स्वयं
को भेड़ बना लोगे
तो
भेड़िये आकर तुम्हें खा जायेंगे।
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जर्मन
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बुद्धि : आत्मा का दीपक
ईश्वर ने हमें बुद्धि प्रदान की है उसका प्रयोग करने के
लिये। यह हमारा शृंगार नहीं है, यह हमारी शक्ति है जिसका
प्रयोग कर हम पशुत्व से ईश्वरत्व की तरफ बढ़ सकते हैं। ईश्वर के प्रति हमारा यह
कर्त्तव्य है कि हम अपने जीवन का उपयोग बुद्धिमत्तापूर्वक
करें, उसे बुद्धिमत्तापूर्वक चलायें। मूढ़ से भी मूढ़ व्यक्ति को
भी ईश्वर उसके लिये आवश्यक
बुद्धि अवश्य देता है, पर दुर्भाग्यवश हम प्राप्त बुद्धि के बहुत थोड़े अंश का उपयोग
करते हैं। जीवन के प्रत्येक कार्य में, प्रत्येक क्षण बुद्धि का उपयोग किया जाना चाहिये, पर हम बुद्धि से काम कहीं-कहीं ही लेते हैं।
एक बार हम अपने आप से आज यह प्रश्न करें कि
क्या हम अपने जीवन का उपयोग सचमुच बुद्धिमत्तापूर्वक कर रहे
हैं? क्या हम अपने खान-पान में अपनी बुद्धि का उपयोग करते
हैं? क्या अपनी खाद्य साम्रगी बुद्धिमत्तापूर्वक चुनते हैं? अपने धन का खर्च बुद्धिमत्तापूर्वक
करते हैं? अपने शब्द-बल का प्रयोग लोगों में उस आशा और उत्साह का संचार करने के लिए
करते हैं जिन्हें हम जीवन का अमृत समझते हैं? सबसे आवश्यक
प्रश्न तो यह है कि क्या हम विचार करते समय अपनी बुद्धि से
काम लेते हैं? क्या जिन बातों को हम सुनते हैं उन्हें अपनी
कसौटी पर कसते हैं? अपने दैनिक कार्यों के करने में, वे छोटे हों या बड़े, क्या हम अपनी बुद्धि का उपयोग करते हैं? जब-जब हमारे
सामने कोई नयी समस्या खड़ी होती है तो हम उसे क्या भावुकता, भौतिकता, स्वार्थ के बजाय बुद्धि से सुलझाते हैं?
क्या हमने अपने भविष्य के लिये कोई कार्यक्रम
बुद्धिमत्तापूर्वक बनाया है? क्या हम जानते हैं कि भविष्य
में हम क्या बनना चाहते है और क्या करना चाहते हैं? यदि नहीं
तो क्या यह बुद्धिमानी नहीं होगी कि हम जो कुछ करें और जो
हम करना चाहते हैं उसको प्राप्त करने के लिए एक कार्यक्रम
निश्चित करें? कब तक, कितना और कैसे चाहिये?
आज संसार को जिस वस्तु
की अधिक-से-अधिक आवश्यकता है, वह है बुद्धि। संसार में सदिच्छा और सद्भावना की कमी
नहीं है, पर चूंकि हमलोग बुद्धि का उपयोग नहीं करते, हम अपने को हर जगह कठिनाई में पाते हैं।
आज के संसार की समस्या
का समाधान इसीमें है कि प्रत्येक देश, संप्रदाय, धर्म के लोग अंधविश्वास और अंधपरंपरा का त्याग करके सभी
राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और धार्मिक समस्याओं का सामूहिक हल बुद्धि
से निकालें। पर जबतक ऐसा नहीं होता हम में से प्रत्येक व्यक्तिगत रूप में बुद्धि
का उपयोग कर ही सकता है।
बुद्धि ईश्वर प्रदत्त आत्मा का दीपक है। इस दीपक
का प्रकाश धुंधला न होने दें, न इस प्रकाश की परिधि से दूर जायँ । अपनी बुद्धि का उपयोग
करें। बुद्धि का प्रयोग कर अन्य नकारात्मक अकर्षणों से बचें। बुद्धि
के प्रयोग का-सा आनंदप्रद खेल दुनिया में दूसरा नहीं है।
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जंगली
कौन?
