कहा जा सके।

          ज्ञान प्राप्ति के बाद जीव के कर्म ईश्वर के निमित्त हो जाते हैं। जिस प्रकार बैंक का कैशियर दिन में लाखों रुपए जमा होने पर न खुश होता है, न ही करोड़ों निकाले जाने पर दुखी होता है और न ही उसे कर्तापन का जरा सा भी अहसास होता है, उसी प्रकार ज्ञानी, कर्मों से निर्लिप्त और अनासक्त हो जाता है। भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, हे अर्जुन! जिस प्रकार एक छोटी सी चिंगारी लाखों मन लकड़ियों के ढेर को जलाकर नष्ट कर देती है, उसी प्रकार ज्ञान रूपी अग्नि जन्मों-जन्मों के संचित कर्मों को पल भर में नष्ट कर देती है। ज्ञानी परम शक्ति के अधीन होकर निष्काम और अकर्ता भाव से कर्म करता है। जिस प्रकार उबले हुए बीज दोबारा नहीं उगते उसी प्रकार उसके कर्म, फल रहित हो जाते हैं और जीव फल भोगने के लिए बार-बार जन्म-मरण के बंधन में नहीं आता।

          इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि उसमें अकर्मण्यता आ जाती है बल्कि वह पहले से भी अधिक शक्ति से ईश्वर द्वारा प्रदत्त तन-मन-धन के सभी  सामर्थ्य से एक कर्म-योगी बन संसार में विचरता है और अपने सभी कर्तव्यों को निभाता है। कर्ता न होने से ऐसा भी नहीं कि जीव अपनी मर्जी से अच्छा-बुरा कुछ भी कर्म कर ले क्योंकि अब उसे कर्म का फल तो भोगना ही नहीं, बल्कि जीव ईश्वरीय इच्छा में आ जाता है। ईश्वरीय इच्छा सकारात्मक है, सृजन है, सेवा है, संसार का भला है।

श्रीमदभगवद गीता का गूढ उपदेश भी यही है मानव सत्गुरु की शरण में  आकर तथा कर्ता ईश्वर को जानकर इसके निमित्त होकर सभी कर्म करे। तभी जीव कर्ता से अकर्ता हो सकता है और सभी कर्म बंधनों से मुक्त हो सकता है। इस विशेष उद्देश्य के कारण ही मानव जीवन की विशेषता है।

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नजरिया

          एक दिन एक अमीर व्यक्ति अपने बेटे को किसी गाँव में ले गया। वह अपने बेटे को यह दिखाना चाहता था कि वे कितने अमीर और भाग्यशाली हैं, जबकि गाँव के लोग कितने गरीब हैं।

          उन्होंने कुछ दिन एक गरीब के खेत पर बिताये और फिर अपने घर वापस लौट आये। रास्ते में अमीर व्यक्ति ने बेटे से कहा - 'तुमने देखा, लोग कितने गरीब हैं और वे कैसा जीवन जीते हैं?' बेटा ने कहा - 'हाँ, मैंने देखा। हमारे पास एक कुत्ता है और उनके पास चार हैं। हमारे पास एक छोटा-सा स्वीमिंग पूल है और उनके पास एक पूरी नदी है। हमारे पास रात को जलाने के लिये विदेशों से मँगायी गयी रोशनी है और उनके पास रात को चमकनेवाले अरबों तारे हैं। हम अपना खाना बाजार से खरीदते हैं और वे अपना खाना खुद अपने खेत में उगाते हैं। हमारा छोटा-सा परिवार है, जिसमें पाँच लोग हैं, जबकि उनका पूरा गाँव उनका परिवार है। हमारे पास खुली हवा में घूमने के लिये एक छोटा-सा बगीचा है और उनके पास बड़े-बड़े खेत हैं जो कभी समाप्त ही नहीं होते। हमारी रक्षा करने के लिये हमारे घर के चारों तरफ बड़ी-बड़ी दीवारें हैं और उनकी रक्षा करनेके लिये उनके पास अच्छे-अच्छे दोस्त हैं।'



          अपने बेटे की बात सुन, अमीर व्यक्ति कुछ बोल नहीं सका बेटे ने अपनी बात समाप्त करते हुए कहा- 'धन्यवाद पिताजी, मुझे यह बताने के लिये कि हम कितने गरीब हैं।’

दुनिया को अपनी नजरों से देखें, दूसरे की नजरों से नहीं।

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