गुरुवार, 1 अगस्त 2024

सूतांजली अगस्त 2024

 



जो स्वाभाविक है वही सहज है,

                                                जो सहज है वही सरल है,

                                                                      जो सरल है वही निर्मल है

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भारतीयता क्या है?

(यहां कुछ धारणाएं हैं जो भारत की वर्तमान वास्तविकताओं के अनुरूप नहीं हो सकती हैं। यह भारत के गहरे और आंतरिक अस्तित्व के बारे में हमारी अवधारणा है जिसमें उसकी अद्वितीय प्रतिभा और उसकी उच्च संभावनाएं समाहित हैं, और हमें इस बात का विश्वास है कि हम इसे पुनः प्राप्त कर लेंगे।)

          हम प्रायः भारत के संदर्भ में भारतीयता की भी चर्चा सुनते हैं। लेकिन क्या भारतीयता जैसी कोई चीज़ है? और अगर है तो वह क्या है? श्रीअरविंद ने इस संदर्भ में कहा है - 

       “राष्ट्र केवल एक भौगोलिक या भौतिक इकाई नहीं है। वह शरीर, प्राण, मन, आत्मा और अद्वितीय स्वभाव तथा प्रतिभा वाली एक जीवित प्राणी है।”

          इस परिप्रेक्ष्य में भारतीय होने का अर्थ है सचेतन या अचेतन रूप से भारत की आत्मा और मस्तिष्क के प्रति ग्रहणशील होना और उसके अनुरूप होना। लेकिन व्यक्तिगत और राष्ट्रीय चरित्र, स्वभाव, गुणों और मूल्यों के संदर्भ में इसका क्या अर्थ है?

         सर्व प्रथम, एक भारतीय मानता है कि राष्ट्र मात्र एक भौगोलिक अवधारणा नहीं है। उसका मानना ​​है कि भारत एक जीवित दैवीय शक्ति, एक महान देवी और सार्वभौमिक माता का स्वरूप है। एक भारतीय के अनुसार देशभक्ति का अर्थ राष्ट्र की इस दिव्य आत्मा के प्रति सचेत होना और माँ के रूप में उसकी पूजा करना और उसकी सेवा करना है। एक भारतीय, राष्ट्र के भूगोल में माँ के भौतिक स्वरूप के दर्शन करता है; राष्ट्र के आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक जीवन में माँ की जीवन शक्ति को पाता है; और उसके मन और आत्मा में राष्ट्र की संस्कृति और धर्म, कला और साहित्य, विज्ञान और दर्शन, निवास करती है। एक भारतीय भारत के ऐतिहासिक और सांस्कृतिक विरासत में, भारत की आत्मा की अद्वितीय आध्यात्मिक प्रतिभा और उसकी नियति के दर्शन करता है।

       द्वितीय, भारतीय स्वयं को ईमानदारी से सत्य की निरंतर खोज के रूप में व्यक्त कर सकता है। लेकिन भारतीय मन कानून, प्रक्रिया और घटना के बाहरी सत्य से संतुष्ट नहीं है। इसका आग्रह चीजों की सबसे गहरी उत्पत्ति और सार के लिए है। उदाहरण के लिये, यदि वह एक वैज्ञानिक है तो वह पदार्थ के बाहरी रूप के नियमों और प्रक्रिया को जानने से संतुष्ट नहीं है; वह उस पदार्थ की आध्यात्मिक उत्पत्ति और उसके सार तत्व की भी खोज करता है। यदि वह धार्मिक स्वभाव का है तो उसकी सहज आस्था उसमें वास करने वाली दिव्यता में होती है। वह बाहरी स्वरूप के बजाय आंतरिक देवत्व की खोज करता है। लेकिन बाह्य रूप के उपासकों के प्रति उनके मन में कोई अभिजात्यवादी अवमानना ​​नहीं है। उनका मानना ​​है कि सर्वव्यापी परमात्मा किसी भी बाहरी रूप या प्रतीक में प्रकट हो सकता है।