एक
मिशनरी ने एक बार किसी देश के मूल निवासियों के एक समूह को अपने पवित्र धर्म की
सच्चाइयों की शिक्षा देने का बीड़ा उठाया। उसने उन्हें छह दिनों में पृथ्वी के
निर्माण और एक सेब खाने से हमारे प्रथम
माता-पिता के पतन के बारे में बताया।
विनम्र मूल निवासियों ने ध्यान से उनकी बात
सुनी, सुनने के बाद उन्होंने उसे
धन्यवाद दिया और फिर एक ने मक्के की उत्पत्ति के संबंध में एक बहुत प्राचीन परंपरा
बताई। लेकिन मिशनरी ने स्पष्ट रूप से अपनी घृणा का प्रदर्शन किया, उनकी बात पर अविश्वास दिखाया और क्रोधपूर्वक कहा,
"जो कुछ मैं ने तुम्हें सुनाया वह पवित्र सत्य था, परन्तु
जो कुछ तुम मुझ से कह रहे हो, वह कोरी काल्पनिक कहानी और झूठ
है!"
"मेरे भाई" मूल निवासी ने नाराज होकर लेकिन गंभीरता से उत्तर दिया, "ऐसा लगता है कि अभी आपको सभ्यता के नियमों की अच्छी जानकारी नहीं हैं। आपने देखा कि हम, जो इन नियमों का पालन करते हैं यह मानते हैं कि ये सत्य हैं, उनकी श्रद्धा करते हैं और पवित्र भी मानते हैं, लेकिन फिर भी हम आपका आदर करते हैं और आपकी कहानियों पर विश्वास करते हैं; तो फिर, आप हमारी बातों को समझने से इनकार क्यों करते हैं?"
ईसाई मिशनरी शायद अपने को अन्य से
श्रेष्ठ समझ रहा था। शायद वह यह सोच रहा था,
"मैं इन जंगली मूल निवासियों को ईश्वर और मनुष्य के पवित्र सत्य के प्रति
जागृत करने की कोशिश कर रहा हूं। लेकिन ये जंगली लोग मक्के जैसी सांसारिक चीज़ के
बारे में कुछ बचकानी दंतकथाएं गढ़ रहे हैं।" लेकिन वह यह नहीं समझ रहा था कि
मूल अमेरिकियों के लिए, मक्का सांसारिक नहीं है बल्कि भगवान
के समान पवित्र है क्योंकि यह प्रकृति का हिस्सा है। ‘महान
आत्मा’ जिसने दुनिया को बनाया है वह इसमें निवास करती है और
इसे एक अद्वितीय उद्देश्य से भर देती है। मूल अमेरिकी दृष्टिकोण में, जो आंतरिक रूप से पारिस्थितिक है, मक्का की उत्पत्ति
की कहानी मनुष्य के निर्माण की कहानी जितनी ही पवित्र है, क्योंकि
मनुष्य और मक्का प्रकृति के समान, परस्पर जुड़े हुए और
अन्योन्याश्रित हिस्से हैं। मूल अमेरिकी जनजातियाँ पौधों का सम्मान करती थीं, कीड़े, सरीसृप, पशु और पक्षी "वस्तुओं"
के रूप में नहीं बल्कि "सामान्य इंसान" के रूप में।
ये ‘जंगली’ निवासी जिन्हें हम अनपढ़, गंवार, असभ्य, रूढ़िवादी मानते हैं शायद किसी हद तक हम पढ़े-लिखे, समझदार, सभ्य और आधुनिक लोगों से ज्यादा अच्छे
इंसान हैं। वे हमारी तुलना में सभ्यता के नियमों को ज्यादा अच्छी तरह समझते हैं।
हिन्दी के प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री नरेंद्र कोहली ‘सागर मंथन’ में लिखते हैं - ... “व्यक्ति
जिस समाज में रहता है, उसी के रीति-रिवाज और प्रचलन के अनुसार उसे
चलना पड़ता है। अमेरिका में रहने वाला भारतीय अमरीका में रह रहा है या अमरीकी समाज
में? देश अलग है, वहाँ के लोग अलग हैं; किन्तु वह उनका समाज नहीं है। उनका अपना समाज तो भारतीय समाज ही है, चाहे भारत में रहें, या अमरीका में”।
... और क्या यह सही है? और अगर सही है तो वह कब तक ‘भारतीय समाज’ है, पहली पीढ़ी तक, या दूसरी पीढ़ी तक या उसके बाद और कितनी पीढ़ी तक! क्या उसके साथ हर समय ‘भारतीय मूल’ की पूंछ नहीं लगी रहेगी? वह अपने को तो अमरीकी समाज का हिस्सा मानता है लेकिन क्या अमेरिकी समाज भी उसे अपना हिस्सा मानती है?
