सूतांजली ०१/१२ जुलाई २०१८
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क्या हम समझदार हैं?
चंदामामा। न मैं चाँद की बात कर रहा हूँ न मामा की। मैं बात कर रहा
हूँ उस पत्रिका की जिसे हमारे मोहल्ले का हर बच्चा बड़े चाव से पढ़ा करता था, अब से करीब ३०-४० वर्ष पूर्व। इसका प्रकाशन देश की
अनेक भाषाओं में होता था। पत्रिका हमारे घर में आया करती थी और आने के पहले से हम
पत्रिका का आरक्षण करवाते थे। कौन, किस समय और किस दिन पढ़ेगा? ताकि सब, मिल बाँट कर थोड़ा थोड़ा पढ़ सकें। बेहतरीन
कागज, उत्तम छपाई, रंगीन चित्र।
ऐतिहासिक, नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, लघु एवं धारावाहिक कहानियाँ। चंदामामा का प्रत्येक अंक सँभाल कर
रखते थे। और फिर, कुछ समय के बाद उसका ऑपरेशन होता था।
प्रत्येक पन्ने को बहुत सँभाल कर अलग अलग करते, विषयानुसार एवं
धारावाहिक कहानियों को अलग एक साथ कर उन्हे मंढाया जाता। फिर हम बच्चों के
पुस्तकालय में जमा कर लिया जाता था। इसकी
सबसे ज्यादा मांग रहती। हम बच्चों को इस चंदामामा ने कितना कुछ दिया – सिखाया इसका
आकलन करना आसान नहीं है। दर्द यह है कि यह या ऐसी कोई दूसरी पत्रिका अब उपलब्ध
नहीं है।
प्रस्तुत है इसी पत्रिक में पढ़ी एक लघु कहानी। एक गाँव में तीन भाई
रहते थे। तीनों वैद्य थे। सबसे बड़ा भाई साधारण वैद्य। उसे गाँव के बाहर कोई नहीं
जानता था। मंझला भाई उत्तम वैद्य था। उसे दिखाने आसपास के कई गावों से मरीज आया करते थे। लेकिन सबसे छोटा भाई श्रेष्ठ
वैद्य था। दूर दूर से लोग उससे इलाज कराने आते थे। उसकी ख्याति सुन कर शहर के एक
पत्र के संवाददाता उनसे मिलने पहुँच गए। बात-चीत के दौरान उस वैद्य ने बताया कि
सही अर्थों में सबसे बड़ा भाई श्रेष्ठ वैद्य है और वह स्वयं एक साधारण वैद्य है।
उसकी बात सुन कर संवाददाता हैरान रह गया। छोटे भाई ने समझाया, बड़ा भाई नाड़ी
परीक्षण तथा रोगी के लक्षण देख कर ही आसन्न रोग समझ लेते हैं। अत: आरंभ में
ही हलकी-फुलकी औषधि या खान पान में उलट फेर कर उसका निराकरण कर देते हैं। गाँव में घूमते हुए ही व्यक्ति के लक्षण देख कर
बिना पूछे ही उसे सलाह दे, उसके आने वाले रोग को वहीं रोक
लेते हैं। मंझले भाई को थोड़ा कम समझ में आता है। जब तक रोग कुछ ज्यादा बढ़ नहीं
जाता और उसके लक्षण प्रगट नहीं होते, वह सही निदान नहीं कर
पाता है। अत: उसे जड़ी-बूंटियों का लंबे समय तक सेवन करवाना पड़ता है। और मैं तो जब
रोग बहुत बढ़ कर असाध्य हो जाता है तभी निदान कर पाता हूँ। इस कारण मुझे कई बार
शल्य चिकित्सा का सहारा लेना पड़ता है। लोग इन बातों को समझते नहीं है। लोगों के
अज्ञान पर ही मेरी वैद्यगिरी चल रही है नहीं तो कोई मुझे पूछे भी नहीं।