          भारतीय के इस धार्मिक स्वभाव की तीसरी विशेषता है दैवीय वास्तविकता के प्रति उसका गैर-हठधर्मी और सार्वभौमिक दृष्टिकोण। भारतीय मानस की यह सर्वोच्च सहिष्णुता नास्तिकता को भी एक धर्म और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग मानती है। भारत के तीन महानतम योगियों, बुद्ध, महावीर और पतंजलि ने गैर आस्तिक आध्यात्मिकता का प्रचार किया और माना कि आध्यात्मिक मुक्ति के लिए रचनात्मक ईश्वर या व्यक्तिगत ईश्वर में विश्वास आवश्यक नहीं है। इन तीनों को भारतीय धार्मिक मानस द्वारा महान आध्यात्मिक विभूतियों के रूप में स्वीकार और सम्मानित किया गया, क्योंकि भारतीय मानते हैं कि सत्य की ईमानदार और निस्वार्थ खोज, चाहे किसी भी क्षेत्र में हो, उतनी ही धार्मिक या आध्यात्मिक दृष्टिकोण है जितना कि ईश्वर के प्रति प्रबल आस्था और भक्ति।      

          भारतीय स्वभाव का चौथा महत्वपूर्ण गुण मानवीय और नैतिक मूल्य-प्रणाली है। भारतीय मानते हैं कि "कर्म करने वाले व्यक्ति से विचारक बड़ा है, और विचारक से आध्यात्मिक व्यक्ति बड़ा है"। भारतीय मनोविज्ञान में, आध्यात्मिकता बुद्धि से अधिक महान है और बुद्धि संवेदना और क्रिया की गतिशील क्षमताओं से अधिक महान है।

          भारतीय स्वभाव का पाँचवाँ महत्वपूर्ण गुण उसकी आंतरिकता है। वह स्वभाव से चिंतनशील और दार्शनिक है। वह न केवल ध्यान के दौरान बल्कि जाग्रत जीवन और क्रिया के दौरान भी अंदर जीने की इच्छा रखता है। भारतीय मन मानव जीवन की प्रत्येक गतिविधि, अर्थशास्त्र, राजनीति, शिक्षा, कला, वाणिज्य, व्यवसाय, विज्ञान, प्रौद्योगिकी में इस आंतरिक सत्य और नियम की खोज करता है। उदाहरण के लिए, नैतिकता में, भारतीय मन बाहरी कार्य की अच्छाई के बजाय मन, हृदय और आत्मा की आंतरिक अच्छाई, निःस्वार्थता और उदारता पर जोर देगा; कला में भारतीय सौंदर्यवादी स्वभाव बाहरी रूप के पीछे छिपे आंतरिक सत्य और सौंदर्य को देखने, महसूस करने और व्यक्त करने की आकांक्षा रखता है।

          यह भारत के मूल वैदिक मन की अभिन्न दृष्टि है, जिसने भारतीय संस्कृति और सभ्यता का निर्माण किया। वैदिक ऋषियों ने इसे मानवता के भविष्य के विकास के लिए लागू किया। इसे बाद में दर्शन को नकारने वाली विशिष्टतावादी दुनिया द्वारा कमजोर और विकृत कर दिया गया। सच्चा भारतीय मन इस मूल अभिन्न दृष्टि को पुनः प्राप्त करने का प्रयास करेगा

          एक मानव के ये विशेष गुण ही उसे भारतीय बनाते हैं और यही है भारतीयता।

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कैसे करें निर्णय?

 

जो कम जानता है वह मानता है कि वह बहुत जानता है, लेकिन जो बहुत जानता है वह मानता है कि वह बहुत कम जानता है। श्रीमदभगवतगीता ऐसा ही एक ज्ञान है, जिन्होंने इसे नहीं जाना, नहीं पढ़ा, नहीं सुना वे मानते हैं कि वे इसे जानते हैं। लेकिन जिन संतों ने, विद्वानों ने इसे जाना उन्होंने इसकी अलग-अलग व्याख्या की। उनमें मतभेद हैं लेकिन विरोध नहीं। वे उन सभी व्याख्याओं को स्वीकार करते हैं।

          शंकराचार्य अद्वैतवादी थे। उनका कहना था कि जगत् मिथ्या है, ब्रह्म ही सत् है, आत्मा भी मूलतः ब्रह्म है, उन्होंने ज्ञान योग पर बल दिया। रामानुजाचार्य विशिष्टाद्वैतवादी थे, उन्होंने भक्ति योग की चर्चा की। लोकमान्य तिलक ने कर्म योग कर ज़ोर दिया, श्री अरविंद ने इन तीनों योग के महत्व को स्वीकार करते हुए, तीनों का योग कर दिव्यकर्म या पूर्ण योग की चर्चा की। महात्मा गांधी ने माना कि गीता से हमें मार्ग-दर्शन प्राप्त होता है।

