गुरुवार, 11 सितंबर 2025

सूतांजली सितंबर द्वितीय 2025


 प्रेत के सहयोग से ईष्टदेव के दर्शन

(महाभक्त विजयम में तुलसीदास की जीवनी उपलब्ध है। उसमें महान संत तुलसीदास के भगवान राम के दर्शन की चर्चा है।)

          तुलसीदासजी के पवित्र स्पर्श से एक प्रेत स्त्री पवित्र होकर मुक्त हो जाती है। प्रेत, अपनी कृतज्ञता की अभिव्यक्ति के रूप में तुलसीदास को एक वरदान देना चाहती है। आश्चर्यचकित एवं रुष्ट  हो कर तुलसीदासजी  कहते हैं, "क्या एक प्रेत मेरे को भगवान राम के साक्षात दर्शन कराएगी?" लेकिन प्रेत प्रेमपूर्वक कहती है, "आप भगवान राम के दर्शन करना चाहते हैं तो मेरे साथ आयें, मैं आपकी इच्छा पूरी करने ले चलती हूँ।" तुलसीदास ने तिरस्कारपूर्वक उसे जाने के लिए कहते हैं, "जाओ, मैं तुम्हारे साथ अपना समय बर्बाद नहीं करना चाहता।”

          लेकिन प्रेत अपने अनुरोध पर कायम रही, "हे कुलीन ब्राह्मण! बाहरी दिखावे के आधार पर किसी को छोटा मत समझिए। कोई अपनी आँखों की संकीर्ण दरार से एक विशाल पर्वत को भी देख सकता है। इसी तरह, आपको  मेरे माध्यम से हरि के दर्शन होंगे, चाहे मैं शापित ही क्यों न हूँ। मुझ पर भरोसा रखो। मैं तुम्हें अपने मुखिया के पास ले चलती हूं।

          "अरे शैतान", तुलसीदास ने कुपित होकर कहा, "यदि तुम मेरे लिए हरि के दर्शन की सुविधा प्रदान करने में सक्षम हो, तो तुम खुद अमानवीय स्तर पर क्यों रहती हो?'

          "हे विद्वान ब्राह्मण! प्रत्येक व्यक्ति को अपने दुष्कर्मों के फलस्वरूप नियति का भोग करना ही पड़ता है। यदि कोई व्यक्ति धर्म के सभी नियमों को जानता भी हो, तो भी यदि वह धन और भौतिक वस्तुओं में आसक्त है, तो क्या वह अपने निर्णय में निष्पक्ष रह सकता है? यदि कोई व्यक्ति सही और गलत में विवेक कर सकता है, तो भी यदि वह अनैतिक आचरण में लिप्त है, तो क्या वह धर्म के मार्ग पर चल सकता है? इसी प्रकार, यदि मैं भगवान के चरणों की प्राप्ति का उपाय जानती हूँ, तो भी मेरे पूर्व कर्म मुझे लज्जित और विवश करते हैं। तथापि, आपकी कृपा ने मुझे पवित्र कर दिया है।"

          तुलसीदास विचारमग्न हो गये, उन्हें लगा यह भूत आध्यात्मिक सच्चाइयों से भली-भांति परिचित है। हमें किसी व्यक्ति को दिखावे के आधार पर कम नहीं आंकना चाहिए, बल्कि उसके आंतरिक मूल्य के आधार पर उसका मूल्यांकन करना चाहिए। मुझे इसका प्रस्ताव नहीं ठुकराना चाहिये। और वे उसके साथ उसके मुखिया से मिलने चल पड़े।

          भूत ने मधुर गीतों से मुखिया की स्तुति करते हुए सहायता के लिये प्रार्थना की। भूतों के सरदार की अशरीरी आवाज ने आने का कारण पूछा। भूत ने कहा, "हे मुखिया, इस पूज्य ब्राह्मण ने मुझे मेरे श्राप से मुक्त कर दिया है। मैं उनका आशीर्वाद एक उपकार के साथ लौटाना चाहती हूं। ये भगवान हरि के दर्शन के लिए तरस रहे हैं। क्या आप इसकी व्यवस्था कर सकते हैं?"

          "मुझमें उसे भगवान के दर्शन कराने की शक्ति नहीं है। लेकिन मैं उसे श्री हनुमान के पास ले जा सकता हूँ जो निश्चित रूप से उसे भगवान के दर्शन करा सकते हैं। लेकिन क्या ये ब्राह्मण श्री हनुमान के दर्शन के योग्य हैं?" मुखिया ने कहा।

          भूत ने मुखिया को तुलसीदास का परिचय दिया, “विप्रवर बारह वर्षों से अधिक समय तक शरीर और दुनिया से अनासक्त रहे और इनका मन केवल भगवान की इच्छा से ग्रस्त है।”

          प्रमुख ने कहा, "वाराणसी के इस शहर में, असी गली में, एक वृद्ध पंडित हर दिन वाल्मिकी रामायण में निहित गूढ़ सत्य पर प्रवचन देते हैं। हनुमान प्रतिदिन एक वृद्ध ब्राह्मण के वेश में प्रवचन में आते हैं, आप वहां श्री हनुमान के दर्शन कर सकते हैं।”

