किसने मारा – मैंने या तूने?
आदित्य राज्य की
सेना का सेनापति और शिव का परम भक्त था। युद्ध कला में कौशल वह राज्य और प्रजा में एक महान योद्धा के
रूप में जाना जाता था जो अकेले ही बड़ी संख्या में शत्रुओं से युद्ध कर सकता था।
एक दिन, राजा से तकरार हो जाने के कारण उसे उसके पद से हटा
दिया गया।
आदित्य बहुत व्यथित हुए लेकिन हताश
नहीं। उन्होंने सोचा, "मैं इसे भगवान शिव द्वारा दिया गया एक अवसर
मानूंगा और अपना शेष जीवन उनकी प्रार्थना, चिंतन और भक्ति
में समर्पित करूंगा।"
संसार त्याग कर वे एक तपस्वी बन गए और
वे राज्य के बाहर एक जंगल में छोटी सी कुटिया बनाई और शिवलिंग स्थापित कर शिव की
पूजा, आराधना और ध्यान में अपना समय बिताने लगे। जंगल के
पास के गाँवों के लोग आदित्य को जानते थे, उनका सम्मान करते
थे। वे उनके भोजन और बुनियादी ज़रूरतों का
ध्यान रखने लगे।
एक दिन, लुटेरों का एक समूह गाँव में घुस आया, लूटपाट की,
बलात्कार किया और लोगों की हत्या करके भाग गया। ऐसा ही दूसरी बार एक
अन्य गाँव में हुआ। गाँव के लोगों को लगा कि जंगल में रहने वाला तपस्वी योद्धा
उनकी मदद कर सकता है और इस खतरे को रोक सकता है। वे आदित्य के पास गए, उसे सारी बात बताई और उनसे सहायता की गुहार की। आदित्य ने क्षमा मांगते
हुए इंकार कर दिया, “मैं अब एक सन्यासी हूँ, मैं अब कैसे लड़ और मार सकता हूँ?" लेकिन
लोगों ने विनती की और उसे घेर लिया। आदित्य ने विचार किया, "मैं इनकी वजह से शारीरिक रूप से जीवित हूँ। मुझे मदद करनी ही होगी।"
उसने दृढ़ स्वर में कहा, "ठीक है,
लेकिन लुटेरों से निपट के लिए मुझे एक घोड़ा और तलवार चाहिये।" गाँव वाले सोच
में पड़ गए। वे घोड़ा और तलवार कहाँ से और कैसे लाएँ?
अगले दिन राजा के दरबार का
एक वरिष्ठ मंत्री, जो आदित्य का घनिष्ठ मित्र भी था, तपस्वी से मिलने आया। गाँव वालों ने उसका स्वागत किया और उसे आदित्य के
पास ले गए। उन्होंने मंत्री को लुटेरों के उत्पात की जानकारी दी और बताया कि
आदित्य को घोड़े और तलवार की व्यवस्था कर दें
तो वे इस मुसीबत से उन्हें छुटकारा दिला सकते हैं। मंत्री ने उन्हें
आश्वस्त करते हुआ कहा कि वे आदित्य के लिए तलवार और घोड़े का इंतज़ाम कर
देंगे।" गाँव वालों ने लुटेरों पर नज़र रखी और जब वे दोबारा आए तो उन्होंने
आदित्य को सूचित कर दिया।
जैसे ही उसने तलवार हाथ में ली,
उसे लगा कि कोई अद्भुत शक्ति उसके अंदर प्रवेश कर रही है। तपस्वी
फिर से योद्धा बन गया। गाँव वाले विस्मय और आश्चर्य से देख रहे थे, तभी आदित्य अपने घोड़े पर सवार होकर चक्रवात की तरह लुटेरों के समूह पर
टूट पड़ा और सभी लुटेरों का सफाया कर दिया, जिससे लुटेरों का
आतंक हमेशा के लिए खत्म हो गया। गाँव वालों ने कृतज्ञता के आँसुओं के साथ आदित्य
के आगे सिर झुकाया।
लेकिन आदित्य बहुत दुखी था। उसने मन ही
मन सोचा, "मैं एक संन्यासी हूँ जिसने अहिंसा का व्रत