          एक साधारण पाठक-साधक भ्रमित हो जाता है – ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, दिव्य कर्म, मार्ग-दर्शन... क्या करे, क्या न करे? कोई मोक्ष की बात करता है, कोई एकांत साधना की, कोई हिमालय की ऊचाइयों पर गुफाओं में बैठ कर तपस्या करने की। कोई कहता है मोक्ष ही अंतिम लक्ष्य है तो कोई बताता है कि यह अंत नहीं है यह तो प्रारम्भ है। हमें मोक्ष प्राप्त करना है, इसका अर्थ यह नहीं है कि हमें कहीं जाना है बल्कि हमें मोक्ष अपने अंदर उतारना है, अपने दैनिक जीवन में इसे उतारना है, यह दिखना चाहिये, इसका अहसास होना चाहिये। प्रश्न है कि हम, तुम, वह, सब इसे अपने जीवन में कैसे उतारें? सही बात तो यह है कि यहाँ कोई हम, तुम, वह, सब हैं ही नहीं जो है वह बस है। यानी हमें कुछ करना नहीं है हमें बस सिर्फ होना है। 

          पूरी गीता में श्रीकृष्ण मैं और मेरा की भाषा में बात करते हैं तो लगता है कि यह तो बड़ा अहंकारी है। लेकिन फिर बात समझ आती है अहम ब्रह्मास्मि’, हम उसी एक ब्रह्म के ही अंश है। हमने जीवन को अपनी सोच, अपने विश्वास, अपने घमंड, अपनी धारणा, अपने पूर्वाग्रह  के अनुसार गढ़ लिया है। गिलास आधा भरा है या आधा खाली का उदाहरण हम जानते हैं। इसका उत्तर हमारा अपना है, वही हमारी दुनिया है। यह वह दुनिया नहीं है जो बाहर है। यह दुनिया हमारी अपनी तामसिक, राजसिक और सात्विक गुणों की दुनिया है जिसका निर्माण हमने खुद कर लिया है।

          अर्जुन बड़े सीधे और सपाट प्रश्न करता है लेकिन उसके उत्तर श्रीकृष्ण बड़े कूटनीतिज्ञ की तरह देते हैं। आप कभी कर्म की बात करते हैं कभी ज्ञान की’, कभी कर्मों से सन्यास की तो कभी कर्मयोग की’, कभी द्वैत की कभी अद्वैत की’, कभी सगुण तो कभी निर्गुण उपासकों की’, सन्यास और त्याग में क्या फर्क है। श्रीकृष्ण इन सब के उत्तर देते हैं, विस्तृत उत्तर देते हैं। समझने के लिये चिंतन-मनन करना पड़ता है।

          यह ठीक वही परिस्थिति है। चार अंधे हाथी देखने निकले – किसी के हाथ हाथी का पैर आया किसी के हाथ आया सूंड, तो किसी के पोंछ, किसी के कान, किसी के पेट। जिसको जैसे हाथ लगा उसने वैसा ही समझा। एक ने उस सब को जोड़ कर व्याख्या कर दी। लेकिन तब भी, हाथी इससे कहीं ज्यादा था। कोई गलत नहीं था लेकिन कोई पूर्ण सत्य भी नहीं।

          तब, क्या करें। न इसकी चिंता करें न फिकर, लेकिन यह स्वीकार करें कि अभी बहुत थोड़ा जाना है और अभी बहुत जानना बाकी है। लेकिन वहाँ रुकें नहीं आगे बढ़ते रहें। जितना जानते हैं उसके सहारे ही आगे बढ़ते चलें।  जैसे-जैसे आगे बढ़ेंगे द्वार खुलते जाएंगे प्रकाश उज्ज्वल से उज्ज्वलतर होता जायेगा, बादल छाँट जाएंगे। लेकिन जैसे-जैसे जानते जायें उसे जीना शुरू करें, जब जीने लगें तब होना शुरू करें।