          तुलसीदास ने उनका मज़ाक उड़ाते हुए कहा, "श्री हनुमान एक महान व्याकरणविद्, वेदांत के विद्वान, चौंसठ सिद्धियों के स्वामी और भगवान के परम भक्त हैं। यह हास्यास्पद लगता है कि ऐसे महान व्यक्ति प्रतिदिन मात्र एक  ब्राह्मण के रामायण के प्रवचन में उपस्थिति रहेंगे? यह मेरी ही मूर्खता है कि ईश्वर दर्शन पाने के लिए मैंने प्रेत से मार्गदर्शन पाने की इच्छा से यहाँ चला आया।"

          लेकिन नाराज न होकर मुखिया ने ब्राह्मण को प्रणाम किया और आदरपूर्वक कहा, "हे महान गुणी ब्राह्मण! जहाँ भी साधु इकट्ठे होते हैं और भगवान की महिमा का गुणगान करते हैं और उन्हें प्रसन्न करने वाले वचन बोलते हैं, वहाँ भगवान स्वयं मौजूद होते हैं। यह महान संतों का दावा है। क्या आप इससे इनकार कर सकते हैं? मैं मिथ्या वचन नहीं बोलता। तीन दिन बाद आपको भगवान के चरण कमलों का स्पर्श प्राप्त होगा।"

          तुलसीदास को सनसनी का अनुभव हुआ। वे रोमांचित हो उठे। खुशी के आंसू बहाते हुए उन्होंने पूछा, "हे प्रेतों के सरदार, वहां इकट्ठे हुए कई ब्राह्मणों के बीच मैं श्री हनुमान को कैसे पहचानूंगा?"

          प्रमुख ने कहा, "हर दिन, श्री हनुमान सर्वप्रथम आते हैं और सबसे बाद में निकलते हैं। इसके अलावा, जब भी वे लोगों को 'राम, राम' की जयकार करते सुनते हैं, तब वे आत्म विभोर हो जाते हैं। ये वे संकेत हैं जिनसे आप उन्हें पहचान सकते हैं।" ये संकेत देने के बाद दोनों प्रेत अदृश्य हो गये।

          तुलसीदास ब्राह्मण के वेश में हनुमान को पहचाने गये। लेकिन हनुमान तुलसीदास की आँख बचा कर निकल गये। लेकिन संत तुलसीदास ने उनका पीछा किया और वे जहां भी जाते उनके पीछे-पीछे वे भी पहुँच जाते। हनुमान चिढ़ने और क्रोधित होने का नाटक करते हुए, तुलसीदास को डांटते और धमकाते हैं, और चेतावनी देते हैं, "यदि तुम दोबारा आकर मुझे परेशान करोगे, तो मैं तुम्हारे टुकड़े-टुकड़े कर दूंगा।" लेकिन तुलसीदास ने जिद्दी और दृढ़ हठ के साथ हनुमान का पीछा किया। अंत में हनुमान को दया आ गई। हनुमान के पूछने पर  तुलसीदास ने भगवान राम के दर्शन की इच्छा व्यक्त की। हनुमान कहते हैं, "आप निराकार, अदृश्य और सर्वव्यापी भगवान राम के दर्शन कैसे कर सकते हैं, जो हर जगह मौजूद हैं और साथ ही अंतरिक्ष से परे सारी सृष्टि से ऊपर खड़े हैं।” तुलसीदास जवाब देते हैं, “लेकिन वही सर्वोच्च निराकार भगवान ने मानवीय रूप में राम के नाम से जन्म लिया था, मैं भगवान के उसी राम स्वरूप दर्शन करना चाहता हूं।'' और हनुमान की कृपा से तुलसीदास को अपने चुने हुए इष्ट देवता के साक्षात दर्शन हुए।

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 https://youtu.be/nm-vuN4AiSw

सोमवार, 1 सितंबर 2025

सूतांजली सितंबर प्रथम 2025

 



समझदारी

 सड़क किनारे खड़ी है,

हम सबों को खुलेआम पुकारती  है,

लेकिन

हम उसे एक भ्रम समझकर

नजरंदाज कर बैठते हैं।

 

खालील जिब्रान

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तब! .... कब? ....