लिया है, लेकिन करुणा और कृतज्ञता के बहकावे में आकर मैंने
लोगों की निर्मम हत्या करने का जघन्य पाप किया है।" पश्चाताप से भरा उसने शिव
से प्रार्थना की, "हे मेरे स्वामी, मैंने एक भयंकर पाप किया है, कृपया मुझे क्षमा
करें।" वह अपने हृदय में इसी गहरे अपराध बोध के साथ सो गया। उस रात शिव ने
उसके स्वप्न में दर्शन दिए और कहा, "आदित्य, दोषी महसूस मत करो। तुमने सही काम किया है,
ग्रामीणों को डाकुओं के आतंक से बचाया है। यह मत सोचो कि तुमने उन्हें मारा
है। उन्हें तो मैंने ही मारा है, तुम तो केवल
निमित्त मात्र हो। क्या तुमने तलवार उठाते समय मेरी
शक्ति को अपने भीतर प्रवेश करते हुए महसूस नहीं किया? जब
डाकू दूसरी बार आए, तो ग्रामीणों ने अपने इष्ट देवता के रूप
में मुझसे उनकी सहायता करने के लिए प्रार्थना की। मैंने तुम्हें अपना साधन बनाकर
उनकी प्रार्थनाएँ स्वीकार कर ली।"
***
श्रीमद्भगवदगीता के 11वें अध्याय में अर्जुन के अनुरोध पर श्री कृष्ण ने उन्हें अपने विश्वरूप का दर्शन कराया। और फिर
55वें श्लोक में ‘उन्हें’ पाने का सीधा और
सरल मार्ग बताया है। मत्कर्म कृत्, यानि ‘जो मेरे कर्म करता है’, उनके कार्य करता है वह ‘मुझे’ प्राप्त करता है। उनके क्या कार्य हैं? गीता में ही कृष्ण अपने कार्यों का उल्लेख करते हुए कहते हैं:
परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्।
धर्मसंस्थापनार्थाय संभवामि युगे युगे ॥
यानि
- (१) साधुओं (सज्जनों) की रक्षा, (२) दुष्टों का विनाश, और (३)
धर्म की स्थापना, ये तीनों कार्यों को करने वाला 'मत्कर्म कृत' है, यानि वह मेरा
कार्य करता है।
इसी
अध्याय के 33वें श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को कह रहे हैं -
"निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्"।
अर्जुन तू सिर्फ निमित्त बन जा
"अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करो और अपने समृद्ध राज्य का आनंद लो। मैंने
उन्हें पहले ही मार डाला है। जो किया मैंने किया, तुम तो केवल निमित्त मात्र हो।" यह तो
होना ही है, अगर तू नहीं करेगा तो कोई और करेगा मैं तो
तुम्हें सिर्फ मौका दे रहा हूँ।
जहां हम यह समझ गए कि मैं तो कुछ भी
करने वाला नहीं मैं तो सिर्फ निमित्त मात्र हूँ करने वाला तो कोई और ही है और वह
तो करके बैठा है, हमारे सारे अहंकार मोम की तरह पिघल कर बह जाएंगे।
हम निर्मल और शांत हो जाएंगे। ईश्वर प्राप्ति का मार्ग खुल जाएगा।
अर्जुन संशय करता है कि मार्ग जानना तो
आसान है, लेकिन उस पर चलना कठिन है?
इसका उत्तर भी श्री कृष्ण ने 6:35 और 12:9 में दिया है – ‘अभ्यासेन तू कौंतेय’ और ‘अभ्यायोगेन ततो मा मिच्छाप्तुं’ निरंतर अभ्यास
से यह संभव है। अतः दृड़ निश्चय के साथ निरंतर अभ्यास करते रहें, हिम्मत न हारें।
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