विदेश में रहने वाला बेटा स्वयं अपनी माँ को सूचना दे रहा है
कि वह अपनी एक कैनेडियन गर्लफ्रेंड के साथ रह रहा है। विवाह के बिना ही दोनों साथ
रह रहे हैं – ‘लिव इन’। इसलिए वह
लड़की न उनको अपना सास-ससुर मानती है और न उनसे कोई सम्बन्ध रखना चाहती है।
उन्होंने कई बार उन लोगों को घर आने को कहा, किन्तु वे नहीं माने।
मित्र ने स्वयं उनके घर जाने की अनुमति माँगी तो उस लड़की ने पूछा, "वाय दिस ओल्डमैन वांट्स टू कम टू आवर हाउस।" (यह वृद्ध इंसान क्यों हमारे
घर आना चाहता है? वे उसके ससुर नहीं थे। बस एक
ओल्डमैन थे।
माँ
ने बेटे को समझाया कि तुम्हें वह लड़की पसन्द है और वह तुम्हें पसन्द करती है, इतने समय से साथ रह रहे हो, तो विवाह क्यों नहीं कर लेते?
बेटे का उत्तर था, "वाय स्पॉयल दि फन।" (आनंद को क्यों बर्बाद किया जाये)
"क्या मतलब?"
"अरे हम दोनों
अपनी-अपनी जरूरत से साथ रह रहे हैं। पत्नी बन गयी तो छाती पर बैठ कर मूँग दलेगी।
हुकुम चलायेगी। अपनी माँगों की सूची बढ़ाएगी। दंगा-फसाद करेगी। पुलिस और
कोर्ट-कचहरी की धमकी देगी। उससे तो हम ऐसे ही भले। रहती है, रहे। जाती है, जाये...। उसका मुझ पर कोई कानूनी अधिकार नहीं, मेरा उस पर कोई कानूनी हक नहीं।"
तो यह सारा भय कानूनी अधिकार का है; प्यार का कोई सम्बन्ध नहीं है। आवश्यकताओं के कारण एक
साथ रह रहे हैं। आवश्यकता भी केवल यौन सम्बन्धों की है।... दोनों अपने-अपने पैसों
का अलग हिसाब रखते हैं। यह पति-पत्नी का सम्बन्ध नहीं है। सुख का साथ है। न
दायित्व का साथ है। न दुख का साथ है।..... और यह शायद केवल युवावस्था का ही साथ है।
प्रौढ़ होंगे, वृद्ध होंगे तो जाने क्या होगा। .....” लिव-इन
का यही उद्देश्य है। जैसा उद्देश्य है फल भी उसके अनुरूप ही है। समाज और लोग भी
वैसे ही हैं।
हम, असभ्य से सभ्य बनने वाले और हमें असभ्य से सभ्य बनाने वाले
लोगों के बारे में कुछ महत्वपूर्ण बातें जानना आवश्यक है। विदेशियों ने असभ्य को
सभ्य बनाने और हम निरीह भारतीयों पर शासन के नाम पर क्या-क्या अत्याचार किये थे? जो लोग हमारे लिए आक्रमणकारी, लुटेरे और हत्यारे थे, उनके लिए वे सन्त थे। जब
वास्को डी गामा यहाँ आया था तो उसे हिन्दुओं और ईसाइयों में कोई विशेष अन्तर
दिखायी नहीं दिया था। उसने अपने राजा को यही सूचना दी थी कि यहाँ के लोग भी ईसाई
ही हैं, किन्तु दूसरे ईसाइयों और
इनमें कुछ अन्तर है। किन्तु पुर्तगालियों ने अधिक दिन इस को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने
विदेशी आक्रमणकारियों और शासकों के रूप में अपने कानून बनाने आरम्भ किये। पहला
महत्वपूर्ण कानून था - ‘संपत्ति पर अधिकार केवल ईसाइयों का है’।
(गोवा इंक्वीसीशन पृ. 50,51,56,57,23,24)