          मान लीजिए आप किसी ऐसे प्रदेश में पहुँच जाते है जहाँ के लोग नहीं मानते कि दो और दो चार होते हैं। उनमें से कुछ का कहना है कि दो और दो तीन होते हैं लेकिन कुछ कहते हैं पाँच। कुछ औरों के विचार से दो और दो सात होते हैं। और कुछ ऐसे भी हैं जो कहते हैं कि अभी किसी को भी नहीं पता कि दो और दो कितने होते हैं। इस पर विद्वानों को कहना है कि अभी इस पर गहन अनुसंधान करने की ज़रूरत है। लेकिन कट्टरपंथी तो यह फरमान निकाल देते हैं कि जब तक अनुसंधान पूरा न हो जाये तब तक किसी को भी दो और दो के योग के बारे में अपनी राय नहीं देनी चाहिये। और प्रशासन इस पर  कठोर कानून बना देता है।

          ऐसे लोगों के बीच अपने आपको पाकर आप क्या करेंगे? क्या आप नारेबाज़ी करेंगे? संगठन बनाकर आंदोलन करेंगे, हड़ताल करेंगे और जुलूस निकलेंगे? धरना देंगे? इश्तहार निकालेंगे? सत्ता दल से मिलकर संसद में बिल पास करवाएँगे, या उच्चतम न्यायालय के पास जाएंगे? या फिर........ या फिर आप शांत भाव से, पूर्ण आत्मविश्वास से  अपनी बात कहते रहेंगे इस आशा के साथ कि  शायद उन लोगों के बीच कभी कुछ ऐसे व्यक्ति निकलें जो समझ सकें कि दो और दो वास्तव में चार होते हैं।

          भारतीय चिंतन के विषय में ऐसा ही दृष्टिकोण अपनाना आवश्यक है। भारतीय चिंतन को बिना साधना के नहीं समझा जा सकता। यह चिंतन अवश्य ही शब्दों में प्रकट किया गया है क्योंकि देश और काल के अंतराल में संप्रेषण के लिए शब्दों के सिवाय और कोई चारा नहीं है। पर शब्द सत्य का केवल संकेतभर करते हैं, शब्द स्वयं सत्य नहीं है। शब्दों की अपनी सीमाएं हैं। शायद इसी कारण हजारों वर्ष तक ऋषियों ने कभी भी अपने चिंतन को लिपिबद्ध करने का प्रयास नहीं किया, वे श्रुति और स्मृति में ही रहे। कुछ लोग भारतीय चिंतन के किसी पक्ष के कुछ शब्दों को लेकर आग्रही हो जाते हैं कि उनके पास ही भारतीय चिंतन का संपूर्ण सत्य है। वे यहाँ-वहाँ से उद्धरण देते हैं, जोशीली बहस करते हैं और औरों को अपने मत का अनुयायी बनाने का भरसक प्रयत्न करते हैं।

          ज्यों-ज्यों आप सत्य के निकट पहुँचते जाएँगे, त्यो-त्यों आपको शब्दों की सीमा का आभास होता जाएगा। आप स्पष्ट देखने लगेंगे कि शब्दों में बहस करने से आप सत्य नहीं जान सकते क्योंकि शब्द और भाषा स्वयं विशाल सत्य के बहुत छोटे से अंश हैं। सत्य को जानने के लिए आपको अपने अंदर की शांत गहराई में जाना होगा जहाँ शब्दों का जन्म होता है। ताओ ने कहा है कि सत्य कहा नहीं जा सकता, जैसे ही आप सत्य कहने का प्रयास करते हैं, कहीं-न-कहीं कुछ-न-कुछ छूट जाता है या जुड़ जाता है। इसमें कठिनाई होती है। जिन व्यक्तियों ने कभी अपनी आँखें बंद करके ध्यान का अभ्यास नहीं किया है उनके लिए यह जानना कठिन है कि मनुष्य का वास्तविक जीवन उसके अंदर से नियंत्रित होता है। हमारी सभी सामाजिक, धार्मिक, राजनैतिक और आर्थिक समस्याओं का स्रोत विभिन्न मनुष्यों के अंदर विद्यमान अनुभूतियों और उनसे नियंत्रित विचारों में है। उस आंतरिक जगत को जानकर ही हम बाहरी जगत् की समस्याओं को समझ और सुलझा सकते हैं।

          आपके चारों ओर बहस और नारेबाज़ी का वातावरण बना रहा रहेगा। आप उसके बारे में कुछ ज्यादा नहीं कर सकते। पर यदि आप जानते हैं कि आप सही राह पर हैं तो आप बिना परेशान हुए अपना काम करते रहेंगे, वैसे ही जैसे यदि आप अपने आपको ऐसे लोगों से घिरा पाएँ कि जो मानने को तैयार नहीं हैं कि दो और दो चार होते हैं। आप परेशान नहीं होंगे क्योंकि यदि लोगों में सत्य को जानने की चाह है तो किसी-न-किसी दिन वे जान लेंगे कि दो और दो चार होते हैं। आप स्थिर भाव से औरों तक अपने विचार पहुँचाने का प्रयास करते रहेंगे, और सदा शान्त और प्रसन्न रहेंगे।

          सत्य के कारण गैलीलियो को उसी के घर में मृत्यु पर्यंत नज़रबंद कर दिया गया, ईसा मसीह को क्रूस पर चढ़ा दिया गया और मीरा को जहर का प्याला पीना पड़ा। लेकिन वे सत्य जानते थे और उसे दोहराते रहे। शांत और प्रसन्न रहे।

          लेकिन यह तब, जब आप जानते हों कि दो और दो चार होते हैं

(अनिल विद्यालंकार के लेख पर आधारित)

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सूतांजली सितंबर द्वितीय 2025

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