आज के इस आधुनिक युग में क्या हम इन्टरनेट के बिना दुनिया
की कल्पना कर सकते हैं? लेकिन इन्टरनेट
आया कहाँ से, किसने बनाया, कौन करता है
इसका रख रखाव? हमने कभी जानने की कोशिश की? और इस इन्टरनेट के लिए हमें न तो कोई मूल्य देना पड़ता है और न ही कहीं, कभी कोई पंजीकरण
करना पड़ता है। लेकिन फिर भी हमें यह उपलब्ध है २४ X ७, बिना किसी छुट्टी के। कभी भी रख-रखाव के लिए भी बंद नहीं। ISP (इंटरनेट प्रदान करने वाली कंपनियाँ) हमें इंटरनेट नहीं देतीं वे हमें केवल
उससे जोड़ भर देती हैं। बनाने वाले ने बनाया और विश्व को समर्पित कर दिया – बिना
नाम एवं दाम के।
हम विकिपीडिया का भी प्रयोग करते हैं। इन्टरनेट पर उपलब्ध
जानकारी का असीमित भंडार। पूरा इनसाइक्लोपीडिया। लेकिन बिना किसी मूल्य के और फिर
वही २४X७, बिना किसी छुट्टी के।
दुनिया के हर देश में, हर कोने में और अनेक भाषाओं में
उपलब्ध है। इतना ही नहीं निरंतर नई
जानकारियाँ जोड़ने का कार्य भी चलता रहता है।
लेकिन इसे किसने बनाया? कौन करता है इसका रख रखाव? इसमें सब जानकारी कौन और कैसे डालता है? क्या इसके प्रयोग के लिए किसी को भी कोई मूल्य देना या पंजीकरण कराना पड़ता है? हम बेखबर हैं। इसे भी बनाने वाले ने बनाया और मानव को समर्पित कर दिया – बिना नाम एवं दाम के।
कम्प्युटर का बटन दबाते ही हमें सबसे पहले जो दिखाई पड़ता है वह है ‘विंडो’। आप समझ रहे हैं, मैं
खिड़की की बात नहीं कर रहा हूँ में उस सॉफ्टवेयर की बात कर रहा हूँ जिसके बिना
हमारा कम्प्युटर चल नहीं सकता। यह या तो हमें ‘चोरी’ करना पड़ता है या खरीदना पड़ता है। बनाने वाले ने इससे बिलियन की कमाई की
और उसमें से मिलियन का दान किया है। बनाने वाले को बच्चा बच्चा जानता है। ऐसा कौन
सा विश्वविद्यालय है जहां इसकी सफलता की कहानी नहीं पढ़ाई गई हो? बनाने वाले ने बनाया और दुनिया भर में बेचा – नाम और दाम के साथ।
सत्य की गति बड़ी सूक्ष्म है। जो दिखता है वो होता नहीं, जो होता है वह समझते नहीं।
पवित्र-पाप जो सच्चा-पुण्य है
क्या आपने महाभारत पढ़ी है? आसान नहीं है इस ग्रंथ को पढ़ना। विशाल ग्रंथ है। इसे आद्योपांत पढ़ने के
लिए समय भी चाहिए और धैर्य भी। ग्रंथ में कई बातें बार बार दोहराई गई हैं, यथा, “धर्म की गति बड़ी सूक्ष्म है”। यानि दैनिक
जीवन में क्या धर्म है और क्या अधर्म यह समझना आसान नहीं है। जीवन में कई बार ऐसे
प्रसंग आते हैं जिन्हे ऊपरी तौर पर देखने
से अधर्म प्रतीत होता है लेकिन सूक्ष्म दृष्टि से देखने पर उसमें से धर्म की खुशबू
आती है। कई बार हम इसे सूंघ लेते हैं लेकिन कभी भ्रमित भी हो जाते हैं और सही