1543 में एक नव-धर्म-परिवर्तित भारतीय ने अपने मित्रों के साथ हल्के-फुल्के वार्तालाप
में कुछ टिप्पणियों की जो कैथोलिक धर्म के अनुकूल नहीं थीं। परिणाम स्वरूप उसे ‘जिंदा जला
का राख में परिवर्तित’ करने का दंड सुनाया गया।
… मेरे1
(नरेंद्र कोहली के) सामने विकीपीडिया की पंक्तियाँ थीं -
"अनेक ईसाई प्रचारक, विशेष रूप से कट्टरपन्थी
ईसाई, हिन्दू देवी- देवताओं को
उनकी निन्दा कर, उन्हें दुष्ट और राक्षसी
घोषित कर रहे थे। कैथोलिक ईसाइयों द्वारा सन्त माने जाने वाले फ्रांसिस जेवियर, हिन्दुओं को भूत-प्रेत की
पूजा करने वाले और आध्यात्मिकता से शून्य प्रचारित कर रहे थे। हिन्दू सिद्धान्तों
को वे घृणित और विकृत बता रहे थे। ...
"फ्रांसिस जेवियर ने ही 1545 ई. में
पुर्तगाली शासकों से इनक्विजिशन आरम्भ करने की माँग की थी। गोवा में पुर्तगाली
शासन-काल में सहस्त्रों हिन्दुओं को ईसाई धर्म स्वीकार करने के लिए बाध्य किया
गया। ऐसे कानून बनाये गये कि हिन्दुओं का अपने धर्म का पालन करना तो दूर जीवित
रहना भी कठिन हो गया। उन्हें झूठे मुकदमे चला कर, छोटी-छोटी शिकायतें कर, उनका जीना दूभर कर दिया
गया। ... कहा जाता है कि 1560 से आरम्भ कर गोवा धर्माधिकरण के काल में सहस्रों
हिन्दुओं की हत्या की गयी। इस धर्माधिकरण का प्रस्ताव फ्रांसिस जेवियर ने रखा था।' 2
... ईसाई प्रचारकों की ये
गतिविधियाँ 1544 में सन्त फ्रांसिस जेवियर के भारत आगमन के साथ आरम्भ हुईं। ...
फ्रांसिस जेवियर ने लिखा : जब सबका बपतिस्मा हो जायेगा, मैं उनके मिथ्या देवताओं
की प्रतिमाओं को भंग कर, मन्दिरों को ध्वस्त करने का आदेश दूँगा। इस
कल्पना से ही मैं आनन्द में झूमने लगता हूँ।"3
अजीब त्रासदी है। जिस देश के ये लोग थे, जिस धर्म
के प्रचार-प्रसार के लिए इन्होंने यह सब किया उस देश के लोग,
उस धर्म के लोग अगर इन्हें संत मानते हैं, इन्हें पूजते हैं, इनके दर्शन को पवित्र मानते हैं, उन्हें महान मानते
हैं, तो इसमें न तो कोई आश्चर्य है न ही अटपटा। लेकिन यह
कैसी विडम्बना है कि हम भारतीयों को इसकी कोई जानकारी नहीं और जिन्हें इसकी
जानकारी है उन्होंने इसे बताने की जहमत नहीं उठाई बल्कि हमें अंधेरे में रखा। जिसके
प्रति हम भारतीयों और हिंदुओं का खून खौल
उठना चाहिए था, जिसके प्रति कोई सम्मान नहीं होना चाहिए था, न उसे संत मानना चाहिए था, जो हमारे धर्म और देश का शत्रु था, हम भी उसका वैसे
ही महिमा-मंडन करते हैं, पूजते हैं,
संत मानते हैं, पवित्र मानते हैं।
मैं तो यही कहूँगा -
जागते रहो! जागते रहो!!
जागते रहो!!!
1 सागर मंथन पृ 31 से 35, 2
विकीपीडीया, 3
फ़्रीडम अँड रिलीजन
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