सूतांजली
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एक सेव में कितने बीज हैं, यह जानने का बहुत सरल
उपाय है;
लेकिन हम में से कौन, कभी यह बता पायेगा कि
एक बीज में कितने सेव हैं?
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मालिक से गुलाम तक का सफर (🔉००.००-०६.२८)
समुद्र
तट पर बिखरे कण रेत का सम्मान पाते हैं,
लेकिन वही रेत हमारे घर के अंदर में धूल बन तिरस्कार का भागी बनती है। जब रेत, समुद्र तट से वाहनों पर लद कर बाजार की तरफ बढ़ती है तब माल कहलाती है।
मिश्रण कारखाने (मिक्सिंग प्लांट) में कच्चा माल (रॉ मैटिरियल) और फिर सीमेंट के
साथ मिल कर कंक्रीट बन जाती है और बड़े-बड़े निर्माण करती है। यह पूरा खेल केवल
स्थान और साथी का है।
भीड़
भरे बाजार में किसी अनजाने को ठोकर लग जाती है और हम अपराध बोध से ‘मुझे क्षमा करें’ (आइ एम सोर्री) कह उठते हैं। हाथ से छिटक कर कुछ समान जमीन पर गिर पड़ता है और कोई अनजान
उसे उठा कर हमारे हाथ में पकड़ा देता है। हम कृतज्ञ भाव से धन्यवाद (थैंक यू) बोल
उठते हैं। लेकिन जब यही घटना हमारे अपने किसी परिचित के बीच,
भाई-भाई के बीच, पति-पत्नी के बीच,
माँ-बाप-बेटे-बेटी के बीच या दोस्तों के बीच होती है तब हम यह शिष्टाचार निभाने की
जिददो-जहद नहीं करते। इसे हम अपना अधिकार या कर्त्तव्य मानते हैं। हमारी इस आदत के
कारण पढ़े-लिखे लोग, पश्चिमी सभ्यता में गुने लोग इसे
अनपढ़-गँवार-अशिष्ट होना मानते हैं।
ओशो |
हमारी
जीवन शैली संयुक्त परिवार की रही है, जहां
पर हम साथ-साथ रहे-खेले-पढ़े-बड़े हुए। फिर अचानक भूचाल आया वैश्वीकरण का, उपभोक्तावाद का और संचार-तकनीक की क्रांति का। इसने हमें बुरी तरह झकझोर
कर रख दिया। परिवर्तन की गति इतने तेज थी
/ है कि हम अपने आप को न तो उस गति से बदल सके और न ही समझने, परखने का समय मिला। अनेक परिवर्तनों को सुविधा के नाम पर ज्यों-का-त्यों
स्वीकार कर लिया गया। पीढ़ी को तैयार करना परिवार की जिम्मेदारी थी लेकिन अब
स्वतंत्र, एकल और निरंकुश जीवन शैली ही मान्य हो गई है।
बच्चा छुटपन से ही पारिवारिक व्यापार से जुड़ कर वयस्क होने तक निपुण हो जाता था।
अब अपने पैतृक व्यवसाय से जुड़ नहीं पाता और जो परिवार ‘काम
देनेवाला’ था ‘काम खोजने वाला’ बन गया। जो कभी मालिक हुआ करता था, अब गुलाम बन
गया।
भारत
का अपना इतिहास रहा है, संस्कृति रही है, परम्पराएँ
रही हैं। ज्ञान-निपुणता पीढ़ी-दर-पीढ़ी आगे बढ़ती हैं। पिछली पीढ़ी के अनुभव नई पीढ़ी
के व्यवसाय, गृहस्थी और सामाजिक जीवन में काम आती हैं। हर
पुत्र पिता से आगे निकलता है। कहा ही जाता है कि ‘बालक मानव
का पिता है’ (चाइल्ड इस फादर ऑफ द मैन) । पिता का शिखर ही
बच्चे का पहला पड़ाव होता है। लेकिन, पढ़े-लिखे, मोटा वेतन पाने वाले नौकरीपेशा लोगों को इसका प्रभाव नजर नहीं आता। लेकिन
इसका दूरगामी प्रभाव पड़ रहा है। इंसान मालिक बनने के बजाय गुलाम बनता जा रहा है। तन