निर्णय नहीं ले पाते कि क्या पाप है और क्या पुण्य।
कभी-कभी किसी काम को करते वक्त मनुष्य एक अजीब-सी दुविधा में पड़
जाता है, सोचता है कि वह जो करने जा रहा है वह पाप है अथवा
पुण्य। निर्णय मनुष्य को अपने विवेक से करना पड़ता है। जिसको हम पाप समझते हैं कभी
वह भी पवित्र होता है और किसी पुण्य से कम नहीं होता। ऐसा ही एक प्रसंग एक
प्रसिद्ध नेता ने सुनाया था। उन्होने बताया कि, ‘कभी-कभी सार्वजनिक अभिनंदन के मौके पर एक व्यक्ति को ढेर सारे लोग
सम्मानित करने और माला पहनाने लगते हैं, तब ऐसा भी होता है
कि उसे पहले से पहनाई गई माला को दुबारा उठाकर दूसरा व्यक्ति फिर से पहना देता है।
हालांकि यह बात साधारण नजर में नहीं आती है, मगर आ जाए तो
अच्छा नहीं माना जाता है’।
वे आगे बोले, ‘चेन्नई के एक प्रसिद्ध मंदिर में रोज हजारों लोग दर्शन करने जाते
हैं। दर्शनार्थियों की भीड़ लगी रहती है।
वहाँ एक दिन मेरा भी जाना हुआ। साथ में एक स्थानीय सज्जन भी थे। मंदिर के बाहर
फूलों की कई दुकानें थीं, जिनमें रंगीन आकर्षक फूलों की
मालाएँ लटक रही थीं। मैंने अपने साथ के सज्जन से कहा कि हमें भी एक अच्छी सी माला
लेनी चाहिए। कह कर एक फूल की बड़ी दुकान की
तरफ अपने कदम बढ़ा दिये।
साथ वाले सज्जन ने मुझे रोका और कहा, ‘यहाँ नहीं, हम उस तरफ फूल
माला लेते हैं’। कहकर उन्होने अंगुली से एक बुढ़िया की तरफ इशारा किया जो टोकरी में कुछ मालाएँ लेकर
जमीन पर बैठी थी।
मैंने धीरे से एतराज किया, ‘वहाँ क्यों, किसी अच्छी
दुकान से माला लेते हैं, भगवान को चढ़ानी है तब पैसे की तरफ
नहीं देखना चाहिए’।
उन सज्जन ने कहा, ‘पैसे की बात नहीं है, कोई और बात है। इन बड़ी दुकानों
में नए फूल की माला बिकती है, और यह बुढ़िया मंदिर में से
भगवान को चढ़ायी हुई माला ले आती है और उसे बेचती है। यहाँ आने वाले ज़्यादातर लोग
इस बात को जानते हैं, और उससे कोई माला नहीं खरीदता है’।
सुनकर मुझे घोर आश्चर्य हुआ, ‘चंद पैसों के लिए आप ऐसा क्यों करते हैं?’
वे बोले, ‘मैं उस बुढ़िया को भी उतने ही पैसे देता हूँ, जितना
बड़ी दुकानों मे लगता है’।
‘मगर, भगवान को चढ़ाये हुए फूलों को दुबारा चढ़ने से
पाप नहीं लगता है’?
वे सज्जन बोले, “पाप
और पुण्य की बात मैं नहीं जानता हूँ, मैं तो बस इतना जानता
हूँ कि मेरे जैसे चंद लोग इस बुढ़िया से माला खरीद लेते हैं तब इसकी दो रोटी का
इंतजाम हो जाता है। यह बुढ़िया किसी से भी एक पैसा दान नहीं लेती है”।
सुनकर मैं सोचने को मजबूर हो गया कि क्या भगवान को चढ़ाये हुए फूलों
को उस बुढ़िया से खरीदना पाप था या कि एक पवित्र-पाप जो सच्चा पुण्य होता है।
रिलीफ़, फरवरी २०१८
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