जानना अच्छा है, जीना बेहतर है लेकिन होना सर्वोत्तम है।

          ज्ञान केवल जमा करते रहें तो उसका कोई अर्थ नहीं है, आवश्यक है उस ज्ञान को कार्य रूप में परिणीत करना, उस पर आचरण करना, उसे अपने जीवन में उतरना। सब होने के बाद अगर वैसा हो नहीं सके तो सब बेकार है। लेकिन यह होना ही सबसे कठिन है। इसमें सबसे बड़ी बाधा है हम स्वयं, हमारा अभिमान, हमारा ईगो। जाने-अनजाने यह हमें रोकता है। हमें कुछ पसंद है और कुछ नहीं। जो पसंद है उसे सहर्ष स्वीकार कर लेते हैं जो नापसंद है उसे खारिज कर देते हैं। और यह पसंद-नापसंद हमारी अपनी  निर्मित धारणाओं पर होता है। केवल ज्ञान जमा करना, भजन करना, मंदिर जाना, तीर्थों में जाना, प्रवचन सुनना पर्याप्त नहीं है। अगर हमने उसे जीवन में नहीं उतारा, तो हम वैसे हो नहीं  सके। कथनी होकर रह गई, करनी में परिणत नहीं हो सकी। हमें प्रतिस्पर्द्धा के बजाय सहयोग का रास्ता चुनना होगा।  हमने अपने साँचे (मौल्ड्स) बना रखें हैं, काट-छांट कर, तोड़-मरोड़ कर सब उसी में ढालते हैं। और अगर नहीं ढलते हैं तो उन्हें अस्वीकार कर देते हैं। अगर कोई सिद्धान्त का पक्का होता है तो वह सपने देखने वालों को, अलग-अलग प्रयोग करने वालों को स्वीकार नहीं कर पाता। वह जो छोटी-छोटी बातों को भी महत्व देता है वह सिद्धांतवादी को स्वीकार नहीं कर पाता और उनकी परवाह नहीं करता। चाहे उनमें और दूसरे सद्गुण हों उसका तिरस्कार कर देता है। यही है मानव का स्वभाव। उससे बाहर निकलना होगा। जो जैसा है उसे ही स्वीकार करना सीखना होगा।  

          दिक्कत यही है कि हमें पता ही नहीं चलता है कि हमारा निर्णय किस पर आधारित है। हमारा अभिमान इतने सूक्ष्म तरीके से हमारे निर्णयों को प्रभावित करता है कि न तो हम समझ पाते हैं न ही सहमत कि यह निर्णय किसी अभिमान पर, किसी पूर्वाग्रह पर आधारित है। अपने विचारों को, निर्णयों को अपने अभिमान की दृष्टि से न देख कर दैवीय दृष्टि दे देखें। अपनी अभिमान से बने फिल्टर्स  (छलनियों) से न छान कर इन दैवीय फिल्टर्स से छानें - हमारा निर्णय सच्चाई और निष्कपटता से आ रहा है या इसमें झूठ और कपटता है, विनम्रता है या कठोरता है, कृतज्ञता है या कृपणता है, साहस है या डर है, प्रगति है या अवनति है, ग्रहणशीलता है या तिरस्कार है, अभिप्सा है या अनिच्छा है, अच्छाई है या बुराई है, उदारता है या कृपणता है, शांति है या कलह है, समानता है या असमानता है, मेहनत है या आलस्य है, यह हमारे लिए अच्छा है या फायदेमंद है। यह बड़ा कठिन प्रतीत होता है लेकिन एक बार इस पर काम करने लगें तो शीघ्र ही महसूस करेंगे कि यह बड़ा आसान है और निरंतर अभ्यास से स्वतः होने लगेगा। हाँ कहीं से प्रारम्भ तो करना ही होगा। एक बार इन फिल्टर्स का प्रयोग करने लगेंगे तो दिखने लगेगा कि हम अपने निर्णयों में किसकी मिलावट कर रहें हैं, यह कहाँ से आ रहा है। इसमें क्या है, क्या रखना है क्या छोड़ना है। यह हमारे जीवन में, आचार-विचारों में, रहन-सहन में, रंग-ढंग में, चाल-ढाल में, लहजे में साफ-साफ परिलक्षित होने लगेगा। यही है वह संपत्ति जिसे हमने अपने पुरखों से, सभ्यता और संस्कृत से मिली है और इसे ही आगे आने वाली पीढ़ी को देनी है।

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