ही नहीं, मन से भी। मालिक की स्वतन्त्रता के बजाय गुलामी की
सोने की जंजीरें हीं अब ज्यादा पसंद आ रही हैं। उसे जंजीर नहीं सोना ही दिख रहा है। यह बात समझाने की कोई विगत
भी नजर नहीं आती।
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जापान – श्री माँ की दृष्टि में(🔉०६.२८-१५.५०)
(जापान में दिया गया श्री माँ का भाषण, माँ की गहरी दृष्टि और भाषा का प्रवाह, देखने और समझने योग्य है।)
आपने
जापान के बारे में मेरे विचार माँगे हैं। जापान के बारे में लिखना एक कठिन काम है।
वहाँ के बारे में इतनी सारी चीजें लिखी जा चुकी हैं, बहुत सी उट-पटांग चीजें भी...... लेकिन ये ज्यादातर देश नहीं, देशवासियों के बारे में हैं। वह देश एक अद्भुत,
सुरम्य, बहुमुखी, मनोहर, अप्रत्याशित, जंगली या मधुर है। वह देखने में -
उत्तरध्रुवीय ठंडे प्रदेशों से लेकर उष्ण कटि-प्रदेशीय तक – दुनिया भर के सभी
देशों का समन्वय लगता है। किसी कलाकार की आँख उसकी ओर से उदासीन नहीं रह सकती।
मेरा खयाल है कि जापान के बहुत से सुन्दर वर्णन किये जा चुके हैं। मैं उनमें से एक
और नहीं बढ़ा रही, मेरा वर्णन निश्चित रूप से उनकी अपेक्षा
बहुत कम रोचक होगा। लेकिन आमतौर पर जापानियों को गलत समझा गया है और गलत रूप से
पेश किया गया है और इस विषय पर कहने लायक कुछ कहा जा सकता है।
श्री माँ |
अधिकतर विदेशी लोग जापानियों के उस भाग के सम्पर्क में आते हैं जो विदेशियों के संसर्ग से बिगड़ चुका है – ये पैसा कमाने वाले, पश्चिम की नकल करने वाले जापानी हैं। वे नकल करने में बहुत चतुर हैं और उनमें ऐसी काफी सारी चीजें हैं जिनसे पश्चिम के लोग घृणा करते हैं। अगर हम केवल राजनेताओं, राजनीतिज्ञों और व्यापारियों के जापान को देखें तो यही लगेगा कि यह यूरोप के शक्तिशाली देशों से बहुत ज्यादा मिलता जुलता देश है, लेकिन उसमें ऐसे देश की जीवनी शक्ति और घनीभूत ऊर्जा भरी है जो अभी तक अपनी पराकाष्ठा पर नहीं पहुंचा है।
यह
ऊर्जा जापान की एक बहुत मजेदार विशेषता है। वह हर जगह, हर एक बूढ़े, बच्चे, मर्द, औरत, विद्यार्थी, मजदूर सभी
के अन्दर दिखाई देती है। शायद “नये अमीरों” को छोड़ कर सभी के जीवन में अद्भुत
घनीभूत ऊर्जा का भंडार दिखाई देता है। प्रकृति और सौंदर्य के आदर्श प्रेम के साथ
साथ यह संचित शक्ति भी जापानियों की विशिष्ट और सबसे अधिक व्यापक विशेषता है।
उदयाचल के उस प्रदेश में पाँव रखते ही आप इस चीज को देख सकते हैं, जहाँ इतने सारे लोग और इतनी निधियाँ एक छोटे से टापू में जमा हैं।
यदि
आपको उन जापानियों से मिलने का सुअवसर मिले, जैसा
कि हमें मिला था, जिनमें अभी तक प्राचीन सामुराई का शौर्य और
अभिजात्य अछूता है तो आप समझ सकते हैं कि सच्चा जापान क्या है, आप उनकी शक्ति और रहस्य को पा सकते हैं। वे चुप रहना जानते हैं और यद्यपि
उनमें बहुत अधिक तीव्र संवेदनशीलता होती है, लेकिन मैं जिन
लोगों से मिली हूँ उनमें ये सबसे कम इसका प्रदर्शन करने वाले लोग हैं। यहाँ
एक मित्र तुम्हारे प्राण बचाने के लिए बड़ी ही सरलता से अपनी जान दे सकता है; लेकिन वह कभी तुम्हारे सामने यह न कहेगा कि उसे तुम्हारे लिए इतना गहरा
और नि:स्वार्थ प्रेम है। वह इतना तक भी नहीं कहेगा कि वह तुमसे प्रेम करता है। और
अगर तुम बाहरी आभासों के पीछे छिपे हुए हृदय को न पढ़ सको तो तुम्हें बहुत अच्छे
बाह्य शिष्टाचार के सिवाय कुछ न दिखाई देगा जिसमें सहज भावों के लिए कोई स्थान
नहीं होता। फिर भी भाव होते हैं और बाहर अभिव्यक्त न होने के कारण और भी ज्यादा
प्रबल होते हैं और कभी मौका आ जाए तो उनके किसी काम द्वारा अचानक प्रेम की गहराई
का पता चलता है, वह भी विनयशील और कई बार छिपा हुआ। यह
जापानी विशेषता है। संसार के जातियों में सच्चे जापानी, जो पश्चिम के प्रभाव में नहीं आए है, शायद सबसे कम
स्वार्थी होते हैं। और यह नि:स्वार्थता पढ़े-लिखे, विद्वान या धार्मिक लोगों की ही विशेषता नहीं है। यह समाज के सभी स्तरों
में पायी जाती है। यहाँ कुछ लोकप्रिय और अत्यन्त मनोहर उत्सवों को छोड़ कर धर्म
रूढ़ि या सम्प्रदाय नाम की चीज नहीं है। यह उनके दैनिक जीवन में आत्म-त्याग, आज्ञा-पालन और आत्म-समर्पण के रूप में दिखाई देता है।
जापानियों
को बचपन से ही सिखाया जाता है कि जीवन कर्त्तव्य है, सुख नहीं है। वे उस कर्त्तव्य को
स्वीकार करते हैं। प्राय: कठोर और कष्टकर कर्त्तव्य
को सहनशील आत्म-समर्पण के साथ स्वीकार करते हैं। वे अपने आप को सुखी बनाने के
विचार से परेशान नहीं करते। यह सारे देश के जीवन को आनन्द और मुक्त अभिव्यक्ति
नहीं, एक असाधारण आत्म-नियंत्रण प्रदान करता है। यह तनाव, प्रयास और मानसिक तथा स्नायविक दबाव का वातावरण पैदा करता है, उस तरह की आत्मिक शांति नहीं देता जैसी, उदाहरण के
लिए, भारत में अनुभव की जा सकती है। वास्तव में, जापान में ऐसी कोई चीज नहीं है जिसकी तुलना भारत में व्याप्त शुद्ध भागवत
वातावरण से की जा सके। यह वातावरण ही भारत देश को ऐसा अनोखा और बहुमूल्य बनाता है।
जापान के मंदिरों में, वहाँ के पवित्र दुर्गम मठों में जो
कभी कभी ऊंचे पर्वत की चोटी पर बने होते हैं, बड़े बड़े देवदार
के पेड़ों से ढके होते हैं, जो नीचे की दुनिया से बहुत दूर
हैं, उनमें भी यह वातावरण नहीं है। वहाँ बाहरी नीरवता है, विश्राम और निश्चलता है, लेकिन शाश्वत का वह आनंदमय
संवेदन नहीं है जो एकमेव की जीवन सन्निधि से आता है। यह सच है कि यहाँ सब कुछ एकता
के मन और आँखों को सम्बोधित करता है – मनुष्य की भगवान से एकता, प्रकृति की मनुष्य से एकता और मनुष्य मनुष्य की एकता से। लेकिन यह एकता
कम ही अनुभव की जाती है या जीवन में उतारी जाती है। निश्चय ही जापानियों में उदार
आतिथ्य, पारस्परिक सहायता, पारस्परिक
अवलम्ब की भावना बहुत विकसित है। लेकिन अपने संवेदनों,
विचारों और सामान्य क्रियाओं में यह सबसे अधिक व्यक्तिवादी और पृथकतावादी जाति है।
इन लोगों के लिए रूप प्रधान है, रूप आकर्षक है। वह अभिव्यंजक
भी होता है। वह किसी अधिक गहरे सामंजस्य या सत्य, प्रकृति या
जीवन के किसी विधान की कहानी कहता है।
प्रत्येक रूप, प्रत्येक क्रिया,
बगीचे की व्यवस्था से लेकर प्रसिद्ध चाय समारोह तक,
प्रतिकात्मक है, और कभी-कभी एक बहुत ही सादी और सामान्य चीज
में गहरा, अलंकृत, इच्छित प्रतीक मिल
जाता है जिसे अधिकतर लोग जानते और समझते हैं। लेकिन यह जानना और समझना केवल बाहरी
और परम्परागत होता है। वह आध्यात्मिक अनुभवों से आने वाला जीवंत सत्य नहीं होता जो
दिल और दिमाग को प्रबुद्ध करे। जापान मौलिक रूप में संवेदनों का देश है। वह अपनी
आँखों के द्वारा जीता है। उस पर सौंदर्य का एकछत्र राज्य है और उसका वातावरण
मानसिक और प्राणिक क्रिया-कलाप, अध्ययन, निरीक्षण, प्रगति और प्रयास को उत्तेजित करता है, लेकिन शांत, आनंदमय चिंतन मनन को नहीं। लेकिन इस
सारे क्रिया कलाप के पीछे एक उच्च अभीप्सा उपस्थित है जिसे उस जाति का भविष्य ही
व्यक्त करेगा।
(श्री अरविंद सोसाइटी की अग्निशिखा में प्रकाशित)
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एक
लड़के को बहुत गुस्सा आता था। एक दिन उसके पिता ने उसे एक कीलों से भरा बैग दिया और
कहा कि जब भी उसे गुस्सा आये, वह चारदीवारी में
पीछे की तरफ एक कील जरूर ठोंक दे। पहले दिन उस लड़के ने 37 कीलें दीवार में गाड़
दीं। अगले हफ्ते तक वह अपने गुस्से पर काबू करना सीख चुका था। गाड़ने वाली कीलों का
क्रम कम हो गया। उसने दीवार में गड़ी कीलों को देखकर सोचा,
अपने गुस्से को रोकने का यह सबसे आसान तरीका है। धीरे-धीरे उस लड़के ने अपने गुस्से
पर पूरी तरह से काबू पा लिया। जब उसने अपने पिता को यह बताया तो उन्होने यह सलाह
दी कि अब वह जिस दिन उसे एक बार भी गुस्सा नहीं आये, दीवार
से एक कील बाहर निकाले। जब उसने सारी कीलें निकाल लीं तो वह अपने पिता के पास
पहुंचा। उन्होंने लड़के का हाथ पकड़ा और उसे उस दीवार के पास ले गए और बोले, ‘तुमने बहुत अच्छा काम किया है बेटे, लेकिन उस दीवार के छेदों की तरफ
देखो। अब यह दीवार पहले जैसी कभी नहीं हो सकती। इसी तरह से जब तुम गुस्से में कुछ
कहते हो तो घाव भी किसी के हृदय में इसी तरह लगता है। तुम कितनी बार भी माफी मांग
लो, निशान हमेशा रहता है।
गुस्से
में कही बात का कोई हर्जाना नहीं होता, इसलिए गुस्से पर काबू रखिये।
(‘उजाले
के गाँव में’ से)
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कारावास की कहानी – श्री अरविंद
की जुबानी(🔉१७.३६-२२.४५)
(पांडिचेरी आने के पहले श्री अरविंद कुछ समय अंग्रेजों की जेल में थे। जेल
के इस जीवन का श्री अरविंद ने ‘कारावास की कहानी’ के नाम से रोचक, सारगर्भित एवं पठनीय वर्णन किया है। ‘अग्निशिखा’ में इसके रोचक अंश प्रकाशित हुए थे। इसे हम जनवरी माह से एक धारावाहिक के
रूप में प्रकाशित कर रहे हैं। इसी कड़ी में यहाँ इसका पाँचवा अंश है।)
(५)
‘लपसी’ – महात्म्य
अगले
दिन सवेरे सवा चार बजे जेल की घंटी बजी। कैदियों को जगाने के लिए यह पहली घंटी थी।
कुछ मिनट बाद दूसरी बजती, इसके बाद कैदी
पंक्तिबद्ध हो बाहर आ हाथ-मुंह धो, ‘लपसी’ खा दिन-भर की मशक्कत में लग जाते। इतनी घण्टियों के बजते सोना असंभव जान
मैं भी उठ जाता। कुछ देर बाद मेरे दरवाजे पर लपसी हाजिर हुई किन्तु उस दिन उसे
खाया नहीं, केवल चाक्षुष परिचय हुआ। इसके कुछ दिन बाद पहली
बार इस परमान्न का भोग लगाया। लपसी, अर्थात मांड-सहित उबला
भात, यही थी कैदियों की छोटी हाजरी। लपसी की त्रिमूर्ति या
तीन अवस्थाएँ हैं। पहले दिन लपसी का प्रज्ञा भाव, अमिश्रित
मूल पदार्थ, शुद्ध शिव शुभ्र-मूर्ति। दूसरे दिन लपसी का
हरिण्यगर्भ रूप, दाल के साथ सीजा हुआ खिचड़ी के नाम से अभिहित, पीतवर्ण, नाना धर्मसंकुल। तीसरे दिन थोड़े से गुड़
में मिश्रित लपसी की विराट मूर्ति, धूसर वर्ण, कुछ परिणाम में मनुष्य के व्यवहार योग्य। प्राज्ञ और हरिण्यगर्भ का सेवन
साधारण मर्त्य मनुष्य के बूते से बाहर मान मैंने उसे त्याग दिया था। कभी कभार
विराट के दो ग्रास उदरस्थ कर ब्रिटिश राज्य के नाना सद्गुण और पाश्चात्य सभ्यता के
उच्च दर्जे के लोकहितवाद (humanitarianism) के बारे में
सोच-सोच कर आनंदमग्न होता रहता था। कहना
चाहिए कि लपसी ही था बंगाली कैदियों का एकमात्र पुष्टिकर आहार, बाकी सब था सारशून्य। वह होने से भी क्या होगा?
उसका जैसा स्वाद था, वह केवल भूख से सताये जाने पर ही खाया
जा सकता है, वह भी ज़ोर-जबर्दस्ती, मन
को बहुत समझा-बुझाकर।
उस
दिन साढ़े ग्यारह बजे स्नान किया। घर से जो पहन कर आया था, पहले चार-पाँच दिन वही पहने रहना
पड़ा। नहाते समय गोहालघर के जो वृद्ध कैदी वौर्डर मेरी देखरेख के लिए नियुक्त हुए
थे उन्होंने कहीं से डेढ़ हाथ चौड़ा एंडी का कपड़ा जुटा दिया था, अपने एकमात्र कपड़े सूखने तक वही पहने बैठा रहता। मुझे कपड़े धोने और बर्तन
माँजने नहीं पड़ते थे, गोहालघर का एक कैदी यह कर देता था।
ग्यारह बजे खाना। कमरे की छितनी के सान्निध्य से बचने के लिए ग्रीष्म की धूप सहते
हुए प्राय: ही आँगन में खाया करता। संतरी भी इसमें बाधा नहीं देते। शाम का खाना
होता पाँच-साढ़े पाँच बजे। उसके बाद लौह-द्वार का खुलना निषिद्ध था। सात बजे शाम का
घंटा बजता। मुख्य जमादार वौर्डरों को इकट्ठा कर उच्च स्वर में नाम पढ़ते जाते थे, उसके बाद सब अपनी अपनी जगह चले जाते। श्रांत निद्रा की शरण ले जेल के इस
एकमात्र सुख का अनुभव करते। इस समय दुर्बलचेता अपने दुर्भाग्य या भावी जेल-सुख की चिंता कर रोया करते।
भगवद-भक्त नीरव रात्री में ईश्वर का सान्निध्य अनुभव कर प्रार्थना या ध्यान में
आनंद लूटते। रात को इन अभागे, पतित,
समाज-पीड़ित तीन सहस्त्र ईश्वरसृष्ट प्राणियों का यह अलीपुर जेल, प्रकांड यंत्रणा-गृह विशाल नीरवता में डूब जाता। ... (क्रमश:, आगे अगले अंक में)
यू ट्यूब लिंक : https://youtu.be/KvbryTiWlvg
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