पानी विरोध नहीं करता।
जब आप अपना हाथ इसमें
डालते हैं,
तो आपको बस एक स्पर्श
महसूस होता है।
पानी कोई ठोस दीवार
नहीं है;
यह आपको रोकेगा नहीं।
लेकिन
पानी हमेशा वहीं जाता
है
जहाँ वह जाना चाहता है।
मार्गरेट एटवुड
(कनाडा की साहित्यकार
एवं बुकर पुरस्कार विजेता)
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प्रेम
खलील जीब्रान के लेखन पर आधारित
एकत्रित समुदाय के सामने मंच पर संत
विराजमान हो गए। तब उपस्थित समुदाय में से एक महिला ने हाथ जोड़ कर निवेदन किया,
“महाराज! आज हमें प्रेम के विषय में कुछ बताएं।”
सबों ने संत पर अपना ध्यान केन्द्रित किया। गुरु ने गंभीर स्वर में समुदाय को
संबोधित करना प्रारम्भ किया-
जब प्रेम तुम्हें अपनी ओर बुलाए तो उसका
अनुगमन करो, लेकिन ध्यान रखो उसकी राहें विकट, विषम और कंटीली हैं।
जब उसके फैले हुए पंख तुम्हें ढँक लेना
चाहें, तो तुम सर झुका कर आत्मसमर्पण कर दो, भले ही उन पंखों के नीचे छिपी तलवार तुम्हें घायल करे। और जब वह तुमसे
बोले तो उसमें विश्वास रखो, भले ही उसकी आवाज तुम्हारे सपनों
को चकनाचूर कर डाले क्योंकि प्रेम जिस तरह तुम्हें मुकुट पहनाएगा उसी तरह शूली पर
भी चढ़ाएगा। जिस तरह वह तुम्हारे विकास के लिए है उसी तरह तुम्हारी काट-छांट के
लिए भी है। जिस प्रकार वह तुम्हारी ऊँचाइयों तक चढ़कर सूर्य की किरणों में काँपती हुई
तुम्हारी कोमलतम कोंपलों की भी देखभाल करता है, उसी प्रकार
वह तुम्हारी नीचाई तक उतरकर, भूमितल से दूर गड़ी हुई
तुम्हारी जड़ों को भी झकझोर डालता है।
अनाज की बालों की तरह वह
तुम्हें अपने अंदर भर लेता है। तुम्हारी भूसी दूर करने के लिए तुम्हें फटकता है। तुम्हें
पीसकर श्वेत बनाता है। तुम्हें नरम बनाने तक गूँधता है, और
तब तुम्हें अपनी पवित्र अग्नि पर सेंकता है जिससे तुम प्रभु के पावन थाल की पवित्र
रोटी बन सको। तुम्हारे साथ यह सारी लीला इसलिए करता है कि तुम अपने अंतरतम के
रहस्यों का ज्ञान पा सको, और उसी ज्ञान द्वारा जगजीवन के हृदय
का एक अंश बन सको।
लेकिन यदि भयवश तुम केवल
प्रेम की शान्ति और प्रेम के उल्लास की ही कामना करते हो, तो
तुम्हारे लिए यही भला है कि तुम प्रेम की कूटने वाली खलिहान से बाहर हो जाओ। और
ऋतु-हीन संसार में जा बसो, जहाँ तुम हँसोगे, लेकिन पूरी हँसी के साथ नहीं। जहाँ तुम रोओगे, लेकिन
सारे आँसुओं के साथ नहीं।
प्रेम किसी को अपने-आपके
सिवा न कुछ देता है, न किसी से अपने-आपके लिए कुछ लेता है। प्रेम
न किसी का स्वामी बनता है, न किसी को अपना स्वामी बनाता है।
क्योंकि प्रेम प्रेम में ही परिपूर्ण है।
जब तुम प्रेम करो तब यह न
कहो, ईश्वर मेरे हृदय में है। बल्कि कहो, मैं ईश्वर के हृदय में हूँ।
और कभी न सोचो कि तुम
प्रेम का पथ निर्धारित कर सकते हो, क्योंकि प्रेम यदि
तुम्हें अधिकारी समझता है तो स्वयं तुम्हारी राह निर्धारित करता है। प्रेम अपने-आपको
संपूर्ण करने के सिवा और कुछ नहीं चाहता है। यदि तुम प्रेम करो और तुम्हारे हृदय
में कामनाएँ उठे भी तो वे ये हों-
मैं द्रवित हो सकूँ - बहते हुए झरने की तरह रजनी को सुमधुर गीत से भर सकूँ।
मैं अत्यंत कोमलता की
वेदना अनुभव कर सकूँ।
मैं अपने प्रेम की अनुभूति से घायल हो सकूँ।
मैं अपनी इच्छा से और
हँसते-हँसते अपना रक्त-दान कर सकूँ।
मैं पंख फैलाता हुआ हृदय
लेकर प्रभात वेला में जाग सकूँ। और
मैं एक प्रेममय दिन पाने के लिए धन्यवाद
कर सकूँ।
दोपहर को विश्राम कर सकूँ। और
प्रेम के परम आनंद में तल्लीन हो सकूँ ।
दिन ढलने पर कृतज्ञता-भरा
हृदय लेकर घर लौट सकूँ
और फिर रात्रि में हृदय
में प्रियतम के लिए प्रार्थना और
होंठों पर उसकी प्रशंसा के गीत लेकर सो
सकूँ।
"ये इश्क़ नहीं आसां बस इतना समझ लीजे,
इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